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Friday, 8 November, 2024
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अंदर की कहानी: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए किन हालातों से गुजरते हैं सीआरपीएफ जवान

इस लोकसभा चुनाव की एक अनकही कहानी अर्द्धसैनिक बलों के जवानों द्वारा मतदान कराने के लिए की जाने वाली कष्टप्रद यात्राओं की है. कन्नूर से मुज़फ्फरपुर की ऐसी ही एक यात्रा में दिप्रिंट ने जवानों का साथ दिया.

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कन्नूर/मुज़फ्फरपुर: सीमा पार करने वाले सैनिक, मिग-21 का फाइटर पायलट पुलवामा में मारे गए अर्द्धसैनिक बल के जवान या फिर मुंबई शहर के बीचों बीच आतंकवादियों द्वारा गोलियों से भून डाला गया आईपीएस अधिकारी. ये सब लोकसभा चुनाव के तीखे मुकाबले के प्रमुख मुद्दे बन चुके हैं.

नरेंद्र मोदी सरकार को दोबारा लाने पर केंद्रित इस चुनाव अभियान में राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा हर तरफ मौजूद है. भारत के इतिहास में इससे पहले किसी अन्य चुनाव में ऐसा नहीं देखने को मिला था.

इस चुनावी विमर्श के मध्य में जवान हैं और जवानों पर ही ये सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है कि सात चरणों और 38 दिनों में संपन्न होने वाली दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया स्वतंत्र और निष्पक्ष रहे.

कन्नूर स्टेशन पर सीआरपीएफ के जवान मुजफ्फरपुर की चार दिवसीय यात्रा के लिए तैयार होते हुए । अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए मतदान के हर चरण में अर्द्धसैनिक बलों के हजारों जवानों को पूरे देश में तमिलनाडु से गुजरात, कर्नाटक से उत्तर प्रदेश और केरल से बिहार जैसी दूरियां तय करनी पड़ती है.

देश के एक कोने से दूसरे तक की इन यात्राओं के कष्टकारी अनुभवों की ज़्यादा जानकारी लोगों को नहीं है और ये कहानी भी अनकही है कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुरक्षित रखने में अर्द्धसैनिक बलों के आम जवानों को किन परिस्थितियों से गुजरना होता है.

दिप्रिंट ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) और रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) की ऐसी ही एक टुकड़ी के साथ केरल में कन्नूर से बिहार में मुज़फ्फरपुर तक की यात्रा की- छह राज्यों से गुजरते हुए चार दिनों में 2,500 किलोमीटर की दूरी तय की. इसका उद्देश्य था उस प्रयास का प्रत्यक्ष अनुभव रिकॉर्ड करना जिसका कि चुनावी बयानबाज़ी वाला वर्ग कल्पना तक नहीं कर सकता. इससे जुड़ी परेशानियों को कम करना तो दूर की बात है.

चित्रण : सोहम सेन के द्वारा

आरंभ में ही समस्या

पदकों से सजी वर्दी पहने सीआरपीएफ के डिप्टी कमांडेंट 46 वर्षीय राजेश डोगरा तीन फोनों और काम से जुड़े दर्जन भर कागज़ातों से जूझ रहे हैं.

एक तरफ वह फोन के कॉल उठा रहे हैं और नवीनतम सूचनाएं अपडेट कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर बेकरारी से अपनी फाइल में सूचनाएं भी अंकित कर रहे हैं.

डिप्टी कमांडेंट डोगरा विशेष ट्रेन संख्या 729 के प्रभारी अधिकारी हैं. यह ट्रेन उत्तरी केरल के कन्नूर से सीआरपीएफ और आरपीएफ के 977 जवानों को लेकर 2,500 किलोमीटर दूर मुज़फ्फरपुर, बिहार ले जा रही है.

