वाराणसी: वाराणसी की जिला अदालत ऐतिहासिक आख्यानों और विचारधारा के बीच लड़ाई का मैदान बनी हुई है. इस सबके बीच प्राचीन शहर के तमाम निवासियों का लगता है कि ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर विवाद ने भविष्य को लेकर भी एक बड़ी चिंता उत्पन्न कर दी है.
मोबाइल मरम्मत की दुकान चलाने वाले 50 वर्षीय जावेद अख्तर ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में क्रिकेट खेलते थे और बगल के मंदिर से लड्डू खाते थे. आज, राजनेता हमें मंदिर-मस्जिद पर लड़ा रहे हैं.’
उन्होंने परिसर से करीब 100 मीटर की दूरी पर स्थित पान की एक दुकान पर उनके साथ बातचीत में शामिल साड़ी की एक दुकान के मालिक बल्लभ दास अग्रवाल पर कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘वे हिंदू हैं, हम मुस्लिम हैं, हम एक साथ खाते हैं.’
पुरानी यादों का जिक्र करने के साथ 60 वर्षीय अग्रवाल अपने कारोबार की संभावनाओं को लेकर भी चिंता जताते हैं. उनके मुताबिक, ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर विवाद फिर शुरू होना कारोबार के लिए अच्छा नहीं है. अग्रवाल ने कहा, ‘पर्यटक पहले बड़ी संख्या में आ रहे थे…इससे हम भी अच्छी कमाई कर रहे थे. इसलिए हम इस सारी बहस में नहीं पड़ते.’
सवालों के घेरे में आई ‘बहस’ कोई नई बात नहीं है. 1991 में एक मुकदमा दायर करके ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की ‘मंदिर की भूमि’ को हिंदू समुदाय को सौंपने का निर्देश देने की मांग की गई थी, लेकिन मामला टल गया था.
मस्जिद परिसर की बाहरी दीवार पर नक्काशी के तौर पर नजर आने वाली हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरों की पूजा की अनुमति मांगने वाली पांच महिलाओं के एक समूह की तरफ से दायर याचिका पर कोर्ट की तरफ से सर्वे का आदेश दिए जाने के बाद विवाद फिर से शुरू हो गया है.
पिछले कुछ महीनों में यह मामला एक बड़े विवाद का रूप ले चुका है. ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि मस्जिद परिसर के अंदर कथित तौर पर एक शिवलिंग पाया गया था, जबकि मुस्लिम पक्ष ने इसका जोरदार विरोध किया है.
इस विवादास्पद मुद्दे, जिसकी तुलना बाबरी मस्जिद विवाद से की जाती है, ने 2014 के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में सांप्रदायिक तनाव के खतरों को उजागर किया है.
अतीत में बनारस और काशी के नाम से ख्यात रही वाराणसी दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है, और जैसा कि होना ही था ये बड़े पैमाने पर रक्तपात की गवाह भी रही है, जिसकी शुरुआत 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी के सिपहसालार सरदार कुतुबुद्दीन ऐबक की तरफ से मचाई गई तबाही के साथ हुई थी.
इसके बाद जबरन धर्मांतरण का एक लंबा दौर चला, जैसा कि इतिहासकार कुबेरनाथ सुकुल ने अपने लेख वाराणसी वैभव में स्पष्ट किया है. इसे शहर के सबसे सुस्पष्ट ब्योरों में से एक माना जाता है.
उसके बाद से, ऐसे घाव गहराते ही रहे हैं: 17वीं शताब्दी में औरंगजेब के मंदिरों को तोड़ने से लेकर 1991 के बाबरी मस्जिद दंगों तक. फिर भी, हालिया दशकों की बात करें तो अपेक्षाकृत शांति ही रही है. विभिन्न धर्मों के लोगों ने वैचारिक दायरे से बाहर निकलकर खुद की आर्थिक निर्भरता को प्राथमिकता दी है.
लाहोरी टोला क्षेत्र के एक जनरल स्टोर मालिक 65 वर्षीय वसीम खान ‘बाबा’ ने कहा, ‘हम इतिहास नहीं बदल सकते. हम भी धर्मांतरित हैं.’
यहां पर कई लोग यह भावना साझा करते हैं, वे शांति चाहते हैं ताकि व्यापार कर सकें और समृद्धि हासिल कर सकें, लेकिन कई लोग मानते हैं कि राजनेता और मीडिया तब तक शांत नहीं रहेंगे जब तक पुराने घाव फिर से उभर नहीं आते.
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सांप्रदायिक टकराव का लंबा इतिहास, लेकिन यह ‘पहचान’ नहीं
स्थानीय निवासियों का कहना है कि पिछली कुछ सदियों में वाराणसी में कई सांप्रदायिक संघर्ष हुए लेकिन ये घटनाएं इसकी पहचान बनने के बजाये क्षणिक साबित हुई हैं.
