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Thursday, 25 April, 2024
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इलाहाबाद से BHU तक- भारत को फायर ब्रांड नेता देने वाले UP के विश्वविद्यालयों में सूख रही अब राजनीति की नर्सरी

छात्रसंघ चुनाव नहीं होने की वजह से उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों के छात्र संघ भवन अब सुनसान नजर आ रहे हैं. विरोध, 'चिन्हित' छात्र, लाठीचार्ज के मामले बढ़े.

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लखनऊ/प्रयागराज: अनिश्चितकालीन हड़ताल का यह 564वां दिन है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सुनसान पड़े छात्रसंघ भवन के बाहर लगभग 20 छात्र अभी भी ‘छात्र एकता जिंदाबाद’, ‘छात्रसंघ बहाल करो’ के नारे लगा रहे हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय लंबे समय से छात्र राजनीति की नर्सरी रहा है, और दशकों तक यहां से राजनीतिक दलों को तेज-तर्रार नेता मिलते रहें हैं. लेकिन पिछले कई वर्षों से, उत्तर प्रदेश के कुछ विश्वविद्यालयों ने छात्रसंघ चुनाव नहीं कराए हैं, जिससे छात्रों के बीच असंतोष और शिकायतें बढ़ रही हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछली बार 2017 में छात्र चुनाव हुए थे, जबकि लखनऊ विश्वविद्यालय (एलयू) और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) ने क्रमशः 2006 और 1997 के बाद से इन्हें आयोजित नहीं किया है. जाहिरा तौर पर ऐसा हिंसक भिड़ंतों और राजनीतिक दल की भागीदारी, जो अक्सर कैंपस चुनावों के साथ जुड़े होते थे, से बचने के लिए किया जा रहा है.

पिछले कई सालों में राष्ट्रीय जनमानस छात्र राजनीति के खिलाफ हो गया है, जैसा कि यूपी में स्पष्ट रूप से दिखता है. विश्वविद्यालय परिसरों में असहमति के स्वरों की पहचान की जा रही है और उन्हें ‘चिन्हित’ के रूप में टैग किया जा रहा है, जो पुलिस द्वारा ‘चिन्हित’ किये गए लोगों के लिए आमतौर प्रयुक्त होना वाला शब्द है. यह एक तरह से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के शोध छात्रों कन्हैया कुमार और उमर खालिद से जुड़े 2016 के दिल्ली विरोधों, जिसके परिणामस्वरूप उनपर देशद्रोह के आरोप लगाए गए थे, से जुड़ा हैंगओवर है.

छात्र नेता इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रदर्शन करते हुए | फोटो- ज्योति यादव | दिप्रिंट

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले 23 वर्षीय एलएलएम (मास्टर ऑफ लॉ) के छात्र अजय यादव सम्राट ने कहा, ‘हमने नजरबंदी से लेकर महीनों जेल में बिताने तक, क्रूर लाठीचार्ज का सामना करने से लेकर अपने खून से अधिकारियों को पत्र लिखने तक सब कुछ कर लिया है.’ बीआर अम्बेडकर और जनेश्वर मिश्रा के पोस्टर पकड़े हुए छात्र, ‘एयू प्रशासन मुर्दाबाद’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारें लगा रहे हैं.

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिए न तो इस तरह की हड़तालें नयीं है और न ही ऐसे नारें. 2019 में, इसने छात्र संघ को भंग कर दिया था और उन्हें छात्र परिषदों के साथ बदल दिया था – जहां छात्र प्रतिनिधियों का सीधे चयन नहीं किया जाता है.


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छात्र नेताओं पर लाठीचार्ज, जेल और प्राथमिकियां

छात्र नेताओं के लिए एक बहुत बड़े प्रतिभा श्रोत रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने भारत को तीन प्रधानमंत्री (गुलजारीलाल नंदा, वीपी सिंह और चंद्रशेखर) और एक पूर्व राष्ट्रपति (शंकर दयाल शर्मा) दिए हैं. वहीं, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) भाजपा के मनोज सिन्हा, महेंद्र नाथ पांडे, भोला पासवान शास्त्री और शरत चंद्र सिन्हा सहित कई अन्य नेताओं का शिक्षा संस्थान रहा था. लखनऊ विश्वविद्यालय के कई पूर्व छात्र नेता, जैसे कि भाजपा के ब्रजेश पाठक और समाजवादी पार्टी के अरविंद सिंह ‘गोप’, अब प्रमुख दलों के राजनेता हैं.