जवान चुनावी ड्यूटी में लगाए गए हैं और उन्हें सात चरणों वाले लोकसभा चुनाव के अंतिम तीन चरणों में सुरक्षा सुनिश्चित करनी है. पर, डोगरा के दिमाग में कुछ और भी चल रहा है. यात्रा शुरू होने के आधा घंटा बाद ही स्पष्ट हो गया कि बात क्या है. उनके स्मार्टफोन पर वीडियो कॉल आता है. दूसरी तरफ उनकी 10 साल की बेटी है, जो अस्पताल के बेड पर लेटी हुई है और उसका चेहरा ऑक्सीजन मास्क से ढका है.

कागज़ातों को एक तरफ कर डोगरा अपनी बेटी से बात करते हैं. वह फेफड़े के संक्रमण का शिकार होने के बाद तमिलनाडु में कोयंबटूर के एक अस्पताल में भर्ती है. डोगरा दो वर्षों से कोयंबटूर में ही पदस्थापित हैं.

जब वह अपनी बेटी से बात कर रहे हैं. दूसरा फोन लगातार घनघना रहा है. स्पेशल चुनावी ट्रेनों पर नज़र रखने के लिए दिल्ली के सीआरपीएफ मुख्यालय में बनाए गए नियंत्रण कक्ष को ट्रेन संख्या 729 की स्थिति पर विस्तृत अपडेट चाहिए.

डिप्टी कमांडेंट नीतीश रामपाल वीडियो कॉल पर अपने 6 साल के बेटे से बात करते हुए। अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

डोगरा ने कुछ देर उस कॉल को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की, पर ज्यादा देर तक ऐसा करना संभव नहीं था. बेटी से दोबारा कॉल करने का वादा करते हुए, लंबी सांस भरकर, वह दूसरा फोन उठा लेते हैं.

डोगरा ने नियंत्रण कक्ष को अपडेट किया, ‘सारे जवान ट्रेन पर सवार हैं. सामान और हथियार समय से चढ़ा दिए गए थे. अगला स्टॉप डिनर के लिए मंगलोर जंक्शन पर है. सब कुछ नियंत्रण में है.’

कुछ ही मीटर दूर अगले कोच में जवान ठीक से बैठ चुके हैं. उन्होंने अपनी वर्दियों और बूटों को बदल लिया है और अभी ‘परिचय’ फिल्म का अपना पसंदीदा गाना गा रहे हैं – मुसाफिर हूं यारों, ना घर है ना ठिकाना, हमें चलते जाना है.

अगली तीन रातों की यात्रा में समय-समय पर यही गाना उनके मनोबल को ऊंचा रखने के काम आएगा.

सीट संख्या 73 बनाम स्लीपर कोच

आरपीएफ की 105वीं बटालियन के कांस्टेबल नगेंदरप्पा प्रफुल्लित हैं. अपनी 23 वर्षों की सेवा में चुनावी ड्यूटी के दौरान उन्होंने इससे पहले कभी स्लीपर क्लास के कोच में यात्रा नहीं की थी.

चुनावों के दौरान केंद्रीय बलों को विशेष ट्रेनें जरूर ही आवंटित की जाती हैं पर अक्सर इन ट्रेनों में सिर्फ सामान्य श्रेणी के कोच होते हैं. फलस्वरूप जवानों को तीन से चार दिनों की यात्रा आमतौर पर बैठकर या खड़े रहकर पूरी करनी होती है.

पर, विशेष चुनावी ट्रेन संख्या 729 में सिर्फ स्लीपर श्रेणी वाले कोच हैं. इस कारण केरल में चुनावी ड्यूटी पूरी कर अगली तैनाती पर जा रहे जवानों को अपेक्षित आराम मिल सकेगा.

