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Thursday, 9 May, 2024
होमदेश‘झूठे सबूत, दागी पुलिस’: क्यों पिछले साल हाई कोर्ट के 15 फैसलों से मौत की सजा पाए 30 दोषी बरी हो गए

‘झूठे सबूत, दागी पुलिस’: क्यों पिछले साल हाई कोर्ट के 15 फैसलों से मौत की सजा पाए 30 दोषी बरी हो गए

छह विभिन्न हाई कोर्ट ने ‘गढ़ी गई’ एफआईआर और झूठे गवाह तैयार करने वाले जांचकर्ताओं को फटकार लगाई. वहीं, साक्ष्यों को छिपाने के लिए अभियोजकों और ‘वहशी दरिंदा’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल के लिए निचली अदालतों की खिंचाई भी की.

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नई दिल्ली: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की एक खंडपीठ के मुताबिक एक सात वर्षीय बच्ची के बलात्कार और हत्या के मामले में पेश किए गए साक्ष्य आरोपी नहीं, बल्कि जांचकर्ताओं को दंड देने के लिए पर्याप्त थे.

कोर्ट ने सितंबर 2021 के एक फैसले में कहा कि मामले में सबूत के तौर पर पेश किया गया वीडियो जांच अधिकारी की लिखी और फिल्माई गई एक ‘कहानी’ के अलावा और कुछ नहीं था. यह बात अलग है कि वह ‘एक अच्छा डायरेक्टर नहीं था’ और ‘तथ्यात्मक गलतियां कर बैठा.’

हाई कोर्ट ने पुलिस वीडियो और जांच में अन्य कमियों के मद्देनजर कथित तौर पर संदिग्ध आरोपी रवि टोली को बरी कर दिया, जिसे विदिशा की एक सेशन कोर्ट ने 2019 में मौत की सजा सुनाई थी.

यह पिछले साल छह विभिन्न हाई कोर्ट के सुनाए 15 फैसलों में से एक था, जिसमें ऐसे कुल 30 दोषियों को बरी किया गया, जिन्हें निचली कोर्ट से मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी.

इन 15 फैसलों में बलात्कार के 11 केस (जिनमें नौ लड़कियां नाबालिग थीं), 2018 में मथुरा में हुआ तिहरा हत्याकांड और 1999 में मध्य बिहार में कथित तौर पर माओवादी कैडरों की संलिप्तता वाला सेनारी नरसंहार शामिल हैं. इनमें से कम से कम तीन मामलों में हाई कोर्ट ने दोषी जांच अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का निर्देश भी दिया है.

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अब तक, हाई कोर्ट के इन फैसलों में से कम से कम चार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.

दिप्रिंट ने हाई कोर्ट के इन सभी फैसलों की पड़ताल की, जो एक नजर में भारत की आपराधिक न्याय प्रक्रिया पर सवाल खड़े करने वाली तस्वीर पेश करते हैं. अगर एक साथ जोड़ें तो 900 से अधिक पृष्ठों वाले ये 15 फैसले साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़, बिना किसी ठोस आधार पर तैयार की गई एफआईआर, झूठे गवाह, सजा दिलाने में महत्वपूर्ण साबित होने वाले फोरेंसिक सैंपल लापता होने, अभियोजन संबंधी कदाचार, उचित कानूनी सहायता के अभाव और उपयुक्त तकनीक के इस्तेमाल में नाकामी जैसी कई खामियों को उजागर करते हैं.

