नई दिल्ली: मद्रास बार संघ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि 19 संवैधानिक ट्रिब्युनल्स के सदस्यों की नियुक्ति के लिए नरेंद्र मोदी सरकार के बनाए नए नियम उन मानकों का पालन नहीं करते, जो शीर्ष अदालत ने पिछले साल नवंबर में तय किए थे. शीर्ष अदालत में 7 सितंबर को इस याचिका की सुनाई होने की संभावना है.
शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि नियुक्ति की प्रक्रिया में न्यायिक प्रधानता बनाए रखी जाए.
अपीलीय ट्रिब्युनल और अन्य अथॉरिटीज़ (योग्यता, अनुभव, और सदस्यों की दूसरी सेवा शर्तें) नियम 2020 को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि नियुक्ति के नियम, शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं और इनसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता कमज़ोर पड़ने का ख़तरा है और ये दोनों चीज़ें संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं.
याचिकाकर्ता का कहना है कि इस साल 12 फरवरी को जारी हुए नए नियमों का, ‘न्याय के प्रभावी और कुशल प्रशासन पर’ प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. ये नियम ट्रिब्युनल्स में नियुक्तियों पर न्यायिक विचारों से मेल नहीं खाते, जो 2010 के बाद दिए गए कई फैसलों में रेखांकित किए गए हैं. जिनमें सबसे ताज़ा फैसला 2019 का है.
याचिकाकर्ता ने ये भी दावा किया कि अपने मौजूदा स्वरूप में ये नियम कार्यपालिका को ट्रिब्युनल्स के कामकाज में दख़ल का मौक़ा देंगे.
‘नए नियमों में भी वही ख़ामियां हैं, जो पुरानों में थीं’
हाईकोर्ट्स और निचली अदालतों पर दबाव और बोझ कम करने की मंशा से संविधान में ट्रिब्युनल्स क़ायम करने का प्रावधान किया गया है. प्रशासनिक ट्रिब्युनल्स में न्यायिक व प्रशासनिक दोनों विशेषताएं होती हैं.
मौजूदा नियमों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का पूर्व जज या किसी हाईकोर्ट का पूर्व चीफ जस्टिस किसी ट्रिब्युनल का प्रमुख हो सकता है, जिसमें न्यायिक और टेक्निकल सदस्य भी होते हैं. न्यायिक सदस्य क़ानूनी पेशे से चुने जाते हैं, जबकि टेक्निकल मेम्बर्स अवकाश प्राप्त सिविल सर्वेंट्स होते हैं.
शीर्ष अदालत ने 13 नवंबर 2019 को 2017 में बनाए गए उन नियमों को रद्द कर दिया था, जिनमें ट्रिब्युनल मेम्बर्स के लिए योग्यता के मानदंड, चुनने की प्रक्रिया, इस्तीफा व बर्ख़ास्तगी, वेतन, अवधि और अन्य सेवा शर्तें निर्धारित की गईं थीं.
इन नए नियमों की अधिसूचना वित्त अधिनियम 2017 के बाद हुई थी. जिसमें बहुत से विशिष्ट ट्रिब्युनल्स के ढांचे, और उनके अधिकार क्षेत्र में कुछ अहम बदलाव किए गए थे और साथ ही कर-निर्धारण और अन्य वित्तीय पहलुओं से जुड़े कानूनों में भी परिवर्तन किए गए थे.
इन नियमों और वित्त अधिनियम के प्रावधानों के खिलाफ, शीर्ष अदालत में याचिकाएं दायर की गईं थीं, जो याचिकाकर्ता के अनुसार, धन विधेयक के तौर पर अनुचित तरीक़े से पारित किया गया था.
उस समय (2019 में) पांच सदस्यों की एक बेंच ने इन नियमों को असंवैधानिक क़रार दे दिया था, जबकि वित्त अधिनियम की वैधता के सवाल को एक बड़ी बेंच को भेज दिया था.
कोर्ट ने इन नियमों को इस आधार पर रद्द किया कि ये नियम नियुक्तियों के मामले में न्यायिक प्रधानता के सिद्धांत के अनुरूप नहीं हैं. कोर्ट का एक निर्देश ये था कि सरकार नए नियम बनाए, जो 2019 में शीर्ष अदालत के दिए गए फैसले के अनुसार हों.
अदालत ने ये भी कहा था कि ट्रिब्युनल्स के सदस्यों की नियुक्ति का तरीक़ा वही होना चाहिए, जो हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति का होता है.