नगेंदरप्पा के शब्दों में, ‘ये तो लग्जरी है.’ उन्होंने कहा, ‘पर्याप्त जगह तो कभी नहीं होती है, वास्तव में पैर रखने के लिए भी पर्याप्त नहीं. मात्र 72 लोगों के लिए बनी बोगी में 92 जवान यात्रा करते हैं. और हमारे पास बड़ी मात्रा में सामान भी होते है. लेटने की जगह कहां होती है? वास्तव में बैठने की जगह भी नहीं मिलती है.’

नगेंदरप्पा कर्नाटक से हैं. इस बार उनकी चुनावी ड्यूटी की शुरुआत गुजरात के अहमदाबाद से हुई है. वहां से 1,550 किलोमीटर की दूरी तय कर वह केरल पहुंचे. वह 92 लोगों के समूह में सामान्य श्रेणी के एक कोच में थे और साथ में कुल 4,000 किलोग्राम वजनी सामान जिसमें शामिल थे निजी सामान, हथियार, राशन, खाना पकाने के उपकरण और बिस्तर.

राजस्थान के निवासी और आरपीएफ में 37 वर्षों तक सेवाएं दे चुके एक अन्य कांस्टेबल ने कहा, ‘फौजी के लिए 73 नंबर की सीट रिजर्व होती है. हम आपस में मजाक में यही कहते हैं.’

जवानों के लिए एक स्लीपर कोच ही लक्जरी है। अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

सीट नंबर 73 एक गलतबयानी है. क्योंकि इस नंबर की कोई सीट नहीं होती. ट्रेन के सामान्य श्रेणी के कंपार्टमेंट में मात्र 72 सीटें होती हैं. पर जवानों के बीच, शौचालय के बाहर की जगह सीट नंबर 73 के रूप में जानी जाती है.

राजस्थान के जवान ने बताया, ‘जब हम छुट्टी पर घर जाते हैं. अक्सर रवाना होने ही कुछ ही दिन पूर्व छुट्टी स्वीकृत की जाती है. इस तरह, हमारे रिजर्वेशन कभी कंफर्म नहीं होते. हम टॉयलेट के बाहर की जगह पर बैठकर यात्रा किया करते हैं. वही है 73 नंबर सीट.’

कांस्टेबल ने इस डर से अपना नाम नहीं बताया कि कहीं उसका हाल भी बीएसएफ के जवान तेजबहादुर जैसा ना हो जाए, जिसे खाने की खराब गुणवत्ता की शिकायत करते हुए अपना वीडियो पोस्ट करने पर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

तेजबहादुर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए वाराणसी सीट से पर्चा भरा था. सपा-बसपा ने उन्हें अपने समर्थन की घोषणा की थी. हालांकि, अब तेजबहादुर का पर्चा खारिज हो चुका है.


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राजस्थान निवासी कांस्टेबल का कहना है कि चुनाव से इतर सामान्य तैनातियों में भी जवानों को सामान्य कोच ही आवंटित किए जाते हैं और हर बोगी में 92 से 100 जवानों के यात्रा करने की अपेक्षा की जाती है.

जवान ने बताया, ‘पर्याप्त सीटें नहीं होने के कारण हम सीटों के बीच की जगह में सामान रखकर उस पर बैठते हैं. इसके बावजूद 20-25 जवानों को दरवाज़े के पास खड़ा रहना होता है. क्योंकि सीटों के बीच खड़े रहने की भी जगह नहीं होती है. इतने वर्षों से हम इसी तरह यात्रा कर रहे हैं.’

भोजन, या इसका अभाव

यात्रा के दूसरे दिन सुबह के आठ बजे डोगरा गुस्से में हैं. तड़के 3 बजे के करीब गोवा के मडगांव में खाने के मात्र 500 पैकेट डिलीवर किए गए. मतलब, आधे जवानों को भूखे रहना होगा.

डोगरा के लिए समस्याओं की कमी नहीं है. वह संबंधित कैटरर को डांट पिला ही रहे थे कि एक बुरी सूचना के साथ एक जवान ने टोका, ‘सर, ट्रेन में पानी नहीं है और लंच पैकेट का खाना खराब हो चुका है.’

