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Monday, 23 December, 2024
होमदेशलश्कर-ए-तैयबा का आख़िरी लड़ाका दक्षिण कश्मीर के जिहादी गढ़ में है जो अशिक्षित बाल सैनिक है

लश्कर-ए-तैयबा का आख़िरी लड़ाका दक्षिण कश्मीर के जिहादी गढ़ में है जो अशिक्षित बाल सैनिक है

जज़ीम फ़ारूक़ अपने 15वें जन्मदिन के बाद ही घर से निकल गया और लश्कर-ए-तय्यबा का बच्चा लड़ाका बन गया. वह इस साल अब तक जिहादी गुट में शामिल हुए मात्र तीन स्वयंसेवकों में एक है.

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शोपियां: नौ वर्षीय जज़ीम फ़ारूक़ वानी प्रायः हर दोपहर बाद दक्षिण कश्मीर के गांव श्रीमाल में रामबियारा नदी के किनारे फलों के बागान को पार करके दोमावानी में क्रिकेट खेलने पहुंच जाया करता था या श्रीनगर-शोपियां सड़क से गुजरती पुलिस पर पत्थर फेंक रहे बड़े लड़कों के गुट में शामिल हो जाता था.

जिहादियों के आदर्श बुरहान वानी को 2016 में मार गिराया गया और उसके बाद भारत के राज्य दक्षिण कश्मीर में इस्लामवादियों के नेतृत्व में बगावत शुरू हो गई थी. स्थानीय लोग इसे ‘आज़ादी’ नाम दिया. इतिहासकार चित्रलेखा जुत्सी ने जिसे बगावत का मौसम नाम दिया वह तब बदल गया जब कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया. कभी पाकिस्तान दिवस पर जुलूस निकालने वाले और पत्थरबाजी करने वालों के झुंड जेलों में गुम हो गए.

जज़ीम फ़ारूक़ अपने 15वें जन्मदिन के बाद ही घर से निकल गया और लश्कर-ए-तैय्यबा का बच्चा लड़ाका बन गया. पुलिस ने ‘दिप्रिंट’ को बताया कि वह इस साल अब तक जिहादी गुट में शामिल हुए सिर्फ तीन स्वयंसेवकों में से एक है. इस मामले के जानकारों का अनुमान है कि लड़ाई में मारे गए 193 जिहादियों की जगह लेने के लिए पिछले साल 26 नई भर्ती हुई थी.

दस्तावेज़ बताते हैं कि जज़ीम फ़ारूक़ के पिता फ़ारूक़ वानी ने, जम्मू-कश्मीर पुलिस के हवलदार हैं, 28 फरवरी को स्थानीय थाने में रिपोर्ट दर्ज कारवाई कि उनका बेटा लापता है. फ़ारूक़ बड़ी शांति से कहते हैं, ‘कुछ लोगों ने जरूर उसे बरगलाया है. मैं हर दिन दुआ करता हूं कि वह घर लौट आए.’


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जिहादी का जन्म

कई युवा जिहादियों की तरह जज़ीम फ़ारूक़ की कहानी भी विचारधारा, पारिवारिक दुर्व्यवहार और किशोरवय के आक्रोश की खिचड़ी है. जैनापुरा के निजी स्कूल में 10वीं क्लास तक पढ़ाई कर चुका जज़ीम फ़ारूक़ अपने माता-पिता में बढ़ते झगड़ों के बीच बड़ा हुआ. उसके परिवार के लोगों का कहना है कि फ़ारूक़ वानी अपनी बीवी फहमीदा बेगम के साथ झगड़ों से आजिज़ आकर तीन साल पहले घर से निकल गया था. दोनों ने तलाक तो नहीं लिया लेकिन फ़ारूक़ ने अपनी पुश्तैनी जमीन के एक छोर पर अपना एक छोटा सा मकान बनाया.

परिवार वालों ने ‘दिप्रिंट’ को बताया कि बच्चों ने मां का साथ दिया. बड़े बेटों—यूनिवर्सिटी में पढ़ चुके कंस्ट्रक्सन ठेकेदार शीज़ान वानी, यूनिवर्सिटी के छात्र ज़ीशान फ़ारूक़ और जामीन फ़ारूक़ ने अपने पिता के साथ कुछ रिश्ता बनाए रखा. सबसे छोटे बेटे ने फ़ारूक़ से बातचीत बंद कर दी.

परिवार वालों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि जज़ीम ने अपने पिता, पुलिस और भारत सरकार के प्रति अपनी नफरत जाहिर करने लगा था. रिटायर्ड पुलिस अफसर, अपने चाचा गुलाम मोहम्मद वानी के घर पर ज्यादा समय बिताने लगा.

वानी के तरह, परिवार के अधिकतर पुरुष 1988-89 में लंबे जिहाद के शुरू होने से पहले जवान हुई पीढ़ियों के हैं, और सरकारी नौकरी में आकर समाज में एक इज्जत हासिल की है. सबसे बड़े मामा बिलाल वानी एक सफल कंस्ट्रक्सन ठेकेदार हैं और मारीफात वानी कश्मीर यूनिवर्सिटी में प्रशासनिक सेवा में हैं. परिवार के एक सदस्य ने अपना नाम न बताते हुए कहा कि बच्चे सिपाही ने न अपने पिता को ही नहीं बल्कि कश्मीर में उभर रहे मध्यवर्ग के मूल्यों और निष्ठाओं को भी खारिज कर दिया और एक अंधे रास्ते पर चल पड़ा.

