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Sunday, 12 May, 2024
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जस्टिस कर्णन ने कहा- जज कानून से ऊपर नहीं हैं, प्रशांत भूषण पर एससी की कार्रवाई असंवैधानिक

जस्टिस सीएस कर्णन, जिन्हें 2017 में अवमानना का दोषी क़रार दिया गया था. एडवोकेट प्रशांत भूषण का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि जजों के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए एक खुले सिस्टम की ज़रूरत है.

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नई दिल्ली: जस्टिस सीएस कर्णन ने जो 2017 में अवमानना के दोषी क़रार दिए जाने वाले पहले सेवारत न्यायाधीश बने, एडवोकेट प्रशांत भूषण के ख़िलाफ चलाई गई कार्यवाही को असंवैधानिक़ क़रार दिया है और कहा है कि अब समय आ गया है कि सिटिंग अथवा रिटायर्ड जज के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए एक पारदर्शी सिस्टम बनाया जाए.

दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में, मद्रास और कलकत्ता हाईकोर्ट के पूर्व जज ने दलील दी कि अपने ट्वीट्स में भूषण ने न्यायपालिका में प्रचलित व्यवस्था पर अपने विचार व्यक्त किए थे. ऐसा करके उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल किया था. रिटायर्ड जज ने भूषण को अपना समर्थन दिया है. हालांकि ये भूषण उन लोगों में से थे, जिन्होंने जस्टिस कर्णन को 6 महीने के लिए जेल भेजने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था.

जस्टिस कर्णन ने कहा, ‘जज क़ानून से ऊपर नहीं हैं. वो भी जनता के प्रति उतने ही जवाबदेह हैं, जितने दूसरे संस्थानों के सदस्य हैं. वो भी बाध्य हैं कि भारतीय संविधान का पालन करें, और साथ ही पारदर्शिता के साथ काम करें. आख़िरकार, उन्हें अपने वेतन जनता के करों से ही मिलते हैं.’

तब के भारत के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर की अगुवाई में सात जजों की एक संवैधानिक पीठ ने 9 मई 2017 को कर्णन को अवमानना के लिए सज़ा सुनाई थी. ये आदेश उनके और शीर्ष अदालत के बीच कई महीने चले गतिरोध के बाद आया था, जिसमें दोनों पक्षों ने एक दूसरे के ख़िलाफ कई आदेश जारी किए. एक आदेश में जस्टिस कर्णन ने उनके खिलाफ मामले का संज्ञान लेने के लिए एससी/एसटी एक्ट के तहत सीजेआई खेहर को उम्र क़ैद की सज़ा सुना दी थी.

ये विवाद तब शुरू हुआ, जब जनवरी 2017 में जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर कुछ सिटिंग जजों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. सात जजों की पीठ ने स्वत: संज्ञान लेते हुए उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी, और फरवरी में उन्हें दोषी क़रार दे दिया.

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दस मार्च को अदालत ने जस्टिस कर्णन के खिलाफ ग़ैर-ज़मानती वॉरंट जारी कर दिए, और एक आदेश के ज़रिए उनसे न्यायिक कार्य ले लिया गया, चूंकि उन्होंने कार्यवाही में व्यक्तिगत रूप से पेश होने के, शीर्ष अदालत के निर्देश को मानने से इनकार कर दिया था.

‘कार्यवाही शीर्ष अदालत की असंगति को दर्शाती है’

जस्टिस कर्णन को सज़ा सुनाए जाने के बाद, भूषण ने ट्वीट किया था, ‘ख़ुशी है कि एससी ने आख़िरकार न्यायालय की घोर अवमानना के लिए कर्णन के साथ बिल्कुल सही किया. उन्होंने जजों पर अंधाधुंध आरोप लगाए, और एससी के जजों के खिलाफ, बेहूदे आदेश जारी किए.’