ग्राफिक: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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‘सबूत जांच अधिकारी निर्देशित फिल्म की कहानी जैसे’
24 अक्टूबर 2015 को भोपाल रेलवे स्टेशन के बाहर स्थित एक मंदिर से सात साल की बच्ची अपहृत हो गई थी. अगले दिन उसका शव वहां से करीब 60 किलोमीटर दूर राज्य के ही विदिशा शहर के एक कुएं में मिला. एक महीने बाद पुलिस ने इस अपराध के लिए रवि टोली को गिरफ्तार कर लिया और एक सत्र अदालत ने मार्च 2020 में उसे मौत की सजा सुना दी.
लेकिन, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुताबिक, यह एक ओपन एंड शट केस था जिसमें कुछ अस्पष्ट विवरणों को छिपा दिया गया था.
साक्ष्य के तौर पर विभिन्न वीडियो रिकॉर्डिंग कोर्ट में पेश की गई थी, जिसमें टोली ने स्पष्ट रूप से अपराध स्वीकारा था और बलात्कार की जगह के बारे में भी बताया था. एक अन्य रिकॉर्डिंग में टोली के घर से पैंट, शर्ट और अंडरवियर की बरामदगी दिखाई गई थी—यही वो वीडियो है जिसे मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने जांच अधिकारी संजीव चौकसे द्वारा तैयार की गई फिल्म करार दिया है.
कोर्ट ने आगे आरोप लगाया कि पुलिस ने ‘झूठे सबूत’ गढ़ने की कोशिश की और ऐसे गवाहों को पेश किया जो ‘सिखाए-पढ़ाए गए, अविश्वसनीय और झूठे’ थे. एक अन्य गवाह को ‘रट्टू तोते की तरह घटना का ब्योरा’ देने वाला माना गया.

9 सितंबर 2021 के अपने फैसले में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने न केवल टोली को बरी कर दिया बल्कि झूठे तथ्य सामने रखने के आरोप में दो पुलिसकर्मियों चौकसे और एस.एन.एस. सोलंकी के साथ-साथ सात गवाहों के खिलाफ भी मुकदमा चलाने का निर्देश दिया.

इसे मध्य प्रदेश सरकार के साथ-साथ चौकसे ने भी मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने पिछले साल अक्टूबर में पुलिसकर्मियों और गवाहों के खिलाफ मुकदमा चलाने पर रोक लगा दी. बहरहाल, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ ऐसे सवाल जरूर उठाए थे जो अभियोजन पक्ष की खामियों को स्पष्ट तौर पर उजागर करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एमबी लोकुर ने दिप्रिंट से कहा कि अभियोजन पक्ष को झूठे गवाह तैयार करने के लिए ‘दंडित किया जाना चाहिए.’

जस्टिस लोकुर ने आगे कहा, ‘अदालतों के लिए बस यही पर्याप्त नहीं है कि उनकी तरफ से पारित फैसलों में इन्हें तीखी टिप्पणियों के तौर पर संदर्भित किया जाए. इनका कोई असर होता नहीं दिख रहा है. ये कहना भर ही पर्याप्त नहीं है कि जांच अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जाए. अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वास्तव में दंडात्मक कार्रवाई हो न कि सिर्फ एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन में ट्रांसफर करके खानापूरी कर दी जाए, क्योंकि इससे कुछ फायदा नहीं होने वाला है.’

सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन, जो एक जानी-मानी क्रिमिनल लॉयर हैं, ने भी दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि जांच एजेंसियों को ‘सबूत गढ़ने और निर्दोष लोगों पर मुकदमा चलाने के मामले में शायद ही कभी जवाबदेह ठहराया जाता है.’

हाल ही में हाई कोर्ट से बरी किए लोगों के मामले यद्यपि गहन जांच का नतीजा है लेकिन जॉन ने कहा कि आरोपियों ने पहले ही इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा है.

उन्होंने कहा, ‘ये मामले आरोपियों के बरी होने के बाद खत्म जरूर हो गए, लेकिन इससे पहले उन्हें एक लंबा वक्त जेल में काटना पड़ा और जांच के दौरान बरती गई लापरवाही और मामले में अभियोजन पक्ष की अविश्वसनीयता के बावजूद निचली अदालतों ने उन्हें मौत की सजा सुना दी.’ साथ ही जोड़ा कि ‘सिर पर मौत की तलवार लटकने’ से अक्सर मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है और यही नहीं इसके सामाजिक और आर्थिक नुकसान भी उठाने पड़ते हैं.