खीझ कर डोगरा खाना आपूर्ति करने वाले के कॉल को काट देते हैं और दूसरे फोन से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को कॉल करते हैं.

ट्रेन को चार दिन और तीन रातों के दौरान 2,500 किलोमीटर की दूरी तय करनी है और दूसरे दिन ही पानी खत्म हो गया है.

तापमान 42 डिग्री पहुंच चुका है, शौचालयों में गंदगी भरी है और लंच पैकेट से बदबू आ रहा है, रेल कोच में दुर्गंध फैला हुआ है.

जवान अपने कैंप में खाना बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले बर्तनों की पैकिंग करते हुए । अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

डिप्टी कमांडेंट (ऑपरेशंस) नितीश रामपाल ने निर्देश दिया, ‘फेंको इन्हें (खाने के पैकेट को). देखो, किसी के पास यदि कुछ फल हों.’

खाना इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज़्म कॉर्पोरेशन (आईआरसीटीसी) ने डिलीवर किया है. तमाम केंद्रीय बलों की तैनातियों के समन्वय की केंद्रीय एजेंसी सीआरपीएफ ने आईआरसीटीसी के साथ करार कर रखा है ताकि विशेष ट्रेनों पर सवार जवानों को समय पर खाना उपलब्ध कराया जा सके.

विशेष ट्रेनों में नाश्ता, लंच और डिनर के पैकेटों की डिलीवरी, ट्रेन के कोचों में पानी की आपूर्ति और साफ-सफाई के लिए विभिन्न रेल स्टेशन पहले से निर्धारित होते हैं.

लेकिन, इस ट्रेन की तरह ही अधिकांश ट्रेनें अक्सर लेट हो जाती हैं. जिससे इन सुविधाओं को सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है. उदाहरण के लिए जब ट्रेनें लेट हो जाती हैं. खाने के पैकेट समय से डिलीवर नहीं हो पाते हैं. फलस्वरूप खाना खराब हो जाता है और जवानों को भूखे रहना पड़ता है.

फूड पैकेट की डिलीवरी के घंटे भी असामान्य होते हैं. उदाहरण के लिए, यात्रा के पहले दिन नाश्ता तड़के 3:20 बजे गोवा के मडगांव में डिलीवर हुए, तो लंच 10 बजे महाराष्ट्र के रत्नागिरि में.

जवानों के लिए जब 8 बजे नाश्ते का वक्त हुआ तो खाना खराब हो चुका था. ऐसे में उन्हें 10 बजे लंच के पैकेट डिलीवर होने तक इंतजार करना पड़ा.

डिनर के लिए, ट्रेन को रात 9:40 बजे नासिक रोड स्टेशन पहुंचना था. पर दो घंटे से अधिक देरी के साथ ट्रेन 12 बजे रात को वहां पहुंचती है.

रात के खाने के पैकेट और आईआरसीटीसी द्वारा व्यवस्थित पानी के लिए आधी रात का पड़ाव | अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

डिनर के पैकेट वितरित होते-होते मध्यरात्रि बीत चुकी थी और इस तरह जवानों को 12 घंटे तक खाने के लिए कुछ नहीं मिला था.

पर ट्रेन के प्रभारी अधिकारी डोगरा के अनुसार, ‘फिर भी ये सरकार की एक अच्छी पहल है, जो हमारी कई समस्याओं का समाधान करती है. आईआरसीटीसी के साथ भागीदारी इसलिए की गई ताकि ड्यूटी पर यात्रा के दौरान जवानों को खाना पकाना नहीं पड़े.’