दूरदराज के इलाकों से आने वाले पहली पीढ़ी के कई छात्रों के लिए कैंपस राजनीति विचारों और राजनीति के अनुभव की एक बहुत बड़ी दुनिया का प्रवेश द्वार रही है. विरोध प्रदर्शन की सामग्री तैयार करने और आकर्षक नारे बनाने से लेकर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों से अवगत रहने तथा वाद-विवाद एवं वक्तृत्व कौशल को साधने तक; कैंपस की राजनीति में बिताया गया समय कई लोगों के लिए व्यक्तित्व का विस्तार करने वाला और आत्मविश्वास निर्माण करने वाला हो सकता है.

‘मेरे अपने’ (1971) से लेकर हाल ही में बनी ‘हासिल’ (2003) और ‘गुलाल’ (2009) जैसी फिल्मों तक, छात्र राजनीति बॉलीवुड फिल्मों का विषय भी रही हैं. लेकिन छात्र नेताओं के साथ जुड़े अधिकांश आकर्षण और ताम-झाम में अब काफी कमी आ गई है. आम सामाजिक धारणा में अब कैंपस की राजनीति और सामाजिक सक्रियता हिंसा, पढ़ाई और करिअर की उपेक्षा और सरकार विरोधी लामबंदी से जुड़ी हुई हैं.

लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र संघ भवन के बाहर समाजवादी छत्रसभा के सदस्य | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

विरोध करने वाले समूह में शामिल भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ़ इंडिया- एनएसयूआई) के नेता अभिषेक द्विवेदी ने कहा, ‘पहले, एक छात्र नेता या छात्र संघ अध्यक्ष किसी भी शहर की गति को धीमा कर सकता था. वे सिर्फ अपने एक आह्वान से हजारों लोगों को बाहर ला सकते थे. पर आज आपको रोकने के लिए 20 पुलिस अधिकारियों को तैनात किए बिना आप भगत सिंह की जयंती पर उनकी मूर्ति तक जाकर माला भी नहीं चढ़ा सकते. करनालगंज थाने में युवा नेताओं के खिलाफ दर्जनों प्राथमिकियां दर्ज हैं. बीएचयू और लखनऊ परिसरों की भी यही कहानी है.‘

इलाहाबाद में प्रदर्शनकारी छात्र अब विश्वविद्यालय के दोबारा खुलने तक व्हाट्सएप ग्रुप, फेसबुक अकाउंट और ट्विटर ट्रेंड के जरिए समर्थन जुटा रहे हैं.

यूपी के अन्य विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भी इसी तरह के छोटे पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, मार्च, हस्ताक्षर अभियान और सोशल मीडिया अभियान चल रहे हैं.

हाल के वर्षों में कुछ चुनिंदा ‘बड़े पल’ भी आए हैं, लेकिन उनकी वजह से केवल सरकारी सख्तियां हीं बढ़ीं हैं.

उदाहरण के लिए, 2017 में, लखनऊ विश्वविद्यालय में नाराज छात्रों की एक भीड़ ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो वहां एक कार्यक्रम के लिए गए थे, के सामने काले झंडे लहराए थे. पुलिस ने उनमें से कई को हिरासत में लिया और लखनऊ विश्वविद्यालय ने बाद में इस विरोध प्रदर्शन में शामिल कई छात्रों को प्रवेश देने से इनकार कर दिया.

उससे एक साल पहले, बीएचयू में आशुतोष सिंह नाम के एक छात्र ने एक संबोधन के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चिल्ला कर विरोध किया था. सिंह ने पूछा था कि छात्र संघ के चुनाव कब होंगे और इसके लिए उस पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने कथित तौर पर हमला किया था.

विश्वविद्यालय के कुलपतियों के कक्षों के बाहर अभी भी कभी-कभी विरोध प्रदर्शन होते रहते हैं, लेकिन उन्होंने कोई भी गंभीर प्रभाव नहीं डाला है. चुनाव न होने से छात्रों, शिक्षकों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच खाई पैदा हो गई है.

लखनऊ विश्वविद्यालय में एनएसयूआई के एक सदस्य सदफ तसनीम ने कहा, ‘युवाओं में असंतोष बढ़ रहा है और हमारी शिकायतों का समाधान नहीं हो रहा है.’