‘एनकाउंटर’ में गिरफ्तारी, मीडिया का दबाव, ‘गढ़ी गई’ एफआईआर

जून 2019 में उत्तर प्रदेश के रामपुर में डेढ़ माह से गायब एक छह वर्षीय बच्ची का शव एक टूटे-फूटे घर में ‘ममीफाइड स्वरूप’ में मिला था और उसके कुछ अंग गायब थे. इसके ठीक एक घंटे बाद पुलिस ने मोहम्मद नाजिल नामक एक संदिग्ध को गिरफ्तार किया, लेकिन एक ‘मुठभेड़’ के दौरान उसके दोनों पैरों में गोली मारने के बाद. आरोपी ने दावा किया कि अपराध कबूलने के लिए पुलिस ने उसे काफी करीब से गोली मारी थी.

कुछ महीने बाद नाजिल को रामपुर की फास्ट ट्रैक पोक्सो कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले साल उसकी सजा को रद्द कर दिया.

हाईकोर्ट ने ‘मुठभेड़ की वास्तविकता’ पर टिप्पणी करने से तो इनकार करते हुए इसे एक और मुकदमे का विषय माना, लेकिन नाजिल को यह कहते हुए बरी कर दिया कि ‘पुलिस पर अच्छा काम दिखाने का दबाव हो सकता था क्योंकि जब उसने शव बरामद किया तब तक घटनास्थल पर बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी पहुंच चुके थे.’

चार साल के बच्चे की कथित ‘बलि’ से जुड़े मामले में सुनाए गए एक अन्य फैसले, जिसमें 2020 में दो महिलाओं को मौत की सजा दी गई थी, में पटना हाई कोर्ट ने पाया कि…उचित विचार-विमर्श और परामर्श के बाद प्राथमिकी ‘गढ़ी गई’ पाई जाने से दोष सिद्ध नहीं हो पाया है.’ हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्य ‘विरोधाभासों, विशेषणों और अपर्याप्त तथ्यों से भरे थे.’

इसी तरह, राजस्थान हाई कोर्ट ने 2018 में 15 वर्षीय एक लड़की के कथित बलात्कार और हत्या के मामले में मौत की सजा पाए दो दोषियों को यह देखते हुए बरी कर दिया कि अभियोजन अधिकारी नजीम अली का जांच करने का तरीका ‘बेहद संदेहास्पद’ था और अभियोजन पक्ष के गवाह ‘एकदम सफेद झूठ’ बोल रहे थे.


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साक्ष्य लापता, अपराध स्थल का निरीक्षण तक नहीं किया गया

हाई कोर्ट के इन 15 फैसलों में से अधिकांश ने जांच में गंभीर चूक को उजागर किया है.

2016 में पांच साल की एक बच्ची की हत्या और बलात्कार के मामले में, जिसका शव उसके लापता होने के चार दिन बाद एक कुएं में मिला था, बांबे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने पाया कि एक महत्वपूर्ण साक्ष्य गायब हो गया था, जो कि नायलॉन की रस्सी का एक टुकड़ा था जिससे कथित तौर पर पीड़ित का गला घोंटा गया था.

बच्ची के गले में मिला रस्सी का टुकड़ा उसकी हत्या के संदिग्ध आरोपी विष्णु गोरे के घर में मिली रस्सी के साथ मिलान के लिए फोरेंसिक लैब भेजा गया था. हालांकि, इसके बारे में पूछे जाने पर हाई कोर्ट को बताया गया कि अब न तो रस्सी उपलब्ध है और न ही उसके संबंध में फोरेंसिक रिपोर्ट ही मौजूद है.

इस पर नाराजगी जताते हुए हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘अभियोजन पक्ष ने जिस तरह से अपराध की जांच की, साक्ष्य जुटाए और सबसे बड़ी बात जिस असंवेदनशील तरीके से मुकदमा चलाया, उससे हम वास्तव में बेहद चिंतित हैं.’

कोर्ट ने खेद जताते हुए कहा कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें अपने हाथों से बरी करने का आदेश’ केवल इसलिए देना पड़ रहा क्योंकि अभियोजन पक्ष ने ठीक से साक्ष्य नहीं जुटाए और ‘फोरेंसिक साइंस लैब से नतीजे हासिल करने के प्रयास भी नहीं किए…’ इसके साथ ही कोर्ट ने फोरेंसिक रिपोर्ट न होने के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई का निर्देश भी दिया था.

