देहरादून: देहरादून के व्यस्त बल्लूपुर फ्लाईओवर के पास मुख्य सड़क से कुछ ही दूरी पर साधारण-सी इमारतों का एक परिसर नजर आता है जो देश के कुछ सबसे अनूठे शोध कार्यों के लिए ख्यात है. लाखों साल पहले पाए जाने वाले पौधों और जानवरों के जीवाश्मों से लेकर पृथ्वी की सतह के नीचे बहुत गहराई में स्थित चट्टानों से मिलने वाले अनमोल खनिजों तक, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी 5 करोड़ साल पहले यूरेशियाई प्लेट से टक्कर के कारण बने भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र के गहन शोध के लिए समर्पित है.
सबसे अहम बात यह है कि बेहद नाजुक माने जाने वाले हिमालयी क्षेत्र में जब भी कोई आपदा आती है, तो यहां के वैज्ञानिक सबसे पहले मौके पर पहुंचते हैं ताकि अपनी विशेषज्ञता और पूर्वानुमान की क्षमता के बलबूते भविष्य के जोखिमों का आकलन कर सकें.
जोशीमठ में जमीन दरकने की घटना इससे इतर नहीं है. पिछले दो हफ्तों से संस्थान के वैज्ञानिक अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि भूमि दरकने के गंभीर संकट का सामना कर रहे शहर के बाकी हिस्सों को बचाने की कोशिश कर सकें.
हिमालयी क्षेत्र में ऐसे हालात से निपटने की विशेषज्ञता ने ही वाडिया इंस्टीट्यूट को एक खास दर्जा प्रदान कर रखा है. यह दुनिया का एकमात्र ऐसा शोध संस्थान है जो पूरी तरह से पृथ्वी पर सबसे कम उम्र वाली पर्वत श्रृंखला हिमालय की चट्टानों और अवशेषों के अध्ययन पर केंद्रित है.
संस्थान के फैकल्टी सदस्यों और छात्रों ने दिप्रिंट को बताया कि चूंकि हिमालय अभी विकसित ही हो रहा है, तमाम प्राकृतिक रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए लगातार अध्ययन के मौके बने हुए हैं.
पेट्रोलॉजी, जियोकेमिस्ट्री और जियोडायनामिक्स में विशेषज्ञता रखने वाले संस्थान के एक पोस्टडॉक्टरल स्कॉलर शैलेंद्र पुंडीर कहते हैं, ‘मैं ट्रांस हिमालयन क्षेत्र पर अपना शोध करना चाहता हूं, ऐसे में मेरे लिए यही सबसे उपयुक्त जगहों में से एक है. हिमालय अभी बढ़ रहा है और प्लेटें अभी भी टकरा रही हैं, यही कारण है कि हम यहां कई नई खोजों की उम्मीद कर रहा हूं.’
लेकिन केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के तहत एक स्वायत्त संस्थान के तौर पर इसे कुछ बाध्यताओं के साथ काम करना पड़ता है. नियमित कामकाज में लालफीताशाही हावी है. जोशीमठ में भूमि दरकने की घटना पर कोई चर्चा न करने संबंधी अलिखित आदेश का संस्थान ने काफी अच्छी तरह पालन किया है, और इसके मौजूदा निदेशक, कालाचंद सैन कई बार फोन, ईमेल और निजी स्तर पर संपर्क की कोशिशों के बावजूद प्रतिक्रिया के लिए उपलब्ध नहीं रहे.
ऐसे समय में जबकि जलवायु परिवर्तन काफी तेजी से बढ़ा है और खासकर हिमालयी क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है, राष्ट्रीय सरकारी निकायों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के बीच भी संस्थान के शोध कार्यों की मांग बढ़ी है.
संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक कौशिक सेन ने दिप्रिंट को समझाते हुए कहा, ‘हिमालयी भूविज्ञान का अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि उपमहाद्वीप का जल बजट पर इसी पर केंद्रित है और यह काफी हद तक मानसून को निर्धारित करता है. यह तीसरे ध्रुव पर स्थित है, और भूकंप के लिहाज से दुनिया में सबसे सक्रिय क्षेत्रों में से एक है. हमारा शोध न केवल हिमालयी क्षेत्र के मौलिक विज्ञान के लिहाज से बेहद अहम है बल्कि समाज और जनजीवन पर भी इसका खासा प्रभाव होता है.’