बाप और बेटे

गुलाम मोहम्मद वानी का बेटा आदिल हुसैन वानी इस्लामवादी युवाओं के 2010 से शुरू हुए विद्रोह के साये में बड़ा हुआ. वह अपने चचेरे भाई को अक्सर उन युवाओं के पास ले जाता था, जो खतरनाक गुलेलबाजी किया करते थे. पुलिस का कहना है कि यह भीड़ कलहग्रस्त घरों, छोटे अपराध करने वालों, गरीब और बेरोजगारों के बच्चों को बड़ी संख्या में आकर्षित करते थे.

शोधार्थी योगिंदर सैकंड ने लिखा है कि इस्लाम का राज कायम करने के प्रति समर्पित नव-कट्टरपंथी अहल-ए-हदीस आंदोलन और जमाते इस्लामी पार्टी ने 1940 के बाद से इस क्षेत्र में अपनी जड़ें गहरी कर ली थी. जमात यह सीख देती रही है कि हिंदू-बहुल भारत न केवल कश्मीरियों के लिए बल्कि इस्लाम के वजूद के लिए भी एक खतरा है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुक़ाबले में उभरती जमात ने दक्षिण कश्मीर को पहले हिज्बुल मुजाहिदीन का और फिर लश्कर-ए-तैय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद का अड्डा बनाने का जाल फैला दिया.

इस क्षेत्र के कई युवाओं की तरह आदिल पुलिस से लड़ते पत्थरबाजों की भीड़ और मारे गए जिहादियों के समर्थन में निकलने वाले जुलूसों में शामिल हो गया. 2019 के बाद पुलिस ने जब बड़ी संख्या में गिरफ्तारी शुरू की और बग़ावत के नेताओं को दूसरे राज्यों की जेलों में भेजना शुरू किया तो ये जुलूस बंद होने लगे. मामले के एक जानकार ने बताया कि कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किए जाने के बाद जब यह साफ हो गया कि व्यापक आंदोलन की गुंजाइश खत्म हो गई है, तो वह लश्कर में शामिल हो गया और 2020 की गर्मियों में पीर पंजाल के पहाड़ों में गुम हो गया.

वह जिन्हें अपना हीरो मानता था उनमें शिरमाल-हेफ़्फ़ इलाके के स्थानीय ये जिहादी हैं—बुरहान वानी गुट का अंतिम शख्स सद्दाम पड्डर, जो 2018 में मारा गया; उसका साथी जिहादी बिलाल मौलवी, जिसे उसके समर्थकों ने 18 बार जनाजा पढ़ने के बाद दफन किया था और अल-बद्र का कमांडर ज़ीनत-उल-इस्लाम, जो नए रंगरूटों की भर्ती करवाने में माहिर था. एक आईपीएस अधिकारी का भाई, हिज्बुल का जिहादी शमसुल इनाम मेंगनू भी इस इलाके का एक और सोशल मीडिया स्टार था.


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अंतिम जिहादी

ऊपर जिन लोगों का जिक्र किया गया है उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने के बाद पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों ने जब कश्मीरी जिहादियों को हथियार और गोला-बारूद देना बंद कर दिया तब 2019 में ज़्यादातर समय आदिल गुट इलाके की पहाड़ियों में छिपा रहा और जब-तब प्रवासी मजदूरों और सरकारी कर्मचारियों की हत्याओं को अंजाम देता रहा है. लेकिन पिछले साल अक्टूबर में आदिल जैनापुरा के पास की बस्ती ड्रागाड़ में पुलिस की गोली से मारा गया.

जज़ीम के परिवार के एक सदस्य ने ‘दिप्रिंट’ को बताया कि वह कुछ समय तक सक्रिय रहा लेकिन बाद में अपने चचेरे भाई के रास्ते पर चला गया. उसने अपने भाई के लश्कर वाले साथियों से संपर्क किया. जांचकर्ताओं का कहना है कि पिछले महीने एक रात उसने अपना फोन बंद कर दिया और स्थानीय जिहादी दानिश हमीद ठोकर और उबेद अहमद पद्दर के साथ पहाड़ियों में भाग गया. खुफिया सूत्रों का कहना है कि इन तीनों के पास एक ही बंदूक है, जिसका इस्तेमाल अक्टूबर में एक स्थानीय निवासी कश्मीरी पंडित पूर्णा कृशन भट की हत्या में किया गया. एक पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘ये बच्चे भी चंद हफ्तों या महीने में मारे जाएंगे.’

जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने 2003 में जब कश्मीरी गुटों को समर्थन में कटौती शुरू की थी टैबसे जिहाद कमजोर पड़ने लगा था और लश्कर जैसे गुटों ने बड़ी संख्या में बच्चों की भर्ती शुरू कर दी थी. ऐसे बच्चों को खाना पकाने, सफाई, कुली, गाइड के काम में लगाया गया और उनमें जो अच्छे लगे उन्हें ट्रेनिंग के लिए सीमा पार भेजा जाने लगा. पुलिसवालों का कहना है कि गरीब परिवारों ने अपने बच्चों को उनके पास जाने दिया क्योंकि उनके परिवार में खाने वाले की संख्या कम होती थी.

संदेह है कि 2003 में दक्षिणी कश्मीर के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र के सुरणकोट के पास की पहाड़ियों में भारतीय सेना ने जब जिहादियों के शिविरों को खत्म करने का अभियान शुरू किया था तब खारी धोके में मारे गए.

आतंकवादियों में ऐसे दसियों बच्चे भी मारे गए होंगे. इसके एक दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद युवाओं को जिहाद के लिए भर्ती करने का सिलसिला कमजोर पड़ा लेकिन हजारों युवा सड़कों पर इस्लामवादियों की हिंसक मुहिम में शामिल हो गए.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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