शहर में पहली बार दर्ज सांप्रदायिक झड़पों में से एक 1809 में हुई थी, जब हिंदुओं का त्योहार होली शियाओं के शोक जताने के महीना मुहर्रम के बीच पड़ी. दंगे उस जगह से शुरू हुए जिसे अब ‘लाट भैरों’ या ‘लाट भैरव’ कहा जाता है, यह स्थिति तब आई जब हिंदुओं और मुस्लिमों के जुलूस एक ही सड़क पर आमने-सामने आ गए और दोनों में से कोई भी दूसरे को रास्ता देने को तैयार नहीं था.
इतिहासकार और इंडोलॉजिस्ट एम.ए. शेरिंग ने 1864 में अपनी एक किताब बनारस, पास्ट एंड प्रेजेंट में इस घटना का जिक्र किया—वे (मुस्लिम) औरंगजेब की मस्जिद के प्रांगण से निकल रहे थे, जहां शिव की पूजनीय लाट थी, और उन्होंने इसे निकालकर जमीन पर फेंक दिया.’
आज, सिंदूरी रंग के लाट भैरव तांबे में देवता की छवि के साथ ईदगाह के बीच में एक चबूतरे पर खड़े हैं. हिंदू और मुसलमान दोनों अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप प्रार्थना करने के लिए उस जगह पर जाते हैं.
1809 का दंगा ऐसा आखिरी मौका नहीं था जब धार्मिक जुलूसों के बीच टकराव के बाद हिंसा भड़की.
वाराणसी के इतिहास के मर्मज्ञ माने जाने वाले बंगाली टोला इंटर कॉलेज की प्रबंध समिति के सदस्य वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य याद करते हैं कि 1978 में एक बड़ा दंगा उस समय हुआ था जब हिंदुओं ने मुस्लिम बहुल इलाके से दुर्गा पूजा जुलूस निकालने की कोशिश की थी.
1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में, जब राम जन्मभूमि आंदोलन ने जोर पकड़ा और उसकी परिणति विवादित ढांचा ढहाए जाने के साथ हुई, वो सांप्रदायिक स्तर पर वाराणसी के लिए मंथन का समय था.
1989 में शिलान्यास समारोह के बाद—जब विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने पहली बार राम मंदिर का शिलान्यास किया था—वाराणसी सहित पूरे उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी.
1991 में दो दिनों की सांप्रदायिक हिंसा के दौरान तमाम लोग मारे गए थे, जब मुस्लिम बहुल मदनपुरा इलाके से गुजरने वाले एक काली पूजा जुलूस के दौरान हिंदुओं के समूह ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाए थे. फिर, 1992 में भी वाराणसी में दंगे हुए जब विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद पूरा लगभग देश ही सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आ गया था.
उसके बाद से वाराणसी में कुछ सांप्रदायिक झड़पें हुई हैं, जैसे 2016 के लाट भैरव बारात कार्यक्रम के दौरान टकराव की स्थिति आ गई, लेकिन कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ.
भट्टाचार्य के मुताबिक, हाल के टकराव आम तौर पर ‘राजनीति प्रेरित’ रहे हैं जिन्हें ‘बाहरी लोगों’ की तरफ से भड़काया गया. वाराणसी में रहने वाले विभिन्न समुदाय के लोगों ने व्यावहारिक के साथ-साथ आर्थिक कारणों से भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए व्यापक प्रयास किए हैं.
स्थानीय व्यापारियों और कामगारों ने दिप्रिंट को बताया कि अब काशी विश्वनाथ मंदिर से सटे ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के विवाद का कारोबार पर असर पड़ने लगा है.
कोविड और महंगाई ने पहले ही अर्थव्यवस्था को बुरी तरह चौपट कर रखा है, और कई लोगों को आशंका है कि सांप्रदायिक तनाव इसमें ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकता है.
‘पर्यटक डरे हुए हैं…ऐसी मंदी नहीं देखी’
रेशम और आध्यात्मिक पर्यटन परंपरागत रूप से वाराणसी की अर्थव्यवस्था के दो मुख्य स्तंभ रहे हैं, और ये विभिन्न समुदायों के साथ मिलकर काम करने पर निर्भर हैं.
अपनी किताब क्राफ्टिंग ए फ्यूचर: स्टोरीज ऑफ इंडियन टेक्सटाइल्स एंड सस्टेनेबल प्रैक्टिसेज में टेक्सटाइल डिजाइनर अर्चना शाह लिखती हैं कि कैसे ‘बनारस के कारीगरों जैसी बुनाई देश में कहीं और करना संभव नहीं है.’, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों अहम भूमिका निभाते हैं.