सदफ ने कहा, ‘हम एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति), रेलवे की नौकरियों, ऑनलाइन परीक्षाओं, फीस में वृद्धि आदि के खिलाफ कोई भी बड़ा विरोध प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं. जैसा कि कहा जाता है, जिस ओर जवानी चलती है उस ओर जमाना चलता है, पर अब जमाना (दुनिया) भी इन मुद्दों पर आंदोलित नहीं होता है क्योंकि हमारे युवा कैंपस की राजनीति से वंचित हो गए हैं.‘

यहां तक कि पिछले साल दिसंबर में भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने भी विश्वविद्यालय परिसरों में उपजे राजनीतिक शून्य पर टिप्पणी की थी. उन्होंने दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक दीक्षांत समारोह में कहा था, ‘भारतीय समाज पर पैनी नजर रखने वाले किसी भी शख्स ने ध्यान दिया होगा कि पिछले कुछ दशकों से छात्र समुदाय से कोई बड़ा नेता नहीं उभरा है.’

कैंपस की राजनीति के लगभग खत्म हो जाने के साथ ही राजनीतिक दलों को अपनी राजनीति के लिए तैयार करने हेतु कोई भी तेज-तर्रार नेता नहीं मिला है. कन्हैया कुमार और हाल ही में, लखनऊ विश्वविद्यालय के काले झंडे वाले प्रदर्शनकारियों में से एक पूजा शुक्ला – जो समाजवादी पार्टी के टिकट पर विधानसभा चुनाव चुनाव लड़ रही हैं – के अपवादों को छोड़कर.


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लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी ने कहा कि एक समय था जब राजनीतिक नेता नियमित रूप से छात्र नेताओं को चुनावी टिकट देते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. तिवारी ने कहा, ‘पैसे वाला कारक अब आंदोलन वाले कारक से अधिक महत्वपूर्ण है.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि अपराधियों, धार्मिक नेताओं और ठेकेदारों के अब चुनाव लड़ने की अधिक संभावना रहती है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में स्थित पीली दीवारों वाला छात्र संघ भवन सुनसान दिखता है. इसके मुख्य द्वार पर ताला लगा हुआ है और पास की चाय की दुकान भी बंद है. लेकिन कभी यह गहमा-गहमी और छात्रों के तात्कालिक आत्म-महत्व से गुलजार रहता था.

अजय यादव ने याद करते हुए कहा, ‘इसके हॉल में वाद-विवाद का आयोजन किया जाता था, नेतागण विरोध के लिए रणनीति बनाते थे, छात्र अपनी शिकायतों के साथ आते थे … एक प्याली चाय पर, छात्रों के एकजुटता समूह बन जाया करते थे.’

इस विरोध स्थल से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर स्थित लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र संघ भवन का हाल कोई खास अलग नहीं है. दरवाजे टूट गए हैं, दीवार का रंग फीका पड़ गया है, और इमारत के अंदर मकड़ी के जाले भरे हुए हैं.

विश्वविद्यालय के छात्र और सपा की युवा शाखा, समाजवादी छात्रसभा के सदस्य कार्तिक पांडे ने कहा, ‘इस इमारत का उपयोग कभी-कभी श्रद्धांजलि (समारोह) और राजनीतिक नेताओं की यात्राओं के लिए किया जाता है. बस इतना ही…’

इलाहाबाद में छात्र संघ भवन का टूटा हुआ सामने का हिस्सा | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

इन दोनों परिसरों में, एनएसयूआई, जो कांग्रेस की छात्र शाखा है, और समाजवादी छात्रसभा के सदस्यों का दावा है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), जो आरएसएस से संबद्ध एक छात्र संगठन है, की किसी भी विरोध-प्रदर्शन में कोई भागीदारी नहीं होती है.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के द्विवेदी ने कहा, ‘आप कभी उन्हें हमारे साथ हाथ मिलाते हुए नहीं देखेंगे. उनकी राजनीतिक गतिविधियां पार्टी कार्यालय में नेताओं का स्वागत करने और शहीद दिवस पर माला चढ़ाने तक ही सीमित हैं.’

