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Sunday, 22 December, 2024
होमएजुकेशनसेमेस्टर बीच में छोड़ चाय बेचने को मजबूर, भारत में ज़िंदा रहने के लिए अफगानी छात्र कर रहे संघर्ष

सेमेस्टर बीच में छोड़ चाय बेचने को मजबूर, भारत में ज़िंदा रहने के लिए अफगानी छात्र कर रहे संघर्ष

तालिबान की सत्ता में वापसी, काम करने पर रोक लगाते सख्त वीज़ा नियम और बंद होती जा रही छात्रवृत्तियों ने अफगानी छात्रों को अनिश्चितता में डाला हुआ है. हालांकि, भारतीय मित्र उनकी मदद कर रहे हैं, लेकिन वह काफी नहीं है.

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नई दिल्ली: अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी और भारत में सख्त वीज़ा नियमों के चलते 27 साल के हबीबुल्ला मोहम्मदी को लगता है कि उनके सपने धूल में मिल जाएंगे. चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी से एमबीए कर रहे इस छात्र ने फिलहाल अपना आखिरी सेमेस्टर छोड़ने का फैसला किया है, क्योंकि उसका पूरा भविष्य दांव पर लगा हुआ है.

मोहम्मदी और उनके रूममेट पिछले दो टर्म से अपनी फीस नहीं भर पाए हैं, जहां एक तरफ उन्हें अपने परिवार की तरफ से कोई पैसा नहीं मिल पा रहा हैं, वहीं दूसरी तरफ उनका भारतीय वीज़ा उन्हें काम करने की अनुमति नहीं देता है. वह अजीब परिस्थियों में रह रहे हैं. फिलहाल उनका एकमात्र सहारा उनके भारतीय सहपाठियों की दया है.

मोहम्मदी ने फोन पर दिप्रिंट को बताया, ‘‘मेरे पिता पिछले कुछ महीनों से मुझे पैसा नहीं भेज पाए हैं. ज़िंदा रहने के लिए पैसों का इंतज़ाम कर पाना मुश्किल होता जा रहा है. शुक्र है, मेरे सहपाठी अभी के लिए कुछ पैसों को जुटाने में मेरी मदद कर रहे हैं.’’ वह आगे कहते हैं, ‘‘मैं खुद से कुछ करना चाहता हूं. मेरा ईरादा अपनी पढ़ाई पूरी करने और एक अदद नौकरी ढूंढने का है.’’

दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही स्थिति उनकी समझ से परे नहीं है, उन्हें अपना भविष्य अधर में लटका नज़र आ रहा है. मोहम्मदी 2018 से भारत में हैं और यहां रहते हुए उन्होंने अपनी बीबीए की पढ़ाई पूरी की. वे जानते हैं कि देश में नौकरी पाना लगभग असंभव है. इसलिए उन्होंने मध्य पूर्व या पश्चिमी देशों में अवसर मिलने की उम्मीद लगाई हुई है. मगर अपनी डिग्री पूरी कर पाएंगे या नहीं, उन्हें अभी इसे लेकर थोड़ी शंका है.

मोहम्मदी की परेशानी अकेले की नहीं है. भारत में रह रहे ज्यादातर अफगानी छात्रों को इसी तरह की मुश्किलों से दो-चार होना पड़ रहा हैं. उनका भविष्य अधर में लटका हुआ हैं. उनके परिवारों से पैसे नहीं आ रहे हैं, उन्हें कानूनी रूप से काम करने की अनुमति भी नहीं है और छात्रवृत्तियां मिलना भी बंद हो गई हैं. उनकी यूनिवर्सिटीज़ अब ज्यादा समय तक उन्हें नहीं रख पाएंगी. यहां तक कि उनके मित्र भी लंबे समय तक उनकी मदद कर पाने में सक्षम नहीं हैं.

यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी (UNHCR) के 2021 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 15,000 से ज्यादा अफगानी शरण चाहने वालों और संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के साथ शरणार्थी के रूप में पंजीकृत हैं. अफगानिस्तान दूतावास के मुताबिक, इसके अलावा लगभग 13,000 अफगानी छात्र फिलहाल भारतीय यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ रहे हैं.