शहर की प्रसिद्ध ब्रोकेड बनारसी साड़ियों के अधिकांश बुनकर मुस्लिम हैं, जो कि खासकर मोमिन-अंसारी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. वहीं जरी और धागे की आपूर्ति करने वाले अधिकांशत: हिंदू हैं. व्यापारी भी हिंदू बनिया और खत्री समुदायों के हैं.
लॉकडाउन के कारण सभी को नुकसान पहुंचा, बनारसी साड़ियों की बिक्री में कथित तौर पर 70 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है.
अभी हाल में कुछ समय पहले तक बिक्री फिर बढ़ने लगी थी. कोविड प्रतिबंध हटने, और मंदिर को गंगा नदी से जोड़ने वाले काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर की वजह से पर्यटकों का आना-जाना भी बढ़ गया था.
अधिक पर्यटकों के आने से होटल, रेस्तरां, दुकानों और रेशम और संगीत वाद्ययंत्र जैसे पारंपरिक व्यवसायों में रौनक लौटने लगी थी.
स्थानीय निवासियों ने दिप्रिंट को बताया, लेकिन अभी यहां आने वालों की संख्या फिर घट रही है, और इसका खामियाजा हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से भुगत रहे हैं.
चौक ज्ञानवापी व्यापार मंडल नामक एक व्यापारी संगठन के प्रमुख बल्लभ दास अग्रवाल ने कहा, ‘पर्यटक डरे हुए हैं…मीडियाकर्मियों ने (ज्ञानवापी मस्जिद) मुद्दे को कुछ ज्यादा ही तूल दे दिया है. मेरी दुकान 122 साल पुरानी है, लेकिन मैंने पिछले कुछ हफ्तों में इतनी बड़ी मंदी कभी नहीं देखी, जबकि यह शादियों का समय है.’
लाहौरी टोला इलाके में साड़ी की एक दुकान के मालिक अख्तर (जो अपना पूरा नाम नहीं बताना चाहते) ने कहा कि स्थिति पहले ही ठीक नहीं थी लेकिन अब हालात और बदतर ही हो रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘ग्राहक बाजार में नहीं आ रहे. उनका बजट गड़बड़ा गया है और लोग डरे हुए हैं. ईद से पहले (3 मई को) हालात ठीक थे, लेकिन अब बाजार बुरी तरह प्रभावित हुआ है. कमाई कम है जबकि खर्च बहुत ज्यादा है. अस्सी फीसदी बाजार में गिरावट है. हम कुछ साड़ियां बेचने के लिए दिल्ली या मुंबई जाना चाहते थे लेकिन मेरे माता-पिता ने यह कहते हुए नहीं जाने दिया कि माहौल ठीक नहीं है.’
अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करने वाले बुनकरों के लिए स्थिति और भी विकट नजर आती है. ज्ञानवापी विवाद के बारे में पूछे जाने पर एक कामगार ने कहा, ‘बेकार है.’
30 वर्षीय साड़ी बुनकर बबलू ने कहा, ‘हमारे लिए तो ठीक से खाने का इंतजाम करना मुश्किल है…फिर क्यों इन सबमें उलझकर समय बर्बाद करें? मीडिया को समझना चाहिए कि हम इसके बारे में बात नहीं करना चाहते हैं.’
अख्तर के मुताबिक, कुछ बुनकर अपनी मशीनें तक बेच रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘मेरे कुछ कारीगारों ने अपनी मशीनें तक बेच दी है और मजदूरी जैसे काम करने लगे हैं. एक कारीगर ने मुझे अपनी मशीन खरीदने के लिए कहा लेकिन मैंने उसे समझाया कि जब मेरे पास पर्याप्त बिक्री नहीं होगी, तो मैं मशीन का क्या करूंगा?’
दुकान के मालिक वसीम खान उर्फ बाबा ने कहा कि मजदूरी का काम भी मुश्किल ही है. ‘हम कम से कम अपना पेट तो पाल पा रहे हैं. 300 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले गरीब मजदूरों को काम तक नहीं मिल रहा है.
बाबा ने कहा, ‘आप किसी भी मजदूर मंडी में जाकर देख सकते हैं कि 75 प्रतिशत लोग बिना काम के कैसे लौटते हैं. बुलानाला, मैदागिन, चेतगंज, पांडेयपुर आदि में लगभग 10-15 मंडियां हैं, जहां मजदूर काम की तलाश में जुटते हैं.’
‘मीडिया बना रहा मंदिर-मस्जिद का हौव्वा’
वाराणसी के कई आम लोगों का मानना है कि मस्जिद को लेकर चल रहा विवाद ‘वास्तविक’ मुद्दों से ध्यान भटकाने वाला है.
