scorecardresearch
Thursday, 18 April, 2024
होमदेशपिघलते ग्लेशियर, पानी की कमी और पलायन- क्लाइमेट चेंज से कैसे उजड़ते जा रहे लद्दाख के गांव

पिघलते ग्लेशियर, पानी की कमी और पलायन- क्लाइमेट चेंज से कैसे उजड़ते जा रहे लद्दाख के गांव

ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिंदू कुश हिमालयन रेंज में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, और यही इस क्षेत्र में स्थित लद्दाख में लगातार बढ़ते जल संकट की एक बड़ी वजह मानी जा रही है.

Text Size:

कुल्लम, लेह: लेह जिले की एक निर्जन हो चुकी बस्ती की पूर्व निवासी सोनम चोंडोल का दो-टूक कहना है, ‘वहां पानी ही नहीं है.’ वह कहती हैं, ‘न तो हमारे पशुओं को खिलाने के लिए घास है, और न ही हमारे खेतों की सिंचाई के लिए कोई साधन है. फिर हम वापस क्यों जाएं?’

सोनम चोंडोल ने ऊपरी कुल्लम गांव के छह अन्य परिवारों के साथ करीब 10 साल पहले अपने घर से पलायन करने का फैसला किया. आजीविका के लिए बेहतर मौके की तलाश में वह करीब पांच किलोमीटर दूर उपशी शहर में आकर बस गईं. चोंडोल ने उस सड़क के किनारे एक कंफेक्शनरी शॉप खोली जो पर्यटकों को पुगा हॉट स्प्रिंग्स की ओर ले जाती है, और अब वह अपनी दुकान से होने वाली कमाई से ही परिवार चला रही हैं.

पानी की कमी के कारण लोगों का पलायन करना एक छोटी-ही सही लेकिन लद्दाख के जिला अधिकारियों और गैर-सरकारी संगठनों को ये सचेत करने की पर्याप्त वजह है कि यदि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए तत्काल कदम न उठाए गए तो इस क्षेत्र का भविष्य क्या होगा.

अधिकांश लद्दाख की तरह कुल्लम भी ग्लेशियर से घिरा है, और उस पानी पर निर्भर करता है जो बर्फ पिघलने के कारण पहाड़ों से नीचे गिरता है. लेकिन पिछले कुछ दशकों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पानी का स्रोत घटता जा रहा है.

हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र—जहां लद्दाख स्थित है—को हिमनदों की बर्फ की मात्रा के कारण तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है. 10 प्रमुख नदी प्रणालियों के स्रोत ये ग्लेशियर वैश्विक औसत की तुलना में बहुत तेजी से गर्म हो रहे हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मुताबिक, हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पीछे हटने की औसत गति 14.9 से 15.1 मीटर प्रति वर्ष है.

लेह जिले में एक उपमंडल अधिकारी, कृषि शकील उल रहमान जलापूर्ति की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए क्षेत्र में जलवायु-अनुरूप कृषि को बढ़ावा देने पर काम कर रहे हैं.

अपने दफ्तर की खिड़की से लद्दाख की बर्फ से ढकी चोटियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘लद्दाख के जल स्रोतों पर बहुत दबाव है, और ग्लेशियरों का पिघलना या टूटना एक बड़ी चुनौती बनने जा रहा है. यदि हम अभी कुछ नहीं करते हैं, तो और ज्यादा पलायन होगा और गांव अधिक वीरान होते जाएंगे.’


यह भी पढ़ें: 2036 तक GDP में 4.7% का उभार, 2047 तक 1.5 करोड़ नए रोजगार: भारत में नेट-जीरो के असर पर रिपोर्ट


पलायन एक बड़ी चुनौती

लद्दाख में ग्लोबल वार्मिंग का सबसे स्पष्ट संकेत खुद पहाड़ों का बदलता चेहरा है.

ऊपरी कुल्लम से ही पलायन करने वाले 70 वर्षीय त्सेरिंग अंगचुक अपने घुटने के ठीक नीचे अपने पिंडलियों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं. ’15-20 साल पहले जब बर्फबारी होती थी, तो यहां तक बर्फ जम जाती थी. लेकिन अब, बमुश्किल कुछ इंच ही होती है. पहाड़ों पर अब बर्फ बहुत कम ही गिरती है.’