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एक अलग ही तरह की संस्था
पूरी गंभीरता के साथ शोध जारी रखने के इच्छुक भारत के युवा भूवैज्ञानिकों के पास अपनी पीएचडी पूरी करने के बाद अधिक विकल्प नहीं होते हैं. भूविज्ञान में अनुसंधान करने वाले अन्य संस्थानों में सीएसआईआर के राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान, भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान, आईआईटी (आईएसएम) धनबाद, आईआईटी खड़गपुर और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसे केंद्रीय संस्थान शामिल हैं.
लेकिन पूरी तरह हिमालयी भूविज्ञान पर ध्यान केंद्रित करने और विशुद्ध रूप से अनुसंधान आगे बढ़ाने का मौका देने के कारण वाडिया इंस्टीट्यूट बेहद लोकप्रिय बना हुआ है.
इस संस्थान से अपनी पीएचडी पूरी करने वाले एक पोस्ट डॉक्टोरल फेलो शुभम चौधरी कहते हैं, ‘वाडिया इंस्टीट्यूट एक बड़ा नाम है और पीएचडी या किसी शोध सहायक के तौर पर यहां किसी प्रोग्राम में शामिल होना हमेशा आसान नहीं होता है.’ राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा में 38वां स्थान हासिल करके अकादमिक क्षेत्र में लौटने से पहले चौधरी ने कुछ समय के लिए एक वाणिज्यिक तेल कंपनी के लिए काम किया था.
उन्होंने कहा, ‘मैं यहां वापस आना चाहता था क्योंकि यह जानता था कि मुझे बिना किसी बाधा अपना शोध आगे बढ़ाने की आजादी मिलेगी. मैं प्रयोगशाला में रात-दिन कभी भी काम कर सकता हूं. यदि आप अपने काम के लिए पूरी तरह समर्पित हैं तो इस तरह सीखने का माहौल आदर्श स्थिति है.’
संस्थान वैसे तो जगह के लिहाज से थोड़ा छोटा है लेकिन यहां के कॉरिडोर में अध्ययनशीलता से भरा माहौल साफ नजर आता है. संस्थान मुख्य तौर पर आठ क्षेत्रों में फोकस करता है जिसमें भू-रसायन, भूभौतिकी, सेडिमेंटोलॉजी और ग्लेशियोलॉजी शामिल हैं और इनमें से हर एक के लिए अपनी लैब है.
परिसर की सबसे नई संपत्तियों में एक मास प्लाज़्मा स्पेक्ट्रोमीटर शामिल है. यह एक ऐसा उपकरण है जो भू-रसायन विज्ञान में उपयोग होने वाले समस्थानिक अनुपातों को मापता है.
कई शोध सहायकों और युवा वैज्ञानिकों ने दिप्रिंट को बताया कि वाडिया संस्थान में काम करना एक आकर्षक अनुभव था क्योंकि इसमें एक ही छत के नीचे अध्ययन से जुड़ी सभी आवश्यक सुविधाएं हासिल हैं.
आज, संस्थान में 55 स्थायी वैज्ञानिक कार्यरत हैं जिनकी मदद के लिए दर्जनों पीएच.डी. स्कॉलर और रिसर्च फेलो मौजूद हैं. 2003 के बाद इस संस्थान ने अपनी शैक्षणिक गतिविधियों में अधिक से अधिक युवाओं को शामिल करने को अपनी प्राथमिकता बना लिया, जब तत्कालीन निदेशक बलदेव आर. अरोड़ा ने महसूस किया कि वैज्ञानिकों की औसत आयु 50 वर्ष से अधिक है.
उन्होंने दिप्रिंट को फोन पर बताया, ‘हमने संस्थान में युवा स्कॉलर को शामिल करने की एक योजना शुरू की और अब उनकी संख्या 60 से ऊपर हो गई है.’ अरोड़ा ने 2003 से 2009 तक छह वर्षों के लिए संस्थान के निदेशक के रूप में कार्य किया था.
भले ही यह संस्थान भारत में एक खास अहमियत रखता हो, लेकिन राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक शीर्ष शोध संस्थान नहीं बन पाया है. रैंकिंग वेब ऑफ वर्ल्ड रिसर्च सेंटर्स के मुताबिक, वाडिया इंस्टीट्यूट भारत के 297 अनुसंधान संस्थानों में 84वें स्थान पर आता है और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान और राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला से पीछे है. दुनिया में यह 1773वें स्थान पर है.
