मुंबई, छह मार्च (भाषा) बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा है कि श्रमजीवी पत्रकार ‘महाराष्ट्र मजदूर संगठनों की मान्यता और अनुचित श्रम प्रथाओं की रोकथाम (एमआरटीयू व पीयूएलपी) अधिनियम’ के तहत कर्मचारियों की परिभाषा में नहीं आते हैं, क्योंकि उन्हें एक विशेष दर्जा प्राप्त है।
न्यायमूर्ति नितिन जामदार और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की खंडपीठ ने 29 फरवरी के अपने आदेश में कहा कि नतीजतन, एमआरटीयू व पीयूएलपी अधिनियम के तहत एक श्रमजीवी पत्रकार द्वारा दायर की गई शिकायत एक औद्योगिक अदालत के समक्ष सुनवाई योग्य नहीं होगी।
खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि पत्रकारों को श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक विशेष दर्जा प्राप्त है। इसलिए वह एमआरटीयू और पीयूएलपी अधिनियम के बजाय औद्योगिक विवाद अधिनियम के माध्यम से अपने विवादों का निपटारा करा सकते हैं।
यह निर्णय उच्च न्यायालय के एकल पीठ द्वारा खंडपीठ के पास भेजा गया था। एकल पीठ ने पाया था कि एमआरटीयू और पीयूएलपी अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए श्रमजीवी पत्रकारों को कर्मचारी या कामगार माने जाने के संबंध में विरोधाभासी निर्णय थे।
यह फैसला दो श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा अपने संबंधित अखबार प्रतिष्ठानों के खिलाफ दायर दो याचिकाओं पर पारित किया गया था। याचिकाकर्ताओं में से एक को उसके अखबार मालिक ने बर्खास्त कर दिया था जबकि दूसरे का तबादला कर दिया गया था।
उच्च न्यायालय ने श्रमजीवी पत्रकार अधिनियन, एमआरटीयू और पीयूएलपी अधिनियम को ध्यान में रखते हुए दोनों श्रमजीवी पत्रकार और अखबार प्रतिष्ठानों की दलीलों पर विचार किया।
उच्च न्यायालय ने विचार करने के बाद अंतत: श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के तहत श्रमजीवी पत्रकारों को दिए गए विशेषाधिकारों को बरकरार रखा और उनके विवादों को औद्योगिक विवाद अधिनियम में उल्लेखित प्रावधानों के अनुसार निपटारा करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
पीठ ने कहा कि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम, 1955 ने पहले ही औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत विवाद समाधान के लिए एक तंत्र स्थापित कर दिया है।
उच्च न्यायालय इस बात पर गौर कर रहा था कि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के विशेष प्रावधानों के तहत आने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को एमआरटीयू और पीयूएलपी अधिनियम के तहत कर्मचारी माना जा सकता है या नहीं। यह संबंधित अधिनियम एक कर्मचारी को एक कामगार के रूप में परिभाषित करता है।
अदालत ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के तहत उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त है और वे एक अलग वर्ग में आते हैं।
उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘अगर श्रमजीवी पत्रकार और कामगार के बीच कोई अंतर नहीं है तो ऐसा नहीं हो सकता कि श्रमजीवी पत्रकारों के पास विशेषाधिकार हों, जबकि गैर-श्रमजीवी पत्रकारों सहित अन्य कामगारों को इससे वंचित रखा जाए।”
उच्च न्यायालय ने कहा कि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम श्रमजीवी पत्रकारों को एक विशेष दर्जा देता है। इसने कहा कि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम को श्रमजीवी पत्रकारों को एक विशेष दर्जा प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था, इसलिए विवादों को औद्योगिक विवाद अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार निपटाया जाना चाहिए।
उचित आदेश पारित करने के लिए मामले को वापस एकल पीठ के पास भेज दिया गया है।
दरअसल, उच्च न्यायालय दो श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था। दरअसल, दो श्रमजीवी पत्रकारों ने उच्च न्यायालय में दायर याचिका में 2019 में औद्योगिक अदालत के आदेशों को चुनौती दी थी। औद्योगिक अदालतों ने श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा दायर शिकायतों को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि श्रमजीवी पत्रकार अनुचित श्रम प्रथाओं की रोकथाम अधिनियम के तहत कर्मचारी या कामगार के दायरे में नहीं आते हैं।
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प्रीति सुरेश
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