जहां सपा और कांग्रेस दोनों ही विश्वविद्यालय परिसरों और जिलों में बड़े आंदोलनों और अभियानों के लिए अपने युवा कार्यकर्ताओं पर निर्भर हैं, वहीं भाजपा और बसपा छात्र राजनीति पर लगे अंकुश से सीधे तौर पर प्रभावित नहीं हैं.

चुनावों के अभाव में, और महामारी के बीच, छात्र अब फिलिस्तीन और ‘नव-उदारवादी’ अर्थशास्त्र जैसे वैश्विक मुद्दों से नहीं जुड़ रहे पा हैं. उनका सारा ध्यान अब हॉस्टल, मेस, लाइब्रेरी, फीस तथा ऑनलाइन और ऑफलाइन परीक्षा जैसे मुद्दों तक ही सीमित है.

हालांकि, एनएसयूआई और समाजवादी छात्रसभा दोनों के नेताओं ने कहा कि उन्होंने नई शिक्षा नीति और बेरोजगारी के खिलाफ बड़े विरोध की योजना बनाई थी, लेकिन वे कभी इसे अमल में नहीं ला पाए.


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गुंडे और उम्र सीमा – गिरावट यहीं से शुरू होती है

कई छात्रों, प्रोफेसरों, कुलपतियों और राजनीतिक नेताओं के अनुसार, विश्वविद्यालय परिसर की राजनीति के पतन की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त लिंगदोह समिति की 2006 की रिपोर्ट से हुई थी. लेकिन, इस समिति के अस्तित्व में आने का कारण ही परिसर की राजनीति में होने वाली गंभीर हिंसा और अनियमितताएं थी.

साल 2005 में गठित इस समिति का मकसद छात्र चुनावों के संचालन के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करना था. इनमें उम्मीदवारों के लिए कड़े पात्रता मानदंड स्थापित करना शामिल था, जैसे कि राजनीतिक दलों के प्रायोजित नेता के रूप में महज चुनाव लड़ने के लिए विश्वविद्यालयों में मध्य आयु पार कर चुके कुछ ‘छात्रों’ के बने रहने की समस्या का मुकाबला करने के लिए आयु सीमा का निर्धारण.

यूपी के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, जिन्होंने अपने करिअर के शुरुआती वर्षों में कैंपस ड्यूटी (विश्विद्यालय परिसर में सेवा) की थी, के पास कैंपस की राजनीति में दशकों पुरानी सड़ांध के कई उदाहरण हैं.

वे कहते हैं, ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय का 50 वर्ष से अधिक आयु के छात्र संघ नेताओं को चुनने का भी इतिहास रहा है. उदाहरण के लिए, 1970 के दशक में जगदीश चंद्र दीक्षित 52 वर्ष की आयु में छात्र संघ अध्यक्ष बने थे. एक अन्य उम्मीदवार, लक्ष्मी शंकर ओझा, 52 वर्ष की आयु में चुने गए थे और उसी के आसपास उनकी बेटी ने विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी.‘

इन पुलिस अधिकारी ने कहा कि 90 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में भी छात्र राजनीति में बड़े पैमाने पर अराजकता थी.

अधिकारी ने कहा, ‘साल 2004 में, लखनऊ विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता उपेंद्र सिंह मनु की छात्रावास में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. एक और हत्या उस साल नामांकन प्रक्रिया में हुई गोलीबारी के दौरान भी हुई थी. बहुत बड़ा झमेला हो गया था. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रावास बाहुबल के इस्तेमाल, पर्चा लीक और उपद्रवी व्यवहार में उलझ गए थे.‘

2017 के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र चुनाव का एक दंगाई दृश्य | फोटो- विशेष व्यवस्था से.

30 वर्षों तक यूपी की राजनीति पर नजर रखने वाले बीबीसी के पूर्व रेडियो संवाददाता राम दत्त त्रिपाठी ने कहा कि 90 के दशक में ‘गुंडा तत्वों’ के प्रवेश ने छात्र राजनीति की प्रतिष्ठा आम तौर पर खराब कर दी.