Tsering Angchuk in his village, Kullum, in Ladakh | Praveen Jain | ThePrint
लद्दाख में अपने गांव, कुलुम में त्सेरिंग अंगचुक | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

अंगचुक गलत नहीं कह रहे. वैज्ञानिकों ने पिछले कुछ दशकों में लद्दाख में बर्फबारी और ग्लेशियर के द्रव्यमान दोनों में कमी दर्ज की है. मार्च और अप्रैल के महीनों में हिमपात और बारिश उनके खेतों में जौ, गेहूं, मटर और आलू बोने के लिए सिंचाई के लिए तो पर्याप्त थी. पर बर्फबारी काफी कम होने के कारण बुवाई का मौसम गड़बड़ा गया.

ग्लेशियोलॉजिस्ट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. अनिल कुलकर्णी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने देखा है कि बर्फ समय से पहले पिघल रही है, और इसलिए पीक टाइम में झरनों का पानी बढ़ जाता है और गर्मी के मौसम में इसमें कमी हो जाती है. मिट्टी की नमी भी घटी है, जो झरनों के सूखने का कारण बन सकती है.’

अंगचुक का कहना है कि वह 2012 में ऊपरी कुल्लम से पलायन करने वाले पहले व्यक्ति रहे हैं, इससे दो साल पहले 2010 में बादल फटने की भयावह घटना के कारण उनके गांव को पानी की आपूर्ति करने वाले ग्लेशियर से भरे झरने का एक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था, जिससे अंततः यह सूख गया. उन्होंने बताया कि झरने में पानी की कमी और मानसून चक्र के सर्दियों की ओर खिसक जाने से वहां खेती-बाड़ी करना एक तरह से अव्यावहारिक हो गया था.

लेकिन कुछ किलोमीटर के दायरे में भी गांव की भौगोलिक स्थिति काफी भिन्न है. ऊपरी कुल्लम से करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे की ओर चार घरों वाली एक बस्ती लोअर कुल्लम के निवासियों की स्थिति थोड़ी बेहतर है. लोअर कुल्लम को पानी की आपूर्ति करने वाला झरना अभी पूरी तरह से सूखा नहीं है, जिससे खेती में काफी मदद मिल रही है.

लोअर कुल्लम के निवासी उर्गन चोसडोल ने कहा, ‘हमने गांव नहीं छोड़ा क्योंकि हमें झरने से जो थोड़ा-बहुत पानी मिला, हम उससे काम चलाने की स्थिति में थे. लेकिन यह अब और कठिन होता जा रहा है. हमारी उपज उतनी नहीं रह गई है जितनी 2010 से पहले थी.’

बदलती स्थितियों के साथ कदमताल की कोशिशें

पड़ोसी गांव इगू में भी पानी की किल्लत को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है.

गांव के प्रमुख त्सेरिंग गुरमेट ने दिप्रिंट को बताया, ‘पानी का प्रवाह अनिश्चित है. हमारे गांव को आपूर्ति करने वाले ग्लेशियर का आकार काफी कम हो गया है. सितंबर तक बहने वाला पानी अगस्त मध्य के आसपास ही कम हो गया. बारिश का चक्र भी बिगड़ गया है, जिससे खेती करना मुश्किल हो गया है.’

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के वैज्ञानिकों ने 2016 के एक अध्ययन में पाया कि लेह में जलवायु परिवर्तन ने वर्षा क्रम में बदलाव के साथ एक ‘वार्मिंग ट्रेंड’ दर्शाया है जो बताता है कि ‘कुल मिलाकर इस क्षेत्र में अधिक वर्षा हो रही है जो शुष्क क्षेत्र में आमतौर पर नहीं होती थी.’

गांव के एक अन्य निवासी ताशी नर्बु के मुताबिक, 20 साल पुरानी एक योजना के तहत गांवों को पानी की आपूर्ति करने वाले ग्लेशियर के नीचे छोटे तटबंध या बांध बनाए गए थे, जिससे बर्फ की चादर जमने के कारण एक जलाशय बन गया. नर्बु ने कहा कि बर्फ का यह जलाशय गर्मी के महीनों में भी पानी की आपूर्ति करता था, लेकिन कुछ साल पहले यह टूट गया.