कांस्टेबल पांडुरंग ने इस पर सहमति व्यक्त की. कर्नाटक के निवासी इस जवान ने कहा, ‘पुराने दिनों में, ट्रेन किसी वीरान से स्टेशन पर रुका करती थी, जहां सब उतर कर प्लेटफार्म पर ही खाना पकाने की जुगत लगाते थे. ईंटें खड़ी कर चूल्हे बनाए जाते थे, जिनमें लकड़ियां जलाकर हम अपना खाना बनाते थे, अक्सर खिचड़ी ही पकाई जाती थी. खाना खाने के बाद हम अपने बर्तन दोबारा ट्रेनों में चढ़ाते थे. रोज कम-से-कम दो बार ऐसा करना पड़ता था.’

आंध्रप्रदेश निवासी कांस्टेबल डी. दिलीप के अनुसार यदि पर्याप्त समय नहीं होता तो जवान स्टेशन पर उतरकर खाना ढूंढने निकल पड़ते थे. उन्होंने कहा, ‘हम दो खोजी दस्ते बनाते थे और उनको निर्देश देते थे कि एक किलोमीटर की परिधि में चारों ओर घूमते हुए जो भी खाने का सामान मिले ले आना. बिस्कुट, नमकीन और कभी-कभार अंडे भी जुटाए जाते थे. इस तरह हम यात्रा में आगे के लिए खाने का स्टॉक तैयार करके रखते थे.’

‘इस ड्रिल के बाद कमांडेंट सीटी बजाकर सबको एकत्रित होने के लिए कहते. उसके बाद हम ट्रेन में वापस लौट जाते थे. कई बार तो खिचड़ी ठीक से पके बिना हमें अपना तामझाम समेटना पड़ जाता था. ऐसे में हम देगची को ढंक कर उसे अपने सामान से दबा देते थे. ताकि उसमें भाप जमा होकर खिचड़ी को कम-से-कम इतना तो पका दे कि उसे खाया जा सके.’

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जवानों के साथ विशेष संवाददाता अनन्या भरद्वाज । दिप्रिंट

चुनाव का दिन और प्रशिक्षण

यात्रा का तीसरा दिन है और ट्रेन के नलकों में पानी नहीं है. जवान अगले किसी ढंग के रेलवे स्टेशन का इंतजार कर रहे हैं. ताकि कम से कम चेहरा धोने के लिए पानी जुटाया जा सके.

वे अपने गंतव्य से कम-से-कम एक दिन दूर हैं और उनका कहना है कि चुनावी ड्यूटी की चुनौती के मुकाबले यात्रा की परेशानी कुछ भी नहीं है.

सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर व्योमेश शंशुल कहते हैं, ‘हमारे लिए ये यात्रा, तमाम व्यस्ताओं के बावजूद, आराम का समय है. हमारा असल काम इसके बाद शुरू होता है.’

एक बार चुनावी तैनाती के निर्धारित जगह पर पहुंच जाने के बाद जवान निरंतर ड्यूटी पर रहते हैं. जिसमें ईवीएम वोटिंग मशीनों की रात में रखवाली. इलाके पर अपना बर्चस्व बनाना, गश्त करना और मतदान बूथ की सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसी जिम्मेदारियां शामिल हैं.

उत्तराखंड निवासी शंशुल कहते हैं, ‘हम रोज 25 किलोमीटर चलते हैं और लगातार 36 घंटे काम पर होते हैं. हमारी वर्दी हमें इसके लिए मनोबल देती है. एक बार वर्दी पहन कर हम निकल जाते हैं तो लोगों को भरोसा हो जाता है कि कोई गड़बड़ी नहीं होगी. लोगों का यही भरोसा हमें हौसला देता है. उसके बाद हम इन छोटी-मोटी परेशानियों को भूल जाते हैं.’

ट्रेन पर मौजूद अधिकतर जवान पहले भी कई चुनाव करा चुके हैं और कुछेक के लिए ये आखिरी चुनावी ड्यूटी है.