लैब उपकरणों का अपग्रेडेशन भी हमेशा अपेक्षित गति के साथ नहीं हो पाता है. भू-रसायन विभाग की स्पेक्ट्रो लैब में एक काफी पुराने समय का कंप्यूटर नजर आता है, जहां विभिन्न तत्वों के बारे में पता लगाने के लिए चट्टानों को तरलीकृत किया जाता है. भू-रसायन विभाग में 2003 में खरीदी गई एक मशीन को सबसे ज्यादा कारगर माना जाता है.
2020 में संस्थान में शामिल हुए एक वैज्ञानिक मुतुम रजनीकांत सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘इस विभाग की तरफ से बहुत सारे पर्यावरण परीक्षण किए जाते हैं, इसलिए यह मशीन अत्यंत उपयोगी है. यह काम तो करती है लेकिन किसी नई मशीन जितनी कुशल नहीं है. हमने एक नई मशीन ऑर्डर की है, जो कुछ महीनों में आ जाएगी.’
उन्होंने दावा किया कि उपकरणों को बदलने की प्रक्रिया धीमी है, लेकिन असुविधाजनक नहीं है.
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दाराशॉ नौर्शेरवान वाडिया—एक अग्रणी भूविज्ञानी
संस्थान की स्थापना 1968 में दाराशॉ नौर्शेरवान वाडिया ने की थी जो एक जोशीले भूविज्ञानी थे. वाडिया ने सीलोन (अब श्रीलंका) में खनिजों से लेकर स्विट्जरलैंड में अल्पाइन जियोलॉजी तक—विभिन्न भूगर्भीय घटनाओं के बारे में अध्ययन के लिए दुनियाभर की यात्रा की थी. इस विषय में उनकी रुचि ऐसे समय उपजी थी जबकि इसे अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों में औपचारिक तौर पर पढ़ाया भी नहीं जाता था, और उपलब्ध जानकारी से यह भी पता चलता है कि उन्होंने काफी कुछ स्वाध्याय से ही पढ़ा-सीखा था.
उन्हें 1921 में 38 साल की उम्र में भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में सहायक अधीक्षक नियुक्त किया गया, और तेजी से आगे बढ़ते हुए वह 1944 में केंद्र सरकार के भूवैज्ञानिक सलाहकार बन गए. 1969 में अपनी मृत्यु से पहले कई पदों पर रहे वाडिया परमाणु ऊर्जा आयोग के खनिज प्रभाग के लिए निदेशक भी रहे थे.
रिकॉर्ड के मुताबिक, जम्मू में एक युवा शिक्षक के तौर पर कई साल बिताने वाले वाडिया का हिमालय के प्रति जबर्दस्त आकर्षण था. यही वजह है कि 1963 में उन्होंने प्रस्ताव रखा कि हिमालय के अध्ययन के लिए समर्पित एक संस्थान की स्थापना की जाए. वाडिया की मृत्यु से एक साल पहले 1968 में सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ द हिमालयन जियोलॉजी आखिरकार अस्तित्व में आया, जिसका नाम बाद में उनके सम्मान में बदलकर वाडिया इंस्टीट्यूट कर दिया गया.
संस्थान के संग्रहालय में कभी पृथ्वी पर विचरण करने वाले जिराफों और हाथियों के जीवाश्मों के साथ-साथ वाडिया के लेखों और हिमालयन रेंज की उनकी यात्रा से जुड़े चित्रों को भी प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है.
संग्रहालय परिसर के सबसे दिलचस्प हिस्सों में से एक है, जो हिमालय की उत्पत्ति और विकासक्रम को दर्शाता है. और आगंतुकों को उन नमूनों को करीब दिखाता है जिनकी वैसे अनदेखी कर दी जाती है. सैकड़ों लोग—जिनमें ज्यादातर छात्र और भूवैज्ञानिक होते हैं—हर वर्ष संग्रहालय का दौरा करते हैं, और इसकी लॉगबुक में अपनी टिप्पणियां लिखते हैं.
प्रदर्शित कलाकृतियों में अन्य चीजों में ज्वालामुखी की राख, एक होमो इरेक्टस की खोपड़ी (शुरुआती मानव प्रजातियों में से), पेड़ों की जीवाश्म छाल, और प्रागैतिहासिक काल के सेडिमेंट शामिल हैं.
विकास में पीछे, ‘मौलिक शोध’ से हटे
हालांकि, इसके वैज्ञानिक लंबे समय से हिमालय के नाजुक स्थिति में होने को लेकर आगाह करते रहे हैं लेकिन तमाम विशेषज्ञ राज्य और केंद्र सरकारों का ध्यान आकर्षित करने में संस्थान की अक्षमता की आलोचना करते हैं. व्यापक स्तर पर सरकार की तरफ से वित्त पोषित एक स्वायत्त संस्थान के नाते यह अपनी विशेषज्ञता के मामले में अक्सर अकादमिक अनुसंधान करने और सरकारी परियोजनाओं और अदालत के निर्देश पर नियुक्त समितियों को सेवाएं देने के बीच बंटा रहता है.