इनमें से ज्यादातर छात्रों के पास विदेशी नागरिकों का आधार कार्ड है. उनका वीज़ा उन्हें काम करने से रोकता हैं. कुछ लोग चाय या फिर छोटी-मोटी चीजें बेचकर अपना गुज़ारा चला रहे हैं. या फिर ‘अंडर-द-टेबल’ छोटे-मोटे काम कर रहे हैं. योग्य छात्र भी वर्क परमिट पाने या फिर काम करने के लिए बेहतर कंपनी ढूंढ़ पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

अफगानिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल के नतीजों के कारण उन्हें इन मसलों से निपटना मुश्किल हो रहा है.

अगस्त 2021 में तालिबान के अधिग्रहण के बाद काबुल में भारतीय राजनयिक मिशन बंद कर दिया गया था. 18 महीने बाद भी भारत सरकार की काबुल में कोई राजनयिक उपस्थिति नहीं है, जबकि नई दिल्ली में मौजूदा दूतावास उन अफगान अधिकारियों द्वारा चलाया जाता है जो पूर्व अशरफ गनी सरकार का हिस्सा थे.

पिछले महीने दिप्रिंट ने रिपोर्ट की थी कि तालिबान ने नई दिल्ली में एक प्रतिनिधि को तैनात करने की अनुमति देने के लिए भारत सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है. इसके लिए तालिबान शासन के विदेश मंत्रालय के विवादास्पद प्रवक्ता अब्दुल कहर बाल्खी एक प्रस्तावित उम्मीदवार थे.

दिप्रिंट ने विदेश मंत्रालय को ई-मेल कर इस पर जवाब मांगा है कि क्या भारत सरकार अफगान छात्रों और शरणार्थियों के लिए किसी तरह की सहायता या वीज़ा में छूट देने पर विचार कर रही है. प्रतिक्रिया मिलने पर यह खबर अपडेट कर दी जाएगी.


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साथ छोड़ती ‘किस्मत’

20-वर्षीय नेदा सदाकत कई अन्य अफगान छात्रों की तुलना में ‘भाग्यशाली’ रही हैं. उनके साथ उनका परिवार है और वे दिल्ली यूनिवर्सिटी (DU) के एक कॉलेज में फर्स्ट ईयर की छात्रा है.

सदाकत की मां अफगानिस्तान में एक इंटरनेशनल रिलीफ ऑर्गेनाइजेशन में एक उच्च पदस्थ अधिकारी थीं. तालिबान सरकार के सत्ता में आने से दो सप्ताह पहले तीन लोगों का यह परिवार किसी तरह से भारत के लिए रवाना होने में कामयाब रहा.

लेकिन अब उनका ‘भाग्य’ धीरे-धीरे उनका साथ छोड़ता जा रहा है. भारत में शरण चाहने वाला यह परिवार अभी तक अपनी बचत पर गुज़र-बसर कर रहा था, लेकिन अब उनका पैसा तेज़ी से कम हो रहा है.

सदाकत ने कहा, ‘‘मेरी मां कई महीनों से नौकरी की तलाश कर रही हैं. हर कोई उनसे कह देता है कि वे अधिक योग्य हैं या फिर उनके दस्तावेज़ देखने के बाद नौकरी देने से इनकार कर देता है. मेरा भाई थोड़ा-बहुत पैसा कमाने के लिए बतौर वॉलेंटियर काम कर रहा है. हम चिंतित हैं क्योंकि मेरी मां की बचत हमेशा के लिए तो नहीं रहेगी.’’

सदाकत ने 2021 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) से स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया था, लेकिन उनके एजाइलम-सीकर स्टेटस के कारण इनकार कर दिया गया. उस साल ICCR ने 650 अफगानी छात्रों को वजीफे के साथ छात्रवृत्ति प्रदान की थी, लेकिन 2022 में इसने अफगान के सभी आवेदकों को अस्वीकार कर दिया. अफगानी छात्रों के लिए इसका मतलब भारत में पढ़ाई जारी रखने के लिए अपने पैसों पर निर्भर रहना है.