जवान कन्नूर के एक मतदान केंद्र पर पहरा देते हुए। अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

एक सिख कांस्टेबल, जो अगले साल रिटायर होगा, नए जवानों को अतीत की चुनावी जिम्मेदारियों के अनुभव और उससे जुड़े किस्से सुनाने वाला मुख्य व्यक्ति है. उसके अनुसार, सुरक्षित चुनाव कराने की दृष्टि से पश्चिम बंगाल, बिहार और मध्य प्रदेश सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण राज्य हैं.

जवान के अनुसार, ‘बिहार में बूथ कैप्चरिंग के प्रयासों के कई उदाहरण हैं. कुछ खास दलों के लोग मतदान बूथों के बाहर एकत्रित होकर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. जब उन्हें लगता है कि उनके वोटर मतदान के लिए नहीं आ रहे, तो वे हंगामा खड़ा करते हैं.’

अपनी बात सुन रहे जवानों से सिख कांस्टेबल ने कहा, ‘बिहार और यूपी जैसे राज्यों में इस तरह के शरारती तत्व बूथ से 100 मीटर दूर रहते हैं और उधर से गुजरने वाले मतदाताओं को खास ढर्रे पर वोट डालने के लिए धमकाते हैं. हमें उन इलाकों में गश्त लगाना चाहिए ताकि ऐसी घटनाएं नहीं हो सकें.’

चुनावी ड्यूटी पर भेजे जाने से पहले केंद्रीय बलों को दो सप्ताह की ट्रेनिंग दी जाती है और उन्हें राज्य विशेष के लिए अलग से विशेष निर्देश भी दिए जाते हैं.

किसी मतदान केंद्र पर तैनात जवानों की संख्या सुरक्षा की दृष्टि से उस केंद्र की संवेदनशीलता पर निर्भर करती है.

केंद्रीय सुरक्षा बल मतदान की तिथि से तीन से चार दिन पहले संबंधित राज्य में पहुंच जाते है और इलाके पर वर्चस्व साबित करने की कवायद में जुट जाते हैं जिसमें लगातार गश्त लगाने का काम भी शामिल है.

नीतीश कहते हैं, ‘तैनाती प्रभावी होते ही हम राज्य सरकार के अधिकारियों से निर्देश लेना बंद कर देते हैं. हम किसी से ना तो बात करते हैं, ना ही ऐसा कोई संकेत देते हैं कि किसी बात पर हमें राज़ी किया जा सकता है. हम राज्य की पुलिस से एक बूंद पानी तक नहीं लेते. हमारा उत्तरदायित्व होता है चुनाव करवाना और हम सिर्फ उसी पर ध्यान देते हैं.’

मतदान की तिथि से एक दिन पूर्व बूथों में ईवीएम पहुंचा दिए जाते हैं और जवान अपनी पोजिशन पकड़ लेते हैं.

मतदान की पूर्व संध्या पर न्यूनतम चार जवानों का दल ईवीएम की निगरानी करता है. जिसकी कमान हेड कांस्टेबल या असिस्टेंट कमांडेंट स्तर के अधिकारी के हाथों में होती है. जवानों को रात में दो घंटे का विश्राम मिलता है और सुबह 6 बजे वे दोबारा ड्यूटी पर होते हैं.

वोटिंग के दिन दो जवान बूथ के मुख्य द्वार पर तैनात होते हैं. जबकि दो मतदाताओं की कतार को संभालते हैं और ये सुनिश्चित करते हैं एक बार में एक ही वोटर मतदान कक्ष के भीतर जाए. वे मतदान कक्ष पर भी नज़र रखते हैं पर ज़रूरत पड़ने पर ही अंदर जाते हैं.

कम से कम 10 जवानों की एक स्ट्राइक रिजर्व यूनिट हमेशा सचल रहती है और कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए जिले के सारे मतदान केंद्रों का चक्कर लगाती है. इसकी अगुआई कंपनी कमांडर करता है जो कि असिस्टेंट कमांडेंट या डिप्टी कमांडेंट स्तर का अधिकारी होता है.

मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद जवानों का एक दस्ता क्षेत्र के ईवीएम स्ट्रांग रूम की सुरक्षा के लिए तैनात होता है. जबकि, बाकी सड़क मार्ग से या रेल से आगे की यात्रा पर निकल पड़ते हैं.

आखिरी चरण

यात्रा के चौथे दिन सुबह के पांच बजे हैं और ट्रेन उत्तर प्रदेश के दीनदयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन पर पानी के लिए रुकती है. ट्रेन को सारी बोगियों के टैंकों में पानी भरने के लिए यहां एक घंटा रुकना है. पर ऐसा हो उससे पहले जवानों ने स्टेशन की पानी आपूर्ति वाली पाइपों पर अधिकार कर लिया.

वे साबुन और तौलिये लिए ट्रेन से उतर कर पानी की पाइपों की ओर भाग रहे थे. तमाशबीनों की निगाहों से बेपरवाह, जिनमें से कुछ वीडियो भी बना रहे थे, जवान कपड़े उतार रेल पटरियों पर खड़े होकर नहाने लगे.

सुबह के सात बजने तक जवान नाश्ता कर चुके थे. उन्होंने अपनी वर्दियों पर मेडल टांक लिए अपने बूट सहेज कर रख लिए हैं. दोपहर एक बजे तक ट्रेन के अपने गंतव्य मुज़फ्फरपुर पहुंचने की संभावना है. पर शेष यात्रा की तरह, ये भी योजनानुसार नहीं हुआ.

एक बजे के करीब ट्रेन एक वीरान जगह खड़ी थी. निकटतम गांव बिहार के चंपारण जिले के सोहनपुर से 60 किलोमीटर दूर. वहां मोबाइल नेटवर्क नहीं होने के कारण स्थिति की जटिलता और भी बढ़ गई.

ट्रेन घंटों रुकी रही, जवानों ने तुरकी स्टेशन पर एक अकेले हैंड पंप पर अपना चेहरा धोते हुए। अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

ट्रेन के प्रभारी अधिकारी डोगरा ने उत्तर रेलवे के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की, पर कमज़ोर नेटवर्क के चलते उनका प्रयास बाधित हो रहा था. उन्होंने चार कांस्टेबलों को, जिनके पास कुल मिलाकर 10 फोन थे, अलग-अलग सिम से कॉल मिलाने की कोशिश करने को कहा. पर, किसी को भी सफलता नहीं मिली.

अगले तीन घंटों तक चुनाव स्पेशल ट्रेन संख्या 729 एक भी ईंच नहीं चली. तेज़ धूप में झुलसती रही. ट्रेन में बिजली की आपूर्ति रुक गई और इसी के साथ पंखे बंद हो गए.

ये सब एक जवान की बर्दाश्त से बाहर हो गया, वह गुस्से में था. उसने कहा, ‘ये अमानवीय है. क्या जवानों से ऐसा ही व्यवहार किया जाता है? उन्होंने हमें ट्रेन में एक दूरस्थ इलाके में छोड़ दिया है जहां मोबाइल का सिग्नल तक नहीं है और हम बिना पानी या भोजन के यहां बैठे हुए हैं.’

उसने आगे कहा, ‘यदि आपातकालीन तैनाती होती तो बात समझी जा सकती थी, पर चुनावों के लिए, उनके पास योजना बनाने के लिए पांच साल का वक्त होता है. वे निश्चय ही इससे बेहतर प्रबंध कर सकते थे. इतने लंबे रूट पर ट्रेन को क्यों डाला गया है?’

जवानों ने अंतिम बार 7 बजे सुबह निवाला लिया था और अब शाम के 5 बज रहे हैं. आज के लिए लंच पैकेटों की व्यवस्था नहीं की गई थी. क्योंकि ट्रेन को दोपहर 1 बजे मुज़फ्फरपुर पहुंच जाना था. स्लीपर क्लास कोचों में बैठे जवान एक बार फिर अपने जूते खोलना शुरू कर चुके हैं.

