महाराष्ट्र के यवतमाल स्थित आदिवासी हलके में रहने वाले सुभाष शंकर कसडेकर शेवनिंग, इरास्मस, डीएएडी, फेलिक्स और कॉमनवेल्थ जैसी अंतरराष्ट्रीय फेलोशिप और छात्रवृत्ति को पाने में सफल होने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं.
मेलघाट में घने जंगलों से घिरे सिमोरी गांव की कोरकू जनजाति के एक युवक के लिए यह एक दुर्लभ स्वपन जैसा है. हकीकत में वह अपने गांव के पहले कॉलेज ग्रेजुएट हैं.
एक अस्थायी मिट्टी की दीवार वाले स्कूल में लगभग किसी तरह की पठन सामग्री न होने के वावजूद भीड़भाड़ वाली कक्षाओं को याद करते हुए यवतमाल के सावित्री ज्योतिराव कॉलेज ऑफ सोशल वर्क से सामाजिक कार्य में स्नातक की उपाधि वाले कसडेकर कहते हैं, ‘यह बहुत समय पहले की बात नहीं है, जब मैं अपने गांव में मोबाइल नेटवर्क तलाशने के लिए पेड़ों पर चढ़ने के साथ संघर्ष करता था.’
लेकिन अब से चार साल पहले, वह उस एकलव्य इंडिया फाउंडेशन का हिस्सा बन गए, जो महाराष्ट्र में हाशिए पर रहने वाले समुदायों के छात्रों को भारत के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों, जैसे कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस), अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और गांधी अनुसंधान फाउंडेशन आदि, में पढ़ने में मदद करता है. साल 2017 के बाद से, 300 से अधिक छात्रों ने उनकी योग्यता, सामान्य ज्ञान, अंग्रेजी और व्यक्तित्व विकास के लिए चार महीने का कठोर प्रशिक्षण लिया है, जो उन्हें चुनिंदा विश्वविद्यालयों की प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार में सफलता पाने में मदद करता है.
इस साल, एक खानाबदोश जनजाति से ताल्लुक रखने वाले राजू केंद्रे द्वारा शुरू किये गए फाउंडेशन ने अपने छात्रों के लिए ‘ग्लोबल स्कॉलर्स प्रोग्राम’ के साथ एक बड़ा वैश्विक लक्ष्य निर्धारित किया है. यह उन्हें ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस), लंदन यूनिवर्सिटी और डरहम यूनिवर्सिटी, LSE, UCL, KCL जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भेजना चाहता है.
कासडेकर ने स्वयं यवतमाल में स्थित कॉलेज की डिग्री हासिल करने के लिए मेलघाट क्षेत्र के आने वाले अपने गांव से 250 किलोमीटर की यात्रा की थी. उन्होंने अपनी इस ‘खोज’ के बारे में कहा, ‘मेलघाट के बाहर एक अलग दुनिया है. लेकिन अब मैं भारत से बाहर यात्रा करना चाहता हूं और अपने गांव और क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं जो कि मानचित्र पर तलाशे जाने लायक भी नहीं है.’
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कक्षाएं संचालित करने की चुनौती
इस साल जून में, इस संगठन ने वर्धा, महाराष्ट्र में ग्लोबल स्कॉलर्स प्रोग्राम पर एक तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया था. आंध्र प्रदेश, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, असम और तमिलनाडु जैसे राज्यों के 70 से अधिक छात्रों ने इसमें भाग लिया.
लेकिन वैश्विक संस्थानों की राह एक कठिन लड़ाई है, खासकर कमजोर समुदायों से आने वाले छात्रों के लिए. वैश्विक स्तर पर प्रतिनिधित्व और विविधता की कमी को देखते हुए केंद्रे को इस कार्यक्रम को शुरू करने के लिए विवश होना पड़ा. फिलहाल वह लंदन की जानी-मानी एसओएएस यूनिवर्सिटी में अपनी दूसरी मास्टर्स डिग्री (स्नातकोत्तर की उपाधि) के लिए पढ़ रहे हैं, जहां उन्होंने प्रतिष्ठित शेवनिंग छात्रवृत्ति के माध्यम से प्रवेश प्राप्त किया था.
