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रविवार, 4 मई, 2025
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राजस्थान के भूमिहीन कलाकार जीविका के साथ-साथ लोक संगीत को बचाने के लिए कर रहे संघर्ष

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(गौरव सैनी)

(तस्वीरों के साथ)

चुरू/मेरठ, चार मई (भाषा) दिल्ली-हरिद्वार राजमार्ग के किनारे शोरगुल वाले एक रेस्तरां में सुभाष भोपा चुपचाप एक कोने में बैठकर अपना ‘रावणहत्था’ बजाते हैं। इस प्राचीन वाद्य यंत्र की मद्धिम ध्वनि वाहन के गुजरने की आवाज़ और भोजन कर रहे लोगों की बातचीत के शोर में दबकर रह जाती है।

चमकीली पगड़ी और साटन प्रिंट की सदरी पहने सुभाष उन अंतिम भोपों (राजस्थान के पारंपरिक पुजारी-गायक) में से हैं, जो आज भी रावणहत्था बजाते हैं। रावणहत्था एक झुका हुआ तार वाला वाद्य यंत्र है, जिसके बारे में माना जाता है कि इसका निर्माण राक्षस राज रावण ने भगवान शिव की आराधना के लिए किया था।

सुभाष हालांकि आजकल अधिकतर बॉलीवुड गानों की धुन बजाते हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘लोक संगीत मेरी पहली पसंद है, लेकिन लोग बॉलीवुड गानों की धुन पसंद करते हैं। वे मुझे आजीविका कमाने में मदद करते हैं।’’

सुभाष और उनकी पत्नी गर्मियों में राजस्थान के चुरू जिले के खबरपुरा गांव स्थित अपने घर को छोड़कर उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुजफ्फरनगर और अन्य शहरों में रोजी-रोटी के लिए यात्रा करते हैं, क्योंकि 700 वर्ष पुरानी कला ‘पाबूजी की फड़’ अपनी पहचान धीरे-धीरे खोती जा रही है जिसमें मंत्रमुग्ध करने वाले संगीत के साथ भोपा लोक देवता पाबूजी की वीरतापूर्ण गाथाएं गाते हैं।

इस दयनीय स्थिति की दो मूल वजहें- कलाकारों का भूमिहीन होना और जलवायु परिवर्तन हैं।

भारतीय राष्ट्रीय कला एवं सांस्कृतिक विरासत ट्रस्ट (आईएनटीएसीएच) के जितेन्द्र शर्मा के मुताबिक राजस्थान में पाबूजी को लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। उनकी कहानी को कपड़े पर लिखा जाता है, जिसे फड़ कहते हैं और लोक गायक जिन्हें भोपा कहते हैं, गांव-गांव जाकर उनकी कहानी गाते और सुनाते हैं।

उन्होंने बताया कि इसके लिए कोली समुदाय कपड़ा बुनता है, जबकि ब्राह्मण उसपर चित्र बनाते हैं। रायका, एक चरवाहा समुदाय जो व्यापक रूप से ऊंट चराने के लिए जाना जाता है, पाबूजी की पूजा करता है, क्योंकि उनका मानना ​​है कि वह उनके जानवरों की रक्षा करते हैं। राजपूत उनका सम्मान करते हैं, क्योंकि पाबूजी स्वयं एक राठौर राजपूत थे।

शर्मा ने बताया कि कई खानाबदोश समुदायों की तरह भोपा भी लंबे समय से अपनी आजीविका के लिए भूमि पर निर्भर रहे हैं, जो आजीविका के साधन के रूप में भी है और सांस्कृतिक आधार के स्रोत के रूप में भी।

उन्होंने कहा कि फिर भी, उनमें से कई भूमिहीन हैं, जिसके कारण उन्हें बुनियादी सहायता संरचनाओं तक पहुंच नहीं मिल पाती है, जो उन्हें स्थिरता प्रदान कर सकती हैं, जैसे आवास, पानी, बिजली और सरकारी सहायता।