24 वर्षीय छात्र शेख सलमान ने कहा, ‘गैस सिलेंडर के दाम बढ़ गए हैं, महंगाई चरम पर है, असम में बाढ़ आ गई है… लेकिन क्या कोई इसके बारे में बात कर रहा है?’
वह अभी-अभी ज्ञानवापी मस्जिद से नमाज अदा करके निकला था, लेकिन विवाद पर ध्यान नहीं देना चाहता. सलमान ने कहा, ‘हौव्वा बनाया जा रहा है.’
यहां तमाम लोगों का मानना है कि मीडिया का एक वर्ग विवाद को बेवजह अनावश्यक रूप से कवरेज दे रहा है, जो कि उनके मुताबिक, समुदायों के बीच तनाव पैदा करने की कोशिश है.
35 वर्षीय शमशाद खान ने कहा, ‘गोदी मीडिया है ना…यहां बहुत सारे घर टूटें हैं (काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर निर्माण के लिए). हर घर में कई मंदिर थे जिन्हें तोड़ा गया. लोगों ने इसका विरोध किया, लेकिन किसी ने नहीं सुनी.’
उनके मुताबिक, कोर्ट अधिकारियों की तरफ से विवादित स्थल के सर्वेक्षण संबंधी लीक रिपोर्ट के बारे में बात करना मीडिया का गैर-जिम्मेदाराना रवैया था. इन कथित सर्वेक्षण रिपोर्टों में पश्चिमी दीवार और ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अन्य हिस्सों पर हिंदू प्रतिमा और धार्मिक संरचनाओं होने का जिक्र किया गया था.
मस्जिद के वजूखाना में एक कथित शिवलिंग का दावा करने वाले सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए अग्रवाल ने कहा, ‘वाराणसी में हिंदुस्तान-पाकिस्तान की जैसी सीमा बनाई गई है.’
बाबा ने कहा कि मीडिया को इसके बजाय ‘असली चीज’ दिखानी चाहिए कि अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है.
उन्होंने कहा, ‘हमें शांति से रहने दिया जाना चाहिए. हम दिन भर खाली बैठे रहते हैं. ग्राहक नहीं आते. पहले, हमारे पास 100-200 ग्राहक आते थे, और अब मुश्किल से दो या तीन आते हैं. स्थानीय निवासी नहीं आ रहे हैं. आजमगढ़, जौनपुर, मऊ, गाजीपुर के व्यापारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं.’
निर्माण व्यवसाय से जुड़े शारिक खान ने भी मीडिया से कुछ ऐसी ही गुहार लगाई. उन्होंने कहा, ‘हमारा देश बहुत अच्छा है और हमारा शहर तो सबसे अच्छा है. पंडितजी मंदिर जाते हैं और हम मस्जिद जाते हैं. अगर सरकार वास्तव में कुछ अच्छा करना चाहती है, तो उसे यहां मीडिया की मौजूदगी घटानी चाहिए.’
‘2024 की तैयारी?’
इस साल के शुरू में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वाराणसी ने निश्चित तौर पर भाजपा के पक्ष में वोट दिया था, लेकिन कई लोगों का मानना है कि पार्टी नेताओं का वोट के लिए विभाजनकारी राजनीति करना उनके शहर को नुकसान पहुंचा सकता है.
65 वर्षीय श्रीधर त्रिपाठी ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि सरकार 2024 के आम चुनाव की तैयारी कर रही है.
उन्होंने कहा, ‘एक मंदिर के लिए आपने ऐसा हंगामा मचा रखा है. आपने यहां (गलियारे के निर्माण के लिए) न जाने कितने मंदिरों को तोड़ दिया है. मूर्तियां कहां गईं? वे इसका कोई सबूत नहीं देंगे क्योंकि वे अपनी राजनीति करना चाहते हैं. आप राजनीति के लिए हिंदू-मुसलमानों को लड़ा रहे हैं, कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा है कि लोगों के पास खाने को है या नहीं.’
शारिक खान ने भी लोगों के बीच दरार बढ़ाने के लिए भाजपा सरकार को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा, ‘कुछ लोग कहते हैं कि भारत को 2014 के बाद आजादी मिली है. यह सारी पंचायत उसके बाद ही शुरू हुई है.’
20 वर्षीय एक छात्रा फरहीन खान बाबा की दुकान जा रही थी. उसने कहा कि पहले तो उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तमाम उम्मीदें थी लेकिन अब धर्म को लेकर उठ रहे विवादों ने उसे चिंता में डाल दिया है.
उसने कहा, ‘वे अब ताजमहल के पीछे पड़ गए हैं, और दावा कर रहे हैं कि वहां एक मंदिर हुआ करता था…क्या केवल हिंदुओं ने भाजपा और मोदीजी को वोट दिया है? हमने भी उन्हें वोट दिया था. और अब, मुझे इसका पछतावा हो रहा है.’
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