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Thursday, 28 March, 2024
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बीजेपी का सवर्ण तुष्टिकरण, सपा का ओबीसी-मुसलमान और बीएसपी का ब्राह्मण-दलित-मुसलमान पर दांव

टिकटों का बंटवारा ये बताता है कि सभी दलों ने ये काम पार्टी की विचारधारा, संगठन के ढांचे और राजनीतिक दृष्टि के मुताबिक ही किया गया है.

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यूपी में सभी दलों ने अपने रणनीतिक दांव चल दिए हैं. टिकटों की बंटवारा और उसमें विभिन्न सामाजिक समूहों को हिस्सेदारी देना और न देना भी एक राजनीतिक दांव होता है, इसलिए चुनावी विश्लेषण में टिकट बंटवारे की सामाजिक समीक्षा भी की जाती है. ये समीक्षा बताती है कि राजनीतिक दल विभिन्न सामाजिक समूहों को कितना महत्व देते हैं और किस तरह का सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश की जा रही है.

राजनीति विज्ञानी और लंदन यूनिवर्सिटी के रॉयल होलोवे के पीएचडी स्कॉलर अरविंद कुमार ने यूपी विधानसभा चुनाव में हिस्सा ले रहे प्रमुख दलों और गठबंधनों के उम्मीदवारों का अलग-अलग सामाजिक लेखा जोखा प्रस्तुत किया है. इनमें से कुछ आंकड़ों के आधार पर मैं एक तुलनात्मक अध्ययन करने की कोशिश करूंगा, जिससे ये समझने में आसानी होगी कि पार्टियों ने टिकट किस तरह बांटे हैं और उनके सामाजिक समीकरणों का आधार क्या है. इससे राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना में विभिन्न सामाजिक समूहों की हैसियत का भी अंदाजा लगाया जा सकता है.

ये आंकड़े सभी 403 विधानसभा सीटों के लिए हैं. बीएसपी ये चुनाव अकेली लड़ रही है, जबकि बीजेपी और सपा ने गठबंधन बनाया है.

1. बीजेपी: पार्टी ने सबसे ज्यादा 173 टिकट हिंदू सवर्ण जातियों को दिए हैं. उनमें से ठाकुरों की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 71 सीटों की है. ब्राह्मणों को 68 टिकट दिए गए हैं. बीजेपी ने मुसलमानों को एक भी टिकट नहीं दिया है. गठबंधन पार्टनर अपना दल (एस) ने 1 मुसलमान उम्मीदवार खड़ा किया है. बीजेपी के टिकट बंटवारे में ओबीसी की अच्छी (143) हिस्सेदारी है. ओबीसी में प्राथमिकता कुर्मी और मौर्य/कुशवाहा को मिली है. बीजेपी ने सिर्फ रिजर्व सीट से एससी उम्मीदवार खड़े किए हैं. उनमें ज्यादा सीटें चमार/जाटव (27) और पासी (25) को दी गई हैं.

2. सपा: समाजवादी पार्टी ओबीसी को टिकट देने में सभी दलों से आगे रही. उसने 171 ओबीसी उम्मीदवार खड़े किए हैं. ओबीसी में प्राथमिकता यादव (52) और कुर्मियों (37) को दी गई है. पार्टी ने 63 मुसलमान और 39 ब्राह्मण उम्मीदवार भी खड़े किए हैं. एससी सीटों में सबसे बड़ा हिस्सा चमार/जाटव (42) को दिया गया है.

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3. बीएससी: पार्टी ने मुसलमानों को 86, ब्राह्मणों को 70 और चमार/जाटवों को 65 टिकट दिए हैं. इन तीनों सामाजिक समूहों को सबसे ज्यादा टिकट बीएसपी ने ही दिए हैं. इसके अलावा 114 टिकट ओबीसी को भी दिए गए हैं. जिनमें कुर्मियों को 24, यादवों को 18 और मौर्य-कुशवाहा को 17 टिकट मिले हैं.


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टिकटों का बंटवारा ये बताता है कि सभी दलों ने ये काम पार्टी की विचारधारा, संगठन के ढांचे और राजनीतिक दृष्टि के मुताबिक ही किया गया है. टिकट बंटवारा ये भी बताया है कि भारत ने बेशक लोकतंत्र की शक्ल में एक आधुनिक शासन प्रणाली अपना ली है, लेकिन चुनाव सामुदायिक गोलबंदी के आधार पर ही लड़े जा रहे हैं. इन गोलबंदियों में जाति और धर्म प्राथमिक हैं. साथ ही ये भी पता चलता है कि भारत अभी भी समाज से कहीं ज्यादा समुदाय आधारित राजनीति के दौर में है.

इन दलों के टिकट बंटवारे के आंकड़ों को अगर एक एक करके देखें तो कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं.