त्रिपाठी ने कहा, ‘(छात्र नेता) अब बौद्धिक रूप से श्रेष्ठ नहीं थे … बल्कि, उनके पास बस एक बड़े उपद्रवी वाला मूल्य था. अब कोई भी छात्र राजनीति नहीं चाहता – चाहे वह माता-पिता हो या विश्वविद्यालय या आम प्रशासन. ‘

हालांकि, कुछ अन्य लोगों का तर्क है कि लिंगदोह समिति के नियम दम घोटने की हद तक कड़े प्रतिबंध थे और पहले से मौजूद समस्याएं भी छात्र चुनावों पर पूर्ण प्रतिबंध को उचित नहीं ठहराती.

बाराबंकी की दरियाबाद सीट से विधानसभा चुनाव लड़ रहे समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मंत्री अरविंद सिंह गोप ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में की थी.

दिप्रिंट से बात करते हुए उन्होंने कहा: ‘भ्रष्ट राजनीति ने तो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी पैठ बना ली है – इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन पर प्रतिबंध लगा दें.’

तीन दशकों से भी अधिक समय तक लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रहे शिक्षाविद रमेश दीक्षित ने कहा कि वह छात्र राजनीति में ‘गिरावट’ से अच्छी तरह वाकिफ हैं, लेकिन फिर भी वे छात्र संघ चुनावों पर लगे प्रतिबंध से असहमत थे.

उन्होंने कहा, ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि छात्र चुनावों पर प्रतिबंध लगाना उन्हें संवाद और विरोध से वंचित करने का एक प्रयास है.’


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एकदम से ठप पड़े हैं परिसर के चुनाव

दो प्रतिद्वंद्वी समूहों के बीच बड़े पैमाने पर हिंसा के मद्देनजर, बीएचयू ने 1997 में छात्र चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया और फिर 2011 में इसने छात्र संघ को ‘छात्र परिषद’ के साथ बदल दिया. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने भी 2019 में यही रास्ता अपनाया था.

लखनऊ विश्वविद्यालय के मामले में चीजें थोड़ी जटिल रही हैं. साल 2007 में, मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने छात्र संघ चुनावों को बंद कर दिया था.

समाजवादी छात्रसभा के सदस्य कार्तिक पांडे ने कहा, ‘उस वर्ष, नामांकन के दौरान कुछ झड़पें हुईं और उसके बाद चुनाव रद्द कर दिए गए. इसके बाद विरोध और हस्ताक्षर अभियान चलाये गए.’

एक साल बाद बसपा सुप्रीमो और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने कहा था कि छात्र संघ चुनाव की इजाजत दी जाएगी, लेकिन इस शर्त के तहत कि लिंगदोह कमेटी के दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा.

साल 2012 में फिर से चुनावों की घोषणा होने में और चार साल लग गए. पांडे ने कहा, ‘वही कहानी फिर से दोहराई गई और (संघर्ष के कारण) चुनाव रद्द कर दिए गए. साल 2017 में नामांकन के दौरान हुई हिंसा में फिर से 125 छात्रों को जेल भेजा गया. यह एकदम से अराजक रहा है.’

पूर्व में उद्धृत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार कभी-कभी छात्र राजनीति के दबंग नेताओं और उनके अनियंत्रित व्यवहार से निपटने के लिए एक कठोर व्यवहार की आवश्यकता थी. उन्होंने कहा कि इनमें से कई नेताओं के राजनीतिक ताने-बाने में काफी उच्च संबंध थे और वे इसका दिखावा करने से भी नहीं डरते थे.

लखनऊ विश्वविद्यालय में अतीत के एक अवशेष, जहां छात्र संघ अध्यक्षों ने मुख्यमंत्रियों और अन्य राजनीतिक नेताओं की आवक्ष प्रतिमाएं लगाईं | फोटो: विशेष व्यवस्था से.

इस पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘अपने महत्वपूर्ण दिन वाले समारोहों के दौरान, (छात्र संघ) अध्यक्ष मुख्यमंत्री को भी अपनी अतिथि सूची में शामिल करने का प्रबंध कर लेते थे. स्टूडेंट यूनियन (छात्र संघ) हॉल का नजारा काफी देखने लायक हुआ करता था. छात्र संघ अध्यक्ष के पास स्थानीय विधायकों या सांसदों की तुलना में अधिक भौकाल (दबदबा) और बाहुबल था. अध्यक्षजी (छात्र संघ अध्यक्ष) किसी भी रेस्तरां में चले जाते थे और वहां का मैनेजर उन्हें बिल का भुगतान करने के लिए नहीं कह पाता था.’