उन्होंने कहा, ‘इस बांध प्रणाली को फिर से बनाया जाना चाहिए क्योंकि यह वास्तव में उस समय पानी की आपूर्ति नियमित बनाए रखने में मदद करती है जब हमें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है, इसके टूटने के बाद से बर्फ पहले की तरह नहीं बनी.’

Tashi Nurbu (right), Tsering Gurmat and Sonam Phunchok at Igoo | Praveen Jain | ThePrint
इगू गांव में त्सेरिंग गुरमेट (लेफ्ट में), सोनम फुनचोक (बीच में), ताशी नर्बु (दाहिने) | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

कृत्रिम ग्लेशियर यानी पहाड़ों पर बर्फ का एक जलाशय बनाने के विचार का श्रेय एक सिविल इंजीनियर चेवांग नॉरफेल को जाता है, जिन्होंने 1980 के दशक में इस मॉडल का आविष्कार किया था, उन्हें यह ख्याल ये देखने के बाद आया कि नलों में पानी जम जाने के दौरान बूंदे नीचे जमीन से कैसे टकराती हैं.

एक नए प्रोटोटाइप, जिसे आइस स्तूप कहने का तरीका 2013 में इंजीनियर सोनम वांगचुक ने खोजा था. ग्लेशियर के शंकु आकार का मतलब है कि कम सतह क्षेत्र सूर्य के संपर्क में रहेगी, और पानी का बहाव भी नियंत्रित रह सकेगा.

बर्फ का स्तूप बनाने में एक पाइप का इस्तेमाल होता है जो किसी ग्लेशियर या जलधारा से पानी खींचता है और उसे ऊंचाई पर उपयुक्त स्थान पर पहुंचाया जाता है. वहां, स्प्रिंकलर के माध्यम से धीरे-धीरे पानी छोड़ा जाता है, जो धीरे-धीरे बर्फ का आकार ले लेता है. जैसे-जैसे पानी छिड़का जाता है, वर्टिकल आकार में बर्फ का पहाड़ आकार लेने लगता है और एक कृत्रिम ग्लेशियर तैयार हो जाता है. ये ग्लेशियर हाल के दशकों में गर्मी के शुरुआती महीनों में पानी कमी को पूरा करने के लिए डिजाइन किए गए हैं.

2019 में इस मॉडल को आदिवासी मामलों के मंत्रालय की तरफ से वांगचुक के संगठन स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख (एसईसीएमओएल) के साथ मिलकर लोअर कुल्लम में लागू किया गया था.

चोसडोल ने कहा, ‘हमने 2019 में इसे आजमाया, लेकिन यह असफल रहा क्योंकि हमने इसे गांव के बहुत करीब बना दिया और यह बहुत जल्दी पिघल गया. हम केवल इस बार यानी 2022 की सर्दी में सफल हुए थे. इसमें बहुत ज्यादा ट्रायल की जरूरत पड़ती है और त्रुटि की गुंजाइश भी रहती है. बर्फ का स्तूप बनाने के लिए हमें यहां से 5-6 किलोमीटर ऊपर चढ़ाई करनी पड़ती है, जहां तापमान कम होता है और बर्फ ठीक से जमी रह पाती है.’


यह भी पढ़ें: MP में बाढ़ से UP में सूखे तक- मानसून में ये अभी तक का सबसे जबर्दस्त उतार-चढ़ाव है, लेकिन विशेषज्ञ हैरान नहीं हैं


हालांकि, पानी के कमी से पड़ने वाले प्रभावों को घटाने के लिए कुछ कदम उठाए गए, लेकिन यह काफी महंगा है और ज्यादा रखरखाव की भी जरूरत पड़ती है. फ्रीजिंग टेम्परेचर में पाइप जाम होने की संभावना रहती है. इसके अलावा कुछ अन्य अप्रत्याशित नतीजे भी सामने आए हैं, जैसे उदाहरण के तौर पर लेह से 20 किलोमीटर दूर फयांग गांव में हिम स्तूप बनाने के लिए पानी मोड़ने से संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर पड़ोसी गांव के साथ संघर्ष की स्थिति आ गई.