शुक्रवार को एक ताज़ा ट्वीट में भूषण ने अपने रुख़ को दोहराते हुए कहा कि अपने सहकर्मियों पर बेहूदे आरोप लगाने के अलावा शीर्ष अदालत के जजों को जेल भेजने के लिए जस्टिस कर्णन ने अपनी न्यायिक शक्तियों का भी दुरुपयोग किया था.

लेकिन जस्टिस कर्णन ने उनके खिलाफ की गई, भूषण की टिप्पणी के बारे में, ये कहते हुए अपने विचार साझा करने से इनकार कर दिया, कि उन्हें क़ानून की ज़्यादा चिंता है. उन्होंने इस बात पर टिप्पणी करने से भी मना कर दिया, कि उनके मामले में लोगों में वो आक्रोश नहीं दिखा, जो भूषण के केस में देखने को मिल रहा है.

उनके अनुसार भारतीय संविधान एक ऐसा शीर्ष क़ानून है, जो हर नागरिक को बांधकर रखता है, जिसमें जज भी शामिल हैं. उन्होंने पूछा, ‘जब शीर्ष क़ानून अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, तो अदालतें उसे कैसे रोक सकती हैं.’

जस्टिस कर्णन ने भूषण को दोषी ठहराए जाने के कोर्ट के तर्क पर भी सवाल उठाए और कहा कि एडवोकेट ने अपने ट्वीट्स में जो कहा वो सच्चाई थी.


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पूर्व जज ने कहा, ‘मेरी समझ में नहीं आता कि भूषण ने अपने बयान से क़ानून को कैसे तोड़ा है और उनके ट्वीट के कौन से हिस्से से ‘मीलॉर्ड्स’ की बेइज़्ज़ती हुई है.

उन्होंने अवमानना के मामले तय करने में अदालतों द्वारा अलग अलग मापदंड अपनाने की भी आलोचना की और कहा कि ये कोर्ट के असंगत दृष्टिकोण को दर्शाता है.

उन्होंने कहा, ‘मेरे मामले में उन्होंने सात जजों की बेंच बना दी, लेकिन इस (भूषण के) केस में ये तीन सदस्यीय बेंच है. कुछ केस ऐसे हैं जिनमें दो जजों की बेंच ने भी अवमानना के मामले सुने हैं. इससे ज़ाहिर होता है कि कोर्ट की अवमानना के मामले सुनने के लिए, कोई तय प्रक्रिया नहीं है.’

‘जजों के ख़िलाफ जांच के खुले सिस्टम की ज़रूरत’

भूषण के खिलाफ 2009 के अवमानना मामले में भी जस्टिस कर्णन न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली, तीन जजों की बेंच के इस विचार से सहमत नहीं थे कि बेंच को दलीलों को सुनना चाहिए कि क्या नागरिक जजों के खिलाफ, खुलेआम भ्रष्टाचार के आरोप लगा सकते हैं. ख़ासकर तब, जब ऐसे मामलों से निपटने के लिए, संस्थान में ही एक व्यवस्था मौजूद है.

जज ने कहा, ‘मैंने 20 जजों के खिलाफ प्रधानमंत्री को शिकायत की थी, जिन्होंने उस शिकायत को जस्टिस खेहर के पास भेज दिया. मेरी शिकायत पर अन्यथा एक जांच अनिवार्य थी. लेकिन सीजेआई ने, मेरे ख़िलाफ कार्रवाई करने के लिए, न्यायिक साइड पर एक बेंच गठित कर दी.’

उन्होंने और मिसालें भी पेश कीं जिनमें अंदरूनी व्यवस्था में की गईं जांचें या तो बीच में बंद कर दी गईं या उनमें कुछ नतीजा नहीं निकला.

उन्होंने कहा, ‘जज के खिलाफ कोई भी अपराधिक जांच खुली होनी चाहिए. उसमें पारदर्शिता होनी चाहिए. लोगों को जानने का अधिकार है, और उन्हें जानना चाहिए कि न्यायपालिका में क्या चल रहा है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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