एक कड़ी स्क्रीनिंग प्रक्रिया के बाद, वर्धा में हुई कार्यशाला में भाग लेने वाले 70 से अधिक छात्रों को विषयगत क्षेत्रों में एक वर्ष तक के लिए परामर्श प्रदान किया जाएगा. इन संस्थानों के लिए आवेदनों की महती प्रक्रिया भी इस परामर्श प्रक्रिया का एक हिस्सा है.
24 वर्षीय स्मिता ततेवार, जो 2019 में एकलव्य के सबसे प्रथम बैच का हिस्सा थीं और अब उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने की इच्छा रखती हैं, का कहना है, ‘परामर्श के लिए इच्छुक प्रत्येक छात्र को एक मेंटर (गुरु) दिया जाता है जो उन्हें एसओपी (स्टेटमेंट ऑफ पर्पस) लिखने, रिज्यूमे तैयार करने और छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करने सहित उनके सामने जो भी चुनौतियां आ सकती हैं उनसे पार पाने के लिए उनका मार्गदर्शन करता है.’
फाउंडेशन की मेंटरिंग (परामर्श की प्रक्रिया) काफी जल्द, यानि कि स्कूल जाने वाले छात्रों के साथ ही शुरू होती है. इस दौरान पहला कदम गांव के छात्रों को एक नई संभावना पर विचार करने की पेशकश करना और उन्हें खुद को बंधी-बंधाई सीमाओं से मुक्त करने के लिए प्रेरित करना होता है.
कोलम समुदाय का 17 वर्षीय आदिवासी छात्र सुशांत रमेश अतराम यवतमाल से 60 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव बग्गी में 10वीं तक की पढ़ाई बड़े आराम के साथ कर रहा था. लेकिन उसके पास उसके आगे के करियर के लिए कोई योजना नहीं थी. एकलव्य में दाखिला लेने के बाद यह एकदम से बदल गया.
इंजीनियरिंग की संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जॉइंट एंट्रेंस एग्जाम-जेईई) के लिए तैयारी की किताबों से भरी अपनी अलमारी के पीछे बैठे हुए अतराम ने कहा, ‘मैं कोडिंग और हैकिंग सीखना चाहता हूं.’ इस दौरान उसके सभी कपड़े कमरे के एक कोने में एक रस्सी पर लटके हुए थे. अभी उसके जीवन के ‘विजन बोर्ड’ में आईआईटी ही है.
एक दिवसीय कार्यशाला की सीरीज के बाद प्रतिवर्ष नवंबर से फरवरी तक आयोजित होने वाली कक्षाओं में विद्यार्थियों का नामांकन किया जाता है. रीडिंग कॉम्प्रिहेंशन, सामान्य ज्ञान और एप्टीट्यूड के अलावा, छात्रों को वाद-विवाद और प्रस्तुतीकरण देने जैसी प्रतिस्पर्धी गतिविधियों के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है. एकलव्य में स्नातक स्तरीय कार्यक्रम का समन्वय करने वाले आकाश धनपाल मोदक ने कहा, ‘एक सूत्रधार अक्सर एक मुद्दा उठाता है और छात्रों को अपनी राय देने के लिए प्रोत्साहित करता है.’
मोदक भी उसी रास्ते पर चल चुके हैं, जिस पर उनके कई छात्र चलेंगे लेकिन उनका अपना सफर अभी खत्म नहीं हुआ है. भीमराव आंबेडकर के समुदाय से ही ताल्लुक रखने वाले मोदक भी एक वैश्विक छात्र बनने के इच्छुक हैं.