पटना हाई कोर्ट ने 2018 में 16 वर्षीय लड़की के कथित बलात्कार और हत्या के मामले में इसी तरह ‘लापरवाह रवैया’ अपनाए जाने को लेकर नाराजगी जाहिर की. यह देखते हुए कि पुलिस ने अपराध स्थल—जो एक मैरिज हॉल था, का निरीक्षण तक नहीं किया था, हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष दो दोषियों के खिलाफ अपने आरोप साबित करने में ‘बुरी तरह नाकाम’ रहा है.

हाई कोर्ट ने आगे यह भी पाया कि शव बरामद होने के 12 दिन बाद आरोपी का कबूलनामा औपचारिक रूप से दर्ज किया गया था और ‘मुकदमे के दौरान गवाहों के बयानों में विसंगतियां स्पष्ट’ थीं.

जुलाई 2017 में 13 वर्षीय एक लड़की के बलात्कार और हत्या के मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने पाया कि ‘अपीलकर्ता को पूरी तरह बेदाग साबित साबित करने वाला एक महत्वपूर्ण सबूत अभियोजन पक्ष ने छिपाया था. यह साक्ष्य था घटनास्थल में फर्श पर पड़ा खून, जिसकी स्वैब जांच के जरिये डीएनए प्रोफाइलिंग में पाया गया कि यह एक पुरुष का था, लेकिन यह आरोपी व्यक्ति के डीएनए से मेल नहीं खाता था.

अतिरिक्त लोक अभियोजक की तरफ से दो रिपोर्ट हाई कोर्ट के समक्ष रखी गई थीं, लेकिन ये निचली कोर्ट में पेश नहीं की गई थीं. हाई कोर्ट ने कहा कि यह तथ्य ‘दुखद’ है कि जांच में ‘जानबूझकर गड़बड़ी’ की गई थी और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि ‘मामले की जांच में चूक’ के मद्देनजर इसकी जांच कराई जाए.

जस्टिस लोकुर ने दिप्रिंट को बताया कि ‘साक्ष्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना या महत्वपूर्ण सबूतों का खुलासा नहीं करना, संविधान के अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन है जो किसी आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है.’

उन्होंने सवाल उठाया, ‘क्या अदालतों को इस तरह का उल्लंघन बर्दाश्त करना चाहिए?’

डीएनए टेस्ट नहीं, ट्रैक्टर लाइट में की जांच

हाई कोर्ट के कई फैसलों में जांच के दौरान वैज्ञानिक दृष्टिकोण न अपनाए जाने पर निराशा जताई गई.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2013 में 12 साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या के मामले में दोषी करार दिए जाने के फैसले को पलटते हुए कहा कि जांच अधिकारी ने ठोस साक्ष्यों के डीएनए टेस्ट का अनुरोध न करके ‘एक बड़ी गलती’ की, हालांकि नमूने एक पैथोलॉजिकल लैब में जांच के लिए भेजे गए थे.

हाई कोर्ट ने जांच के दौरान अपनाए गए ‘लापरवाह’ तरीके की आलोचना की. कोर्ट के रिकॉर्ड के मुताबिक, पीड़िता का शव एक बगीचे में जामुन के पेड़ के नीचे मिला था. रात करीब नौ बजे पुलिस को सूचना दी गई और करीब एक घंटे बाद थाना प्रभारी व उनकी टीम मौके पर पहुंची. उन्होंने स्पष्ट रूप से लगभग आधी रात तक साइट पर अपना निरीक्षण किया, लेकिन केवल ‘सात पेट्रोमैक्स और एक ट्रैक्टर की हेड लाइट की रोशनी में’

एक अन्य मामला जून 2018 में मथुरा के नगला भराऊ नामक गांव में तीन अलग-अलग स्थानों पर तीन शवों के पाए जाने से जुड़ा था, जिसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जांच के दौरान में उचित तकनीक न अपनाए जाने पर नाराजगी जताई.