आमतौर पर हर साल कई अफगानी छात्र भारत में पढ़ने के लिए आवेदन करते हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है. पिछले साल डीयू में अफगानिस्तान से आने वाले आवेदनों की संख्या शून्य थी.

सदाकत के मामले में एक भारतीय संस्था ने उनकी काफी मदद की.

सदाकत ने बताया, ‘‘जब मुझे एडमिशन देने से इनकार कर दिया गया तो मैंने काम करने का फैसला किया. मुझे कोक स्टूडियो में वॉल्येंटरिंग नौकरी मिल गई. वहां मेरे एक सीनियर ने मेरी फीस भरी और कॉलेज में मेरा दाखिला करा दिया.’’

नेदा जैसे कई परिवार जो भारत भाग आए थे, अब दिल्ली में अफगान शरणार्थी समुदायों में रहते हैं, जो लाजपत नगर और मालवीय नगर जैसे इलाकों में फैले हुए हैं. वे सड़क के किनारे हाथों से बने समान या फिर चाय बेचने जैसे छोटे-मोटे काम कर अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं.


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‘हमारा दिल अब पतझड़ के मौसम जैसा हो गया है’

चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी के छात्र हबीबुल्लाह मोहम्मदी ने कहा कि वह ‘गरीबी से एक कदम दूर’ हैं, लेकिन उन्हें अपनी एमबीए पूरा करने का मौका देने के लिए पिछले दो सेमेस्टर की अपनी लंबित फीस के लिए किसी तरह 1.6 लाख रुपये की व्यवस्था करनी होगी.

उन्होंने कहा, बिना दस्तावेज़ दिखाए कभी-कभी उनके जैसे लोगों को कॉल सेंटर में नौकरी मिल जाती हैं. ‘‘लेकिन काम के लंबे घंटे और मिलने वाला वेतन से बस उनका गुज़ारा ही चल पाता है.’’

उनका परिवार इस समय ईरान में शरण मांग रहा है और उनके पास मोहम्मदी को भेजने के लिए पैसे नहीं हैं.

चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में बीबीए द्वितीय वर्ष के छात्र सैयद हुसैन ने कहा कि तालिबान शासन के चलते अफगानिस्तान में कई व्यवसायों को बंद करना पड़ा है. नतीजतन, परिवार विदेशों में पढ़ रहे अपने बच्चों की मदद करने में असमर्थ हैं.

आर्थिक नुकसान के चलते परिवार विदेशी संस्थानों में पढ़ने वाले अपने बच्चों को पैसा नहीं भेज पाए हैं.

उन्होंने कहा, ‘‘कई अफगानी छात्रों ने अपने इस बार के सेमेस्टर को छोड़ दिया है. उनकी कई सेमेस्टर से फीस लंबित है. कुछ को हर तीन से छह महीने में अपने परिवार से थोड़ा पैसा मिलता है. उससे सिर्फ गुज़ारा ही चल पाता है. वे या तो सड़क पर छोटी खाने-पीने या चाय की दुकान खोल लेते हैं या फिर छोटी-मोटी कंपनियों में अवैध रूप से काम करते हैं.’’

27-साल के मल्लिक मोहम्मद नसेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी से हिंदी में पीएचडी कर रहे हैं. उन्हें जूनियर रिसर्च फेलो (जेआरएफ) छात्रवृत्ति से कुछ पैसे मिलते हैं, लेकिन यह रोज़ाना की ज़रूरतों को ही पूरा कर पाते हैं.

वे अपने घर में सबसे बड़े बेटे हैं. काबुल में अपने परिवार को पैसे वापस नहीं भेज पाने की वजह से काफी बुरा महसूस करते हैं. उन्हें तो यह भी पता नहीं है कि वे अपने परिवार से दोबारा कब मिल पाएंगे. उनका घर वह नहीं रहा जो पहले हुआ करता था.

उन्होंने कहा, ‘‘नौकरी या शिक्षा पूरी किए बिना हम घर वापस नहीं जा सकते हैं.’’

धड़ल्ले से हिंदी में बात करते हुए नसेरी ने कहा, ‘‘अफगान छात्रों का दिल अब पतझड़ के मौसम जैसा हो गया है’’.

(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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