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रटने वाली पढ़ाई के लिए कोई जगह नहीं
एकलव्य में, छात्रों को अपनी राय व्यक्त करने और पाठ्यपुस्तकों के अत्याचार से मुक्त होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
एक छात्रा कहती है, ‘गुड मॉर्निंग मैडम,’ पर केवल एक सेकंड बाद उसे महसूस होता है कि अब शाम हो गई है. वह तुरत ही अपनी भूल को सुधार लेती है. मॉडरेटर राम्या, जो स्नातकोत्तर के पढ़ाई के लिए इच्छुक छात्रों के लिए अंग्रेजी भाषा की सहायता कक्षा का संचालन कर रही हैं, इस नादानी भरी गलती को पकड़ने के साथ ही मुस्कुरा देती हैं.
और अधिक छात्रों के कक्षा में शामिल होने की प्रतीक्षा करती हुई राम्या वहां पहले से उपस्थित छात्रों से संक्षेप में यह बताने को कहती है कि उन्होंने पिछले सत्र में क्या कुछ सीखा था. कुछ मिनटों के मौन और राम्या द्वारा और जोर दिए जाने के बाद एक युवा छात्रा, श्रीदेवी, हिचकिचाते हुए अंग्रेजी में जवाब देती है, ‘ईट वाज रिगार्डिंग वोकैबुलरी टेक्निक्स.’ वह अपने जवाब के प्रति हामी भरने के लिए राम्या द्वारा अपना सिर हिलाने की प्रतीक्षा करती है और इस बार और अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते हुए कहती है, ‘आपने कुछ मूल शब्द चुनने और फिर प्रत्येक को सकारात्मक या नकारात्मक के रूप में पहचानने के लिए कहा था.’ राम्या द्वारा उसके प्रयास की सराहना किये जाने के साथ ही श्रीदेवी राहत की सांस लेती है.
इसके बाद राम्या अपना ध्यान बाकी कक्षा की ओर करती हैं. वह जानना चाहती हैं कि क्या वे आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे हैं. कुछ छात्र इधर-उधर नजरें घुमाते हैं और आंखों के सीधे संपर्क से बचते नजर आते हैं. फिर सुनील आगे आते हुए कहता है, ‘मैं और एकलव्य हाउस में रहने वाले मेरे कुछ दोस्त एक-दूसरे से अंग्रेजी में बातचीत करते हैं और यह काफी मजेदार है.’
धीरे-धीरे, अन्य छात्र भी बातचीत में शामिल होते हैं और अपने अनुभव साझा करते हैं. नागनाथ, जो पिछल तीन महीने से अंग्रेजी बोलचाल (स्पोकन इंग्लिश) सीखने की कोशिश कर रहा है, कहता है, ‘यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है. मैं निश्चित रूप से एक साल में अंग्रेजी में बातचीत करना सीख जाऊंगा.’
राम्या छात्रों को याद दिलाती है कि अंग्रेजी ‘कोई चांद पर बोली जाने वाली भाषा नहीं है.’ उनकी अपनी मातृभाषा तमिल है और वह नई भाषा सीखने के अपने अनुभव साझा करती है. और इसके साथ ही सबके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, वे अपने किस्से साझा करने लगते हैं.
ऑफलाइन कक्षाएं और कार्यशालाएं सावित्री ज्योतिराव कॉलेज ऑफ सोशल वर्क- एक संस्था जो एकलव्य के लिए एक भर्ती शिविर में बदल गई है- के पुराने परिसर में आयोजित की जाती हैं.
यवतमाल में प्रकृति की गोद में बसे, इस संस्थान को हाल ही में राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नेशनल असेसमेंट एंड एकक्रेडीटेशन काउंसिल- एनएएसी) से ग्रेड ‘ए’ की मान्यता मिली है. यह केवल स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम प्रदान करता है और प्रिंसिपल डॉ अविनाश विनायकराव शिर्के के अनुसार यह एक सोचा-समझा विकल्प है. वे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि मेरे छात्र बड़ा लक्ष्य बनाएं और ऊंची उड़ान भरें. उन्हें सिर्फ यवतमाल तक ही सीमित क्यों रखें?’