हालांकि, एनएसयूआई और समाजवादी छात्रसभा के सदस्यों ने स्वीकार किया कि छात्र राजनीति की जहरीली संस्कृति के दावों में सच्चाई हैं, मगर उन्होंने कहा कि प्रतिबंध इसका कोई समाधान नहीं है.

एनएसयूआई नेता सदफ जाफर ने कहा, ‘विश्वविद्यालय प्रशासन चुनावों पर प्रतिबंध लगाने के बजाय नियमों के अनुपालन को नियंत्रित कर सकता है.’

नई दिशाएं: आईटी सेल, मुख्यधारा की पार्टियां

यूनिवर्सिटी कैंपस में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए कोई वास्तविक माध्यम नहीं होने के कारण, कई छात्र सार्वजनिक जीवन में अपनी आवाज तलाश करने हेतु नए- नए तरीकों के साथ प्रयोग कर रहे हैं.

इनमें से कुछ ऑनलाइन सक्रियता से अपना प्रभाव ज़माने की कोशिश कर रहे हैं, तो कुछ अन्य मुख्यधारा की पार्टियों के सदस्य बन रहे हैं. हालांकि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अजय यादव जैसे अन्य लोगों ने अभी भी पुरानी परंपरा वाले विरोध में अपनी उम्मीद नहीं छोड़ी है.

यादव ने कहा, ‘छात्र राजनीति के अभाव में आईटी सेल वाली भर्तियों के रूप में नए सत्ता केंद्र उभरे हैं. जितना अधिक आप सोशल मीडिया पर अपने विरोधियों को निशाना बनाएंगे, उतनी ही आपकी उपस्थिति को स्वीकार किया जाएगा.’

अयोध्या में साकेत कॉलेज के छात्र 19 वर्षीय आशीष सिंह सियासी राजनीति के दरवाजे पर अपने पैर जमाने के लिए आम आदमी पार्टी (आप) में शामिल हो गए हैं. वह पार्टी कार्यालय में बैठने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनके बड़ी उम्र वाले सहयोगी अक्सर उनकी उपेक्षा करते हैं.

उसने कहा, ‘कॉलेज चल ही नहीं रहे हैं, लेकिन मैं किसी तरह इस दायरे में सेंध लगाना चाहता हूं. मेरे पास क्या विकल्प था? कॉलेज में चुनाव होते ही नहीं हैं.’

दरअसल, छात्रों को अक्सर इस बारे में लेक्चर पिलाया जाता है कि क्यों उन्हें कैंपस की राजनीति से बचना चाहिए.

यूपी के एक पूर्व पुलिस अधिकारी, जो स्वयं इलाहाबाद विश्वविद्यालय और खुद जेएनयू के छात्र रहे हैं, ने व्यापक रूप से मान्य इसी दृष्टिकोण को प्रतिध्वनित किया: ‘यह क्या उनकी राजनीति-राजनीति खेलने की उम्र है या पढ़ाई करने की है? छात्र संघ चुनाव तो बस कैंपस को बर्बाद करने का एक तरीका है.’

हाल ही में, प्रयागराज (इलाहाबाद) के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय कुमार द्वारा रेलवे बोर्ड की भर्तियों में कथित तौर पर हुई अनियमितताओं का विरोध कर रहे छात्रों को माइक से सलाह देते हुए एक वीडियो वायरल हुआ था.

एक जोशीले भाषण में, जो कुछ हद तक धमकी और कुछ हद तक उत्साहपूर्ण सलाह भी थी, उन्होंने छात्रों से कहा कि उन्हें विरोध प्रदर्शनों से दूर रहना चाहिए और अपने नेताओं पर विश्वास करना चाहिए.

उन्होंने अपने स्वयं के सीवी के बारे में भी विस्तार से बताया और कहा कि कैसे अपने शैक्षणिक प्रयासों में जुटे रहना उनके लिए अच्छा साबित हुआ.

पर विरोध प्रदर्शन स्थल पर कोई भी इस बात का कायल नहीं लग रहा था.

गणित में एमएससी और विश्वविद्यालय के टॉपर स्टूडेंट मुकेश यादव ने कहा कि पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करने और आंदोलन में भाग लेने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘मैं अपना सारा-सारा दिन विरोध स्थल पर बिताता हूं और फिर विश्वविद्यालय में भी शीर्ष स्थान पाता हूं.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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