हत्या के इन तीनों ही मामलों को एक ही व्यक्ति द्वारा अंजाम दिया गया माना गया, यद्यपि गोली की घावों के निशान अलग-अलग डायमेंशन दर्शाते थे. यहां तक कि एक विशेषज्ञ की बैलिस्टिक रिपोर्ट में भी यह संकेत दिया गया था कि पीड़ितों में से दो के शवों से बरामद दो गोलियां न तो आरोपी से बरामद हथियार से चलाई गई लगती हैं और न ही यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उन्हें एक ही बंदूक से दागा गया है.

पुख्ता साक्ष्यों के अभाव के बाद भी चंदन सिंह नामक एक व्यक्ति को तीनों हत्याओं से जुड़ा माना गया था और पिछले साल मार्च में उसे मौत की सजा सुना दी गई थी. हाई कोर्ट ने उसे दोषी करार दिए जाने संबंधी फैसले को रद्द कर दिया और कॉल विवरण रिकॉर्ड का निरीक्षण न करने समेत एकदम ‘निम्न स्तर की’ जांच के लिए कोर्ट ने पुलिस को फटकार भी लगाई.


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‘यह उदाहरण है कि फैसले कैसे नहीं लिखे जाने चाहिए’

हाई कोर्ट ने अपने कुछ फैसलों में न केवल जांचकर्ताओं को फटकार लगाई बल्कि सबूतों (या उसके अभाव) और यहां तक कि उनकी तरफ से इस्तेमाल भाषा को लेकर निचली अदालतों के विवेक पर भी सवाल उठाया.

उदाहरण के तौर पर 2017 में कथित तौर पर दहेज के लिए अपनी पत्नी को मार देने के दोषी करार दिए गए एक व्यक्ति के मामले में फैसला पलटते हुए पटना हाई कोर्ट ने कहा कि इस केस में निचली अदालत का फैसला ‘इस बात का उदाहरण है कि फैसले कैसे नहीं लिखे जाने चाहिए.’

निचली कोर्ट के फैसले के हिस्से को हाई कोर्ट ने अपमानजनक माना जिसमें आरोपी को ‘वहशी दरिंदा’ करार दिया गया था. हाई कोर्ट ने सुझाव दिया कि ऐसी भाषा का इस्तेमाल गलत है क्योंकि ‘न्यायाधीशों को सबूतों का निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिए और…अपराध की भयावहता और व्यक्ति के चरित्र से प्रभावित नहीं होना चाहिए.’

2018 में चार साल की बच्ची की हत्या और कथित बलात्कार के मामले में पटना हाई कोर्ट ने पाया कि मौत की सजा पाने व्यक्ति की उम्र उस समय 17 साल रही होगी जब अपराध किया गया था. हालांकि, निचली अदालत ने इस आधार पर उसके किशोर होने के दावे को खारिज कर दिया था कि आरोपी ने पहले अपनी उम्र 19-20 साल के बीच बताई थी और उसके ‘शारीरिक गठन’ को देखते हुए यह सही भी लग रही थी.

हाई कोर्ट ने माना कि किशोर उम्र की पुष्टि के मामले में निचली अदालत का नजरिया ‘गलत’ था, और साथ ही कहा कि आदेश ‘मनमाने तरीके से काल्पनिक आधार पर’ पारित किया गया था. आरोपी को बरी कर दिया गया क्योंकि उसके खिलाफ सबूत भी ‘परिस्थितिजन्य’ और अपर्याप्त पाए गए थे.

कानूनी सहायता का अभाव

इन 15 में से कम से कम दो मामलों में आरोपियों को कानूनी सहायता का अभाव उन्हें बरी किए जाने का आधार बना.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 53 पन्नों के अपने फैसले में 2013 में एक 12 वर्षीय लड़की के साथ बलात्कार और हत्या के आरोपी एक व्यक्ति को बरी कर दिया. इसके पीछे हाई कोर्ट का तर्क था कि अन्य बातों के अलावा निचली अदालत की तरफ से ‘आरोपी-अपीलकर्ता को मुहैया कराई गई कानूनी सहायता वास्तविक और प्रभावी नहीं थी.’