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मेलघाट: एकलव्य के पीछे की प्रेरणा
विदर्भ आमतौर पर कृषि संकट और किसानों की आत्महत्या के लिए राष्ट्रीय सुर्खियों में रहता है. यह हर दिन नहीं होता कि विदर्भ के गांवों से आने वाले युवा लंबी छलांग लगाकर कुछ बड़ा कर जाते हैं. कासडेकर, जो इस महीने अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं, अपने समुदाय के युवा सदस्यों के लिए आशा की किरण बनने की उम्मीद करते हैं.
यवतमाल से 250 किमी से अधिक दूरी पर स्थित मेलघाट इलाका- जिसमें 300 से अधिक आदिवासी गांव बसे हैं- अपनी कुपोषित आबादी के लिए बदनाम है और बुनियादी सुविधाओं तथा प्राथमिक स्तर के बुनियादी ढांचे से भी वंचित है.
कसडेकर ने कहा, ‘चार साल पहले इस इलाके में एक जियो टावर लगाया गया था लेकिन यह अभी भी चालू नहीं किया गया है. मोबाइल फोन पर एक टेक्स्ट मैसेज को डिलीवर होने में आमतौर पर दो से तीन दिन लग जाते हैं. अगर हमें यवतमाल जाना होता है, तो इस मार्ग पर सिर्फ एक बस है. यदि आप उसमें चढ़ने से चूक गए, तो आप एक और दिन के लिए यहीं रुके रहेंगे.’
मेलघाट की इसी दयनीय स्थिति ने ही केंद्रे को एकलव्य शुरू करने के लिए प्रेरित किया.
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‘वास्तविक’ चुनौतियों की पहचान करना
पिछले कुछ वर्षों में, बाईजूस और अनएकेडमी जैसे कई शैक्षिक मंच शिक्षा के ऑफलाइन मोड के विकल्प के रूप में उभरे हैं, मगर जैसा कि केंद्रे सवाल करते हैं, ‘कोई आदिवासी बच्चा इन सेवाओं का लाभ कैसे उठाएगा?’
हालांकि एकलव्य छात्रों को अपने पैरों पर खड़े होने और अकादमिक उत्कृष्टता को लक्ष्य बनाने में मदद कर सकता है, मगर परिवेश में आया तत्काल परिवर्तन और प्रतिष्ठित संस्थानों में जाने के बाद अपने आप को बचाये रखना कई लोगों के लिए काफी कठिन होता है.
राधिका लक्ष्मण टाक, जिन्होंने टिस में अपने मिड-सेमेस्टर ब्रेक के दौरान साल 2020 में एकलव्य के साथ इंटर्नशिप की थी, मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशेषज्ञता रखती हैं और वर्तमान में भोपाल में डिप्रेशन काउंसलर (अवसाद परामर्शदाता) के रूप में काम कर रही हैं. मेंटर-मेंटी संबंधों से परे, टाक लगातार चेक-इन कॉल (हाल चाल जानने के लिए किये गए फोन) के माध्यम से प्रत्येक छात्र के संपर्क में रहती हैं.
वह अपने सबसे ‘प्रतिभाशाली छात्रों’ में से एक को याद करती हैं, जिसने सभी पीजी प्रवेश परीक्षाओं और फेलोशिप के लिए किये गए आवेदन में सफलता प्राप्त कर ली थी. लेकिन ‘असली चुनौती’ तब शुरू हुई जब उसने टिस, हैदराबाद में नामांकन करवाया. टाक, जिन्होंने उस छात्र को एक थेरेपिस्ट (मनोचिकित्सक) के साथ जुड़ने में मदद की थी, ने कहा, ‘उसे एक एडवांस्ड मास्टर कोर्स के दबाव के साथ तालमेल बिठाने में मुश्किल हो रही थी. शिक्षण की गति और भाषा उसके लिए तेजी से चुनौतीपूर्ण होती जा रही थी. यह उसके ग्रेड में भी परिलक्षित होता गया. उसमें अवसाद के लक्षण दिखने लगे.’
