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Friday, 22 November, 2024
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मिलिए भारत के डेमोलिशर्स से: एक अलग ही तरह की हॉट कंस्ट्रक्शन जॉब

डेमोलिशन इंडस्ट्री की बल्ले-बल्ले हो रही है. जहां पहले साल में तीन से चार ठेके मिलते थे, वहीं अब कंपनियों को हर साल 10 से 12 ठेके मिल रहे हैं.

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साल 2017 के आखिरी तीन महीनों में, स्टार कंस्ट्रक्शन कंपनी का जॉ क्रशर एक नए आलीशान आवासीय टॉवर के लिए रास्ता बनाने के इरादे से, उपनगरीय रेलवे ट्रैक से लगभग 10 फीट दूर अंधेरी में एक तीन मंजिला इमारत को ढहा रहा था. एक चौकीदार रेल की पटरियों पर सतर्क होकर खड़ा था. ट्रेन जाती, तो गार्ड सीटी बजा देता. तीन सीटी बजाने का मतलब था कि मलबे को उड़ने से रोकने और संभवत आने-जाने वाले लोगों को चोट लगने से बचाने के लिए मशीन को रोकना. एक सीटी बजाने का मतलब था कि काम फिर से शुरू किया जाए.

स्टार कंस्ट्रक्शन अपने नाम के बिल्कुल उलट काम करता है. यह नया रास्ता बनाने के लिए पुराने को तोड़ता चला जाता है. एक ऐसी नौकरी जो हमेशा निर्माण उद्योग में मौजूद रही है, लेकिन पिछले दशक में यह काफी महत्वपूर्ण और अधिक चुनौतीपूर्ण हो गई है. इसकी मांग अचानक से काफी बढ़ गई. इसकी वजह शायद शहरों में तेजी से हो रहीं नईं निर्माण गतिविधियां हैं.

भारतीय शहर बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं. लोग अब टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ रास्तों की बजाय हाईवे और मेट्रो के सफर का मजा लेते हैं. यहां गगनचुंबी इमारतों के साथ-साथ चमचमाती लो राइज बिल्डिंग भी हैं. इन सब को बनाने में स्टार कंस्ट्रक्शन जैसी कंपनियों ने न केवल कई गुणा काम किया है, बल्कि ‘डेमोलिशन कॉन्ट्रेक्टर्स’ के रूप में एक नई नौकरी भी पाई है, जिसकी हाल-फिलहाल तो काफी मांग बनी हुई है.

स्टार कंस्ट्रक्शन के प्रमुख जावेद चौधरी ने बताया, ‘मेरे दादाजी ने 1985 में इस बिजनेस की शुरुआत की थी, क्योंकि इससे उन्हें स्क्रैप बेचने के लिए मिल जाया करता था. उस समय एक स्ट्रक्चर को मैन्युअली तोड़ने में कई दिन लग जाते थे, इसलिए वह अपने साथ 10-15 मजदूरों को ले जाते थे. हमें जिन इमारतों का ठेका मिलाता था, उसमें ज्यादातर छोटी दुकानें और कभी-कभार पुराने लकड़ी के बंगले हुआ करते थे.’

उन्होंने कहा कि पिछले 10-15 सालों में इंडस्ट्री का चेहरा बदल गया है. वह बताते हैं, ‘अब बड़ी-बड़ी इमारतों को गिराने के लिए परिष्कृत मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है. कॉन्ट्रेक्ट पूरा होने में एक महीने से लेकर तीन महीने तक का समय लग सकता है. दरअसल बिल्डिंग कितनी मजबूत है, ये इस पर निर्भर करता है. हमें साल में कम से कम चार से पांच ऐसे अनुबंध तो मिल ही जाते हैं. फुर्सत के लिए समय नहीं है.’


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रियल एस्टेट प्रोजेक्ट साइट पर सबसे पहले

जब भारत के किसी भी बड़े शहर में कोई रियल एस्टेट प्रोजेक्ट शुरू होता है तो काम पर सबसे पहला आने वाला शख्स एक डेमोलिशन ठेकेदार ही होता है.