अभियुक्त की तरफ से पेशी के लिए एक एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र/वकील) नियुक्त किया गया था, लेकिन केवल उसी दिन जब आरोप तय किए गए थे. इसका मतलब यह था कि वकील के पास सीआरपीसी की धारा 227 के तहत सबूतों के बारे में अपनी दलीलें रखने का समय नहीं था, जो मुकदमा आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में कोर्ट को किसी आरोपी को आरोपमुक्त करने की अनुमति देती है.

2012 में दो बेघर कूड़ा बीनने वालों पर कथित यौन हमले और एक की हत्या के मामले में बांबे हाई कोर्ट ने रहीमुद्दीन मोहफुज शेख उर्फ जॉन एंथोनी डिसूजा उर्फ बाबू उर्फ बाबा की मौत की सजा के फैसले को पलटते हुए कहा कि ‘…मुकदमा चलाने के दौरान लापरवाह रवैया अपनाते हुए यह तक पता नहीं लगाया गया कि क्या अभियुक्त को मुहैया कराई गई कानूनी सहायता पर्याप्त थी और क्या इस मामले में मृत्युदंड का फैसला निष्पक्ष और न्यायसंगत था.’ इस मामले में वकील को कई बार बदला गया था.

शिनाख्त परेड और अन्य अनियमितताओं से भी भरी जांच ने अदालत को यह अनुमान लगाने को भी बाध्य किया कि इसमें भी कुछ ‘संदेह है कि जॉन एंथोनी डिसूजा और रहीमुद्दीन शेख दो अलग-अलग व्यक्ति हैं या एक ही व्यक्ति हैं.’

‘चौंकाने वाली स्थिति’

जस्टिस लोकुर के मुताबिक, हाल में दोषियों के मौत की सजा से बरी होने के मामले ‘चौंकाने वाली स्थितियों’ को सामने लाते हैं, जिनसे यह भी स्पष्ट होता है कि व्यवस्थागत स्तर पर बदलावों की जरूरत है.

उन्होंने कहा, ‘ऐसा लगता है कि पुलिस और अभियोजन पक्ष केवल दोष साबित करने में रुचि रखते हैं ताकि सफलता से निपटाए गए मामलों की संख्या बढ़े और उनके रिकॉर्ड में सुधार हो. लेकिन यह शायद किसी को स्वतंत्रता से वंचित करने का कारण बन सकता है, और जिन मामलों में मौत की सजा सुनाई जाती है, उनके जीवन से खिलवाड़ है.

जस्टिस लोकुर ने कहा कि ‘सकारात्मक और ठोस कार्रवाई की सख्त जरूरत है न कि सिर्फ दिखावे के लिए थोड़े-बहुत बदलाव करने की.’

वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने भी इस बात पर भी जोर दिया कि बरी कर देने आमतौर पर दोषी ठहराए गए लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं होता क्योंकि उन्हें न तो कोई मुआवजा मिलता है और उन्हें समाज में फिर प्रतिष्ठा दिलाने के लिए भी कोई सहायता नहीं की जाती है.

रेबेका जॉन ने कहा, ‘जेल से रिहा होने के बाद इन लोगों के पुनर्वास के लिए सरकार कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है. हालांकि हाई कोर्ट ऐसे मामलों में दोषियों को बरी तो कर देते हैं लेकिन मामले में सामने आई गलतियों के लिए शायद ही काफी जांच एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराते हैं. यही नहीं ऐसे लोगों को मुआवजे के भुगतान का निर्देश भी लगभग नहीं ही दिया जाता है.’

इसके साथ ही जॉन ने यहा भी कहा कि हालांकि, बरी किए जाने संबंधी फैसले स्पष्ट करते हैं कि मौत की सजा देना कितना गलत है. उन्होंने कहा, ‘यह (बरी करना) बताता है कि हमारी कानून की किताबों से मौत की सजा के प्रावधान को खत्म कर दिया जाना चाहिए.’

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