शर्मा ने कहा कि जमीन से संबंध कमजोर होने की वजह से उनकी पहचान को परिभाषित करने वाली सांस्कृतिक प्रथाओं को जारी रखने की उनकी क्षमता भी कमजोर होती जाती है।

मेरठ के शेखपुरा में एक मद्धिम रोशनी वाले जीर्ण-शीर्ण किराये के कमरे में बैठे, खबरपुरा के एक अन्य भोपा अमर सिंह याद करते हैं कि कैसे समुदाय के बुजुर्ग गांव के समारोहों के दौरान, अक्सर धनी जमींदारों के संरक्षण में, पाबूजी की फड़ का प्रदर्शन करते थे।

उन्होंने बताया, ‘‘उस समय लगभग हर घर में ऊंट रखे जाते थे। लोग उन पर भरोसा करते थे और बीमार पशुओं को ठीक करने तथा अपने परिवार की खुशहाली के लिए प्रार्थना करने के लिए फड़ अनुष्ठान करते थे।’’

अमर सिंह ने कहा, ‘‘अब घरों में ऊंट नहीं हैं। उनकी जगह ट्रैक्टर ने ले ली है। जो लोग अब भी ऊंट पालते हैं, वे भी फड़ नहीं गाते। हम साल में बमुश्किल एक या दो बार फड़ गाते हैं।’’

उन्होंने कहा कि अब श्रोता भी नहीं रहे। उन्होंने कहा कि युवा पीढ़ी अपने फोन पर गाने सुनने को तरजीह देती है।

उन्होंने कहा, ‘‘हम गांव-गांव जाकर भजन गाते हैं। लोग अपनी क्षमता के अनुसार थोड़ा-बहुत दान देते हैं।’’

अमर सिंह ने कहा कि उनके बच्चों ने यह कला नहीं सीखी है। उन्होंने कहा, ‘‘इसमें कोई भविष्य नहीं है। इससे कोई लाभ नहीं होता। सौ भोपा परिवारों में से केवल दो ही आज भी इस कला का प्रदर्शन करते हैं।’’

अमर सिंह ने आशंका जताई कि यह परंपरा ज़्यादा दिन तक नहीं चल पाएगी। उन्होंने कहा, ‘‘यह रेत की तरह फिसल रही है।’’

वे कहते हैं कि बढ़ती गर्मी ने हालात और भी बदतर कर दिए हैं। उन्होंने कहा,‘‘लोग सुबह 10 बजे के बाद घर के अंदर ही रहते हैं। भीड़ नहीं होने का मतलब है काम नहीं ।’’

अमर सिंह कहते हैं कि उनके पास न तो जमीन है और न ही घर, इसलिए उनका अर्ध-खानाबदोश समुदाय मौसम की मार से और भी ज़्यादा प्रभावित है। वे कहते हैं, ‘‘जब आप मेरा गांव देखेंगे, तो आपको समझ में आ जाएगा।’’

चूरू के खबरपुरा गांव में उनके भाई धरमपाल ने भीषण गर्मी के दौरान झेली जाने वाली कठोर परिस्थितियों को रेखांकित किया। उन्होंने दिखाया कि एक अच्छे घर की जगह, चार बिना प्लास्टर की दीवारों पर एस्बेस्टस की छत टिकी हुई है। बिजली का कनेक्शन नहीं है, इसलिए पंखा भी नहीं है।

गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर और पश्चिमी राजस्थान के मूल निवासी सुमित डूकिया कहते हैं कि राज्य का पुराना सामाजिक ताना-बाना कभी कई भूमिहीन समुदायों का समर्थन करता था, जो प्राचीन कला को जीवित रखते थे। भोपा उनमें से एक थे।

उन्होंने कहा, ‘‘उस समय, धनी ज़मींदार इन कलाकारों को संरक्षण देते थे। आज, वह समर्थन खत्म हो गया है। कृषि भूमि के बिना, भोपा को जीवित रहने के लिए अपने गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है।’’

भाषा धीरज दिलीप प्रशांत

प्रशांत

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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