उदाहरण के तौर पर, हिमालयन क्षेत्र में लगातार बड़ी विकास परियोजनाएं और अनियोजित टाउनशिप फल-फूल रही हैं जबकि व्यापक अध्ययनों में बताया गया है कि यह सब इस क्षेत्र के लिए कितने हानिकारक हो सकते हैं.
पूर्व निदेशक अरोड़ा ने दिप्रिंट को बताया, ‘जब मैं निदेशक था, हमने एक अध्ययन किया जिसमें बताया गया कि 500 से अधिक लोगों को एक समय में बद्रीनाथ मंदिर में नहीं पहुंचना चाहिए क्योंकि इससे पर्यावरण के लिहाज से बहुत तनाव पैदा होगा. सरकार ने उस समय तो इस बात को मान लिया था, और कुछ दिशानिर्देशों का मसौदा तैयार किया था. लेकिन मुझे नहीं पता कि अब क्या हुआ है.’
मूलत: नॉलेज बेस बढ़ाने और सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले संस्थान का ध्यान धीरे-धीरे मौलिक शोध से हटने और वरिष्ठ स्तर पर प्रशासनिक अवसरों की कमी का ही नतीजा है कि प्रदीप श्रीवास्तव—जो अब आईआईटी रुड़की में एक एसोसिएट प्रोफेसर हैं, ने 16 साल से अधिक समय तक वाडिया संस्थान को सेवाएं देने के बाद 2021 में इसे छोड़ने का फैसला किया.
2007 में भू-आकृति विज्ञान अनुसंधान में उत्कृष्टता के लिए जी.के. गिल्बर्ट पुरस्कार जीतने वाले श्रीवास्तव ने दिप्रिंट को बताया, ‘वाडिया जैसे छोटे संस्थान में सब कुछ निदेशक के माध्यम से होता है, और निदेशक डीएसटी के सचिव के अधीन आते हैं. करियर शुरू करने के लिए तो यह एक अच्छी जगह है क्योंकि उनके पास हर वह सुविधा है जिसकी आपको आवश्यकता हो सकती है. लेकिन मेरे स्तर तक आकर कोई भी संगठन के भीतर लैटरल मूवमेंट की संभावनाएं तलाशना शुरू करेगा. वाडिया में, इसके लिए गुंजाइश बहुत सीमित थी.’
श्रीवास्तव ने कहा कि यहां आगे बढ़ने की संभावनाएं सीमित थी. उन्होंने कहा, ‘सरकार की कुछ बाध्यताएं हो सकती हैं, लेकिन हम शिक्षाविद हैं. हम किसी नीति या राजनीतिक परिदृश्य के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते. यह निश्चित तौर पर कोई खराब बात नहीं है, लेकिन इसकी वजह से यदि मौलिक शोध पिछड़ जाता है, और यदि शोध किसी तरह की शर्तों के साथ होता है, तो इससे अकादमिक गतिविधियां सीमित हो जाती हैं.’
वरिष्ठ वैज्ञानिक सेन यह स्वीकारते हैं कि संस्थान कहीं न कहीं फंडामेंटल साइंस और अनुप्रयुक्त अनुसंधान के मामले में धीरे-धीरे पिछड़ गया है. अनुप्रयुक्त अनुसंधान वैज्ञानिक परीक्षण में समस्या-समाधान के पहलू पर केंद्रित होता है. लेकिन उनके मुताबिक, इसमें और विविधता बढ़ना एक स्वागत योग्य बदलाव है. संस्थान नए शोध के मामले में भूस्खलन के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करने और ग्लेशियरों को पिघलने पर बारीकी से नजर रखने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, जो दोनों ही जलवायु परिवर्तन पर प्रतिकूल असर डालने वाली घटनाएं हैं.
उन्होंने कहा, ‘पहले हम भूविज्ञान और भूभौतिकी पर ध्यान केंद्रित करते थे, लेकिन अब हमारे पास पर्यावरण विज्ञान सहित विभिन्न विषयों के छात्र हैं. इस विविधता ने हमारे कुछ निष्कर्षों को भी मजबूत करने में मदद की है.’
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(संपादन: अलमिना खातून)
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