यवतमाल में तीन साल बिताना और एकलव्य की कक्षाओं में भाग लेना कोई खास बाधा नहीं है. यह प्रमुख संस्थानों में बिताया जाने वाला जीवन है जो जहां सांस्कृतिक परिवर्तन और शैक्षणिक दबाव छात्रों के स्वास्थ्य पर भारी असर डालते हैं.
वर्धा की एक खानाबदोश जनजाति से संबंध रखने वाली टाक कहती हैं, ‘उनके आर्थिक संघर्ष देखने में एक जैसे हो सकते हैं, लेकिन हर छात्र को अपनी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.’
बहुत कम धनराशि के साथ एक गैर-लाभकारी संगठन का संचालन करना एकलव्य और उसके संरक्षकों के लिए एक और निरंतर चलने वाला संघर्ष है. क्राउडफंडिंग और मेंटर्स की सद्भावना पर भरोसा करने के अलावा, संगठन के पास अक्सर अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कम या कभी-कभी तो कुछ भी नहीं, बचा होता है.
हालांकि, मोदक के अनुसार, गैर-लाभकारी क्षेत्र को बढ़ावा देने वाली (कैटेलिस्ट) बेंगलुरू स्थित संस्था, द नज इनक्यूबेटर, उनके संगठन के लिए एक ‘भगवान के वरदान’ की तरह रही है. इसने साल 2021 में एकलव्य को सीड फंडिंग (शुरुआती धनराशि) प्रदान की, जिससे इसे काफी अधिक मदद मिली है.
कभी-कभी, एक चेन रिएक्शन (एक के बाद एक होने वाली प्रतिक्रियाओं का क्रम) की शुरुआत करने के लिए केवल एक शख्स की आवश्यकता होती है. कलांब ब्लॉक की एक किशोरी शुभांगी भीमराव बोतारे ने अपने परिवार और अपने गांव की वह पहली महिला बनने की ठान ली थी, जो शिक्षा की खोज में राज्य से बाहर निकली हो. आज, गोवरी आदिवासी समुदाय की यह युवती अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरू से विकास अध्ययन (डेवलपमेंट स्टडीज) में एमए कर रही है.
उसके घर पर जैसे ही सूरज डूबता है, मोबाइल फोन के टॉर्च की रोशनी ही परसोड़ी गांव की तंग गलियों से निकलने वाली रोशनी की एकमात्र किरण होती है. एक ऐसी उम्र में जब ज्यादातर महिलाओं को शादी करने और घर बसाने के लिए राजी करवाया जाता है, शुभांगी की मां गुम्फा भीमराव इस बात पर अड़ी हैं कि उनकी तीन बेटियों को शिक्षा मिले.
उनकी दूसरी बेटी, श्रुति ने अपनी बहन के नक्शेकदम पर चलते हुए पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाई की. खुली हुई ईंट की दीवारों के साथ अपनी एक कमरे की झोंपड़ी में मंद रोशनी के तले बैठी हुई गुम्फा ने कहा, ‘मैं बड़ी शिद्दत से चाहती थी कि मेरी बेटियों का भविष्य मेरे से अलग हो.’
वह एक खेत में काम करने वाली दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपने कष्टदायी अनुभवों को याद करती है और यह वह भविष्य नहीं है जिसकी वह अपनी बेटियों के लिए कल्पना करती है.
उनकी सबसे छोटी बेटी, 17 साल की पूजा, चुपचाप एक कोने में खड़ी है और सभी की चाय खत्म होने का इंतजार कर रही है. वह शर्मीली नजर आ सकती है, लेकिन वह अच्छे से जानती है कि वह क्या करना चाहती है. उसने अपनी बहनों द्वारा नहीं अपनाई गयी राह का विकल्प चुना है, और कहती है : ‘मैं जेएनयू जाना चाहती हूं.’
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