महाराष्ट्र में रियल एस्टेट डेवलपर्स अम्ब्रेला बॉडी CREDAI-MCHI के एक सिनियर मेंबर राजेश प्रजापति ने कहा, ‘डेमोलिशन विशेषज्ञों की मांग बढ़ गई है. कई पुनर्विकास परियोजनाएं जो काफी लंबे समय से अटकी हुई थीं, उन्हें अब सरकार की मंजूरी मिल रही है. इन सबसे काम में और तेजी आने की संभावना है.’

उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे ये काम मुश्किल होता जा रहा है, उसी हिसाब से डेमोलिशन कंपनियों का प्रोफाइल भी बदल रहा है. उनके मुताबिक, ‘पहले वे सिर्फ बेसिक औजारों और एक डंपर के साथ आते थे. लेकिन अब उनके पास बेहतर तकनीक और इमारत ढहाने के अधिक कुशल तरीके हैं.’

बेंगलुरु की ‘एक्यूरेट डिमोलिशिंग’ कंपनी चलाने वाले इकबाल शेख कहते हैं कि जब उन्होंने 1985-86 में यह काम शुरू किया, तो वह कर्नाटक की राजधानी में चार या पांच डेमोलिशन कान्ट्रेक्टर में से एक थे. वह आगे कहते हैं, ‘लेकिन आज अकेले बेंगलुरु में लगभग एक हजार ऐसी कंपनियां हैं और सभी के लिए काम है.’

उन्होंने बताया कि 10 साल पहले सिर्फ तीन से चार घरों को गिराने के ठेके मिला करते थे. लेकिन अब इस इंडस्ट्री में बूम आ गया है. शेख ने कहा, ‘हम 40 मंजिल बनाने के लिए दस मंजिला इमारतों को तोड़ रहे हैं. सालाना तकरीबन 10-12 कॉन्ट्रेक्ट मिल ही जाते हैं.’

डेमोलिशन इंडस्ट्री में अचानक से आई तेजी ने कुछ सबसे बड़ी कंपनियों को 2019 में एक साथ आगे आने और ‘इंडियन डेमोलिशन एसोसिएशन’ (IDA) की स्थापना के लिए प्रेरित किया था. नवंबर 2019 में आईडीए के पहले प्रकाशित न्यूज लेटर के अनुसार, इस इंडस्ट्री के साथ लगभग 200 कंपनियां जुड़ी थीं, जिनमें तकरीबन 4000 लोग काम करते थे. इसके अलावा एक हजार से ज्यादा मिडियम और छोटे दर्जे के ठेकेदार थे.

दिल्ली में ‘जैन इंजीनियर्स एंड कंसल्टेंट्स’ के अखिल जैन और आईडीए के एक कमेटी मेंबर ने कहा, ‘आईडीए ने सभी भारतीय डेमोलिशन कॉन्ट्रेक्टर्स को एक मंच पर आने और अपने विचार साझा करने में मदद की है. यह बेहतर तरीके से काम को समय पर पूरा करने के लिए ठेकेदारों को अनुभवी कंपनियों से मार्गदर्शन और सलाह दिलाने में भी मदद करता है.’

उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने बताया, ‘लेकिन इन  प्रयासों के बावजूद ये इंडस्ट्री अभी भी असंगठित है. इससे जुड़े कई छोटे ठेकेदार स्थानीय नजदीक के बिल्डरों के लिए काम कर रहे हैं और सुरक्षा मानकों से उन्होंने समझौता किया हुआ है.’

एडिफिस इंजीनियरिंग कंपनी में एक पार्टनर उत्कर्ष मेहता ने कहा, ‘बहुत सारे असंगठित छोटे खिलाड़ी हैं. ये क्षेत्र काफी असुरक्षित हैं. हो सकता है नब्बे प्रतिशत बार वे इसे सही कर लेते हों, लेकिन कभी-कभी वे गलत हो जाते हैं’ वह कहते हैं कि उन्होंने कई उन परियोजनाएं को पूरा किया है, जिन्हें ठेकेदारों ने बीच में ही छोड़ दिया था.