कांस्टेबल जयवीर सिंह उन लोगों में से हैं जो इन सब बातों से अविचलित हैं. वह इस वक्त का इस्तेमाल अपनी पत्नी के लिए कविता लिखने में कर रहे हैं. ‘हाय हाय ये मजबूरी, ये फौज की नौकरी ज़रूरी. मेरी लाखों की ये नौकरी, मेरी मैडम को ना भाये.’ वह 1974 की सफल फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के प्रसिद्ध गाने की धुन पर इन पंक्तियों को गुनगुनाते हैं.

योग विशेषज्ञ कांस्टेबल राजेश कुमार दुबे सभी से गहरी सांस लेने के लिए कहते हैं. उनके योग के आसनों में जुटे थे, कि ट्रेन चलने लगी. बोगी में हर ओर लोग खुशी से चिल्ला पड़े. पर खुशी का ये आलम बस एक घंटे का ही रहा. इस बार ट्रेन तुरकी स्टेशन आकर रुक गई जहां से मुज़फ्फरपुर मात्र 20 किलोमीटर दूर है. अच्छी बात ये रही कि यहां पर एक चापाकल था. हर कोई चापाकल की तरफ भागा. वे पानी की बोतलें भर रहे थे, अपने चेहरे धो रहे थे.

एक निराश जवान ने कहा, ‘ये मानव संसाधन, धन और समय की बर्बादी है. वे हमें तैनाती वाले निर्धारित स्थान तक विमान से आधे पैसे में पहुंचा सकते हैं और हमारे सामान और हथियारों को ले जाने के लिए वे बीएसएफ के हेलीकॉप्टरों का उपयोग कर सकते हैं. लेकिन नहीं, उन्होंने तो हमें चार दिनों के लिए ट्रेन में डाल दिया. ऐसा भी नहीं है कि गंतव्य तक पहुंच कर हमें आराम करने का कोई मौका मिलेगा.’

उसका एक सहयोगी उसे शांत करने की कोशिश करता है, ‘ये मत भूलो कि ये हमारा कर्तव्य है. ये हमारे देश के लिए है. परेशान होने का कोई फायदा नहीं है. जाकर अपना चेहरा धोओ.’ चापाकल के पास और भी जवान आ जाते हैं और उन पर सोशल मीडिया का असर साफ जाहिर होता है. वे अपना सामूहिक सेल्फी लेते हैं.

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सेल्फी लेते हुए जवान | अनन्या भारद्वाज / दिप्रिंट

‘रात अभी बाकी है’

रात के 8 बज चुके हैं और ट्रेन आखिरकार मुज़फ्फरपुर पहुंच जाती है. ट्रेन आठ घंटे देर से पहुंची है पर जवानों की यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है.

जवानों को 7 बजे सुबह के बाद से कुछ भी खाने को नहीं मिला है और तैनाती के निर्धारित जगहों पर पहुंच कर वे व्यवस्थित हो सकें, इसमें कम से कम छह घंटे और लगेंगे.

कांस्टेबल सोमनाथ कहते हैं, ‘हम अब हाजीपुर जा रहे हैं जो यहां से दो घंटे की दूरी पर है. स्थानीय अधिकारियों ने एक स्कूल में कुछ कमरों की व्यवस्था की है. वहां पहुंचकर हम कमरों की सफाई करेंगे और फिर खाना पकाने का इंतजाम करेंगे.’

कैरियर पर अपना सामान डालते हुए वह कहते हैं, ‘खाना बनाते हुए रात के 1 बज जाएंगे, फिर हम खाना खाएंगे. और कल, सुबह 6 बजे हमारा दिन शुरू हो जाएगा.’

‘रात अभी बाकी है’, कांस्टेबल सोमनाथ मुस्कुराते हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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