मिसाल के तौर पर, समय बेशक बदल रहा है कि लेकिन बीजेपी सावरकर के बताए हिंदुत्व के रास्ते पर ही चल रही है. पुण्यभूमि और पितृभूमि की अवधारणा के हिसाब से बीजेपी के लिए मुसलमान “अन्य” या “बाह्य” हैं. शायद इसी वैचारिक कारण से उसने मुसलमानों को यूपी में एक भी टिकट नहीं दिया है. लगभग 20% आबादी वाले मुसलमान समुदाय की अनदेखी बीजेपी की राजनीतिक सोच के अनुरूप ही है. हिंदू ध्रुवीकरण में ये बीजेपी के लिए मददगार होता है.

बीजेपी की कहानी का दूसरा हिस्सा सवर्ण गोलबंदी है. सपा और बसपा के उभार के बाद सवर्ण समुदायों की यूपी की राजनीति में हिस्सेदारी घटी थी. खासकर शीर्ष पर काफी समय तक दलित और पिछड़ा नेतृत्व रहा. अब बीजेपी ने सवर्ण नेतृत्व में अपनी वापसी की है. क्रिस्टोफ जेफ्रोलो ने राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार को साइलेंट रिवोल्यूशन कहा था. बीजेपी ने अब प्रतिक्रांति कर दी है. बीजेपी द्वारा सबसे ज्यादा टिकट सवर्णों को देना स्वाभाविक ही है.

लेकिन संख्या का गणित ऐसा है कि सिर्फ सवर्ण वोट से सत्ता नहीं मिल सकती. इसकी भरपाई बीजेपी गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित वोट से करती है. इस बार तो बीजेपी ने 27 चमार/जाटव कैंडिडेट भी दिए हैं.

जहां तक सपा का सवाल है, जो उसने अपना पुराना समीकरण दोहराने की कोशिश की है. उसने मुसलमान (63) और यादव (52) पर सबसे ज्यादा भरोसा किया है. पश्चिम यूपी में सपा गठबंधन ने 16 जाट कैंडिडेट दिए हैं और किसान आंदोलन पर सवारी करने की उसकी योजना है. सपा का गणित ये भी है कि ब्राह्मण बीजेपी और खासकर योगी आदित्यनाथ से नाराज हैं. यही सोचकर उसने 39 ब्राह्मण उम्मीदवार खड़े किए हैं. ठाकुर इस बार बीजेपी को शायद ही छोड़ें, इसके बावजूद सपा की लिस्ट में 23 ठाकुर हैं. ऐसा शायद इसलिए हुआ है क्योंकि ठाकुर काफी समय तक सपा से जुड़े रहे हैं और सपा के पार्टी ढांचे में ठाकुर आज भी प्रभावशाली हैं. टिकट बंटवारे में उनकी चली होगी. सपा का मुख्य दांव ओबीसी पर है, और उसे लगता है कि ओबीसी योगी आदित्यनाथ से नाराजगी के कारण उसके पास आएगा.

बीएसपी मोटे तौर पर 2007 की रणनीति पर चल रही है, जब उसे पहली बार और अकेली बार अपने दम पर यूपी विधानसभा में बहुमत मिला था. जैसा कि अरविंद कुमार लिख रहे हैं कि ये छोर पर खड़े समुदायों का गठबंधन है, जिसमें एक साथ ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों को साधने की कोशिश है. ये परंपरागत रूप से कांग्रेस का मॉडल रहा है, लेकिन कांग्रेस के मॉडल में शिखर पर कोई सवर्ण होता था. बीएसपी के मॉडल में शिखर की जगह दलित नेतृत्व के लिए है. बीएसपी के टिकट बंटवारे में मुसलमानों, ब्राह्मणों और चमार/जाटव को दिया गया महत्व इसी के हिसाब से है.

इस तरह हम पाते हैं कि टिकट बंटवारे में राजनीतिक दलों ने कोई चौंकाने वाला काम नहीं किया है. सबने अपने कोर वोटर समुदाय का ख्याल रखा है और संभावित पार्टनर समुदायों को लुभाने की कोशिश की है.

अब कुछ बड़े सवाल मतदान में तय होने हैं.

1. क्या ब्राह्मण वोट बीजेपी को छोड़कर सपा या बीएसपी की तरफ आएगा?
2. क्या बीएसपी अपना चमार/जाटव आधार बचा पाएगी, जिसे समेटने की कोशिश सपा और बीजेपी कर रही है?
3. क्या सपा का ओबीसी दांव सफल हो पाएगा?
4. क्या मुसलमान सपा और बीएसपी में बंटेंगे या एकमुश्त किसी एक तरफ जाएंगे?
5. और इन सबके अलावा, क्या विकास, लोगों तक सीधे पैसा पहुंचाना, महंगाई, बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था ये सब ऐसे मुद्दे हैं, जो जाति और धर्म के बंटवारों पर भारी पड़ेंगे?

यूपी का चुनाव परिणाम इन सब बातों पर निर्भर करेगा.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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