इस साल शुरू में लेह के कृषि विभाग ने लोअर कुल्लम में विशेष विकास पैकेज योजना लागू करने का फैसला किया, जिसमें सूक्ष्म सिंचाई के लिए भूजल के दोहन के लिए सौर ऊर्जा चालित बोरवेल स्थापित करना शामिल है. रहमान के मुताबिक, हालिया समय तक तकनीक आवश्यक नहीं थी. माइक्रो इरिगेशन में ड्रिपर्स, स्प्रिंकलर और फॉगर्स आदि के माध्यम से छिड़काव कर कम पानी का उपयोग सुनिश्चित किया जाता है.

रहमान ने दिप्रिंट को बताया, ‘शुरुआत में तो लोगों को इस पर संदेह था कि माइक्रो इरिगेशन से कोई फायदा भी होगा. लेकिन इस साल उन्होंने अच्छी-खासी मात्रा में आलू और समर स्क्वैश उगाए हैं. ऊपरी कुल्लम के ग्रामीण भी अब हमें इसे वहां लगाने देने पर विचार कर रहे हैं.’ उन्होंने कहा कि यह योजना एक दर्जन अन्य गांवों में लागू की जाएगी.

उत्सर्जन घटाने की जरूरत

अभी तीन साल पहले ही लदद्ख में खुले क्षेत्रीय जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरनमेंट के प्रमुख डॉ. सुब्रत शर्मा कहते हैं, ‘जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे ज्यादा जोखिम की स्थिति में होने के बावजूद लद्दाख क्षेत्र के मौसम और जलवायु पर डेटा सीमित ही है.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट प्रामाणिक साक्ष्य तो कम ही मिले हैं लेकिन ऐसे बदलाव के परोक्ष संकेत जरूर मिलते रहते हैं जिसमें बादल फटने की घटनाएं बढ़ना प्रमुख है.’

Sonam Chondol (left)and Dechen Spaldon at their Shop in Upshi village | Praveen Jain | ThePrint
सोनम चोंडोल (बाएं) अपनी भतीजी डेचेन स्पलडन के साथ उपशी में अपनी दुकान पर | प्रवीण जैन | दिप्रिंट

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की हालिया रिपोर्टों के मुताबिक, औद्योगीकरण पूर्व के समय से अब तक दुनियाभर में औसत तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है. ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने को लेकर दुनियाभर में प्रयास जारी हैं और इस प्वाइंट पर आकर लद्दाख के 2.23 डिग्री तक गर्म हो जाने की आशंका है. लद्दाख के ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित होने का जोखिम वैसे भी काफी ज्यादा है.

वैज्ञानिक प्रमाण बताते हैं कि ऐसे तापमान पर, मौसम के मिजाज में पहले से कहीं अधिक तेजी से बदलाव नजर आने के आसार हैं.

कुलकर्णी ने कहा, ‘इन्हें नया जीवन देने के लिए कृत्रिम हिमनदों जैसे उपाय अपनाने की जरूरत पड़ सकती है. हमें यह पता लगाने के लिए और अधिक वैज्ञानिक जांच की जरूरत होगी कि वे किन परिस्थितियों में सफल और असफल होंगे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘अभी समस्या की सबसे बड़ी वजह ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन है. और उत्सर्जन में कटौती करना ही एकमात्र स्थायी समाधान है.’

बहरहाल, ऊपरी कुल्लम में अपने घरों और खेतों को छोड़कर पलायन कर चुके अंगचुक जैसे लोगों को वापस लौटने के लिए मनाना बहुत मुश्किल काम नहीं है, बशर्ते सिंचाई योजनाएं और कृत्रिम हिमनद पानी का प्रवाह बढ़ाने में मददगार साबित हों.

अंगचुक का कहना है, ‘क्या सच में पानी आएगा? मुझे अभी तक बोरवेल के बारे में पता भी नहीं था. उनका कहना है कि वे इसे लगा देंगे. हो सकता है कि यह कारगर हो और अगर ऐसा हुआ तो मैं वापस लौटने के बारे में सोचूंगा.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढे़ं: दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है आर्कटिक: फिनिश स्टडी


 

share & View comments