लेकिन, मद्रास बार संघ के अनुसार नए नियमों में भी वही ख़ामियां हैं जो पुराने नियमों में थीं और इनसे ट्रिब्युनल्स के प्रशासन में कार्यपालिका के दख़ल पर रोक नहीं लगती.
‘नियुक्तियों में अभी भी कार्यपालिका का दबदबा’
2019 के फैसले के अनुसार, चयन समिति में बहुमत न्यायपालिका का होना चाहिए और भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत निर्णायक होना चाहिए. फैसले में आगे कहा गया कि ट्रिब्युनल का अध्यक्ष और पीठासीन अधिकारी, न्यायिक सदस्य होना चाहिए.
मद्रास बार संघ ने अपनी याचिका में कहा है कि नए नियमों में भारत के मुख्य न्यायाधीश के निर्णायक मत का प्रावधान नहीं है. याचिका में कहा गया है कि बहुत से ट्रिब्युनल्स में अध्यक्ष/पीठासीन अधिकारी, ग़ैर-न्यायिक या बिना किसी क़ानूनी अनुभव का व्यक्ति हो सकता है.
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शीर्ष अदालत ने ट्रिब्युनल के न्यायिक सदस्य के तौर पर भारतीय विधि सेवा के अधिकारियों और ऐसे अन्य लोगों की नियुक्ति पर रोक लगा दी थी, जो जज या अभ्यासरत वकील नहीं थे. लेकिन नए नियमों के तहत अन्य लोगों के अलावा भारतीय विधि सेवा के अधिकारी भी, न्यायिक सदस्य के तौर पर नियुक्त किए जा सकते हैं.
याचिकाकर्ता ने कहा है कि 2020 के नियमों में, कई ट्रिब्युनल्स में नायायिक सदस्यों के पदों के लिए वकीलों को योग्यता के दायरे से बाहर रखा गया है, जबकि कुछ दूसरे ट्रिब्युनल्स में वकीलों के योग्य होने के लिए कुछ अनुचित ज़रूरतें रखी गई हैं.
याचिकाकर्ता की दलील थी कि, ‘ये दोनों ही पहलू योग्यता-विरोधी हैं, इनकी वजह से कम आवेदन आते हैं, जिससे विशेषकर ट्रिब्युनल्स में रिक्तियों की स्थाई समस्या को देखते हुए, उनके प्रभावी और कुशल कामकाज पर असर पड़ता है.’
टेक्निकल सदस्यों के मामले में कोर्ट ने पहले कहा था कि आवश्यक होने पर ही उन्हें नियुक्त किया जा सकता है. कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि ऐसे पदों के लिए ऐसे नौकरशाहों पर विचार किया जाना चाहिए, जिनके पास ऐसा विशेष ज्ञान हो- जिसकी किसी ख़ास ट्रिब्युनल के लिए ज़रूरत हो- और अच्छा हो कि वो सचिव, या अतिरिक्त सचिव के पद पर काम कर रहे हों.
याचिकाकर्ता के अनुसार कुछ ट्रिब्युनल्स में, टेक्निकल मेम्बर्स के लिए विशेषज्ञता की ज़रूरत को सार्वजनिक मामलों के अनुभव और प्रशासन वग़ैरह को शामिल करके हल्का कर दिया गया है. इसके अलावा, याचिका में ये भी दावा किया गया कि कुछ ट्रिब्युनल्स में बिना किसी विशेष ज्ञान वाले नौकरशाह भी बतौर टेक्निकल मेम्बर्स नियुक्त किए जा सकते हैं.
2019 के फैसले में ट्रिब्युनल सदस्यों के लिए 5 या 7 साल के कार्यकाल की बात की गई थी, चूंकि छोटे कार्यकाल निष्पक्षता को प्रभावित करते हैं और कार्यपालिका के प्रभाव को बढ़ाते हैं. लेकिन नए नियमों में 4 साल के कार्यकाल, या रिटायरमेंट की आयु (70 या 65) का प्रावधान है, जो भी पहले हो.
हितों में टकराव न हो ये सुनिश्चित करने के लिए शीर्ष अदालत ने आदेश दिया था कि सभी ट्रिब्युनल्स एक मॉडल एजेंसी के आधीन हों, जो क़ानून व न्याय मंत्रालय हो तो बेहतर है. लेकिन, नए नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे किसी ट्रिब्युनल का मूल मंत्रालय नियुक्ति प्रक्रिया में शरीक हो सकता है.
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