मेहता ने बताया, ‘लेकिन यह सब धीरे-धीरे बदल रहा है. जिम्मेदार बिल्डरों ने महसूस की है कि यह काम करने का तरीका नहीं है.’


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सुपरटेक टावर्स-एक ऐतिहासिक पल

इस साल 28 अगस्त को सैकड़ों लोगों ने नोएडा के सुपरटेक ट्विन टावरों को ताश के पत्तों की तरह ढहते हुए देखा था. इनमें से एक टावर 107 मीटर और दूसरा 87 मीटर ऊंचा था.

उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि भारत की डेमोलिशन कंपनियों के लिए यह एक अहम क्षण था. आमतौर पर सबसे ऊंचे टावरों के निर्माण करने वाले बिल्डर हमेशा सुर्खियों में रहते हैं, लेकिन इस बार ध्यान सबसे ऊंची इमारत को गिराने वालों पर था.

ट्विन टावरों को ध्वस्त करने वाली एडिफ़िस इंजीनियरिंग कंपनी के मेहता ने बताया, ‘सुपरटेक को गिराना सबसे चुनौतीपूर्ण रहा, क्योंकि यह काफी सुर्खियों में था. अगर एक भी चीज गलत हो जाती तो हम 15 साल पीछे चले जाते. लेकिन हमें अपने इंजीनियरिंग की स्किल पर भरोसा था. हमें प्रशंसा पत्र मिल रहे हैं जिसमें कहा गया है कि हमने कुछ बड़ा किया है.’

पूरे देश में बुनियादी ढांचे के विकास में तेजी के कारण ही एडिफिस ने इस इंडस्ट्री में अपने कदम बढ़ाए. मेहता ने कहा, ‘हम 2005 के आसपास एक अन्य डिमोलिशन कंपनी के साथ जुड़े हुए थे.  मुंबई के आसपास बहुत सारे बुनियादी ढांचे का विकास हुआ. एक नया हवाई अड्डा बन रहा था और डेमोलिशन के क्षेत्र में बहुत सी नौकरियां नजर आ रही थी. लेकिन इस सबके साथ हम ये भी जानते थे कि यह एक बहुत ही असंगठित इंडस्ट्री भी है.’

उन्होंने कहा, ‘इस इंडस्ट्री को तकनीक से साथ जोड़ने का एक अवसर था और इस इरादे से हमने 2011 में अपनी पहली मशीन खरीदी और उस दिन के बाद से हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.’ कंपनी पटना में महात्मा गांधी सेतु पुल, अहमदाबाद में पुराने मोटेरा स्टेडियम का डिमोलेशन और अन्य इसी तरह के कई प्रोजेक्ट में शामिल थी.

हाई रिस्क, स्क्रैप में मार्जिन

भारत में 1970-80 के दशक में इस इंडस्ट्री में कदम रखने वाली कंपनियों के इस ओर रुख करने की वजह मलबे से मिलने वाला फायदा था. क्योंकि निर्माण कंपनियां इससे छुटकारा पाने के लिए इंतजार नहीं करती थीं. चौधरी ने कहा, ‘जब मेरे दादाजी ने व्यवसाय शुरू किया, तो डेवलपर्स कहते थे कि भले ही मलबे को फ्री में ले जाओ, लेकिन इसे हटा दो. पर अब  हमें संरचना को ध्वस्त करने के लिए निर्माण कंपनी या डेवलपर को भुगतान करना होता है.’

डेमोलेशर्स पहले उस साइट, मलबे और स्क्रैप का आकलन करते हैं, जिसकी मलबे से निकलने की संभावना है. इसके आधार पर वे अनुमान लगाते हैं कि जिस कंस्ट्रक्शन कंपनी ने उनके साथ तोड़फोड़ का काम करने का ठेका लिया है, उसे वे कितना भुगतान कर सकते हैं. स्क्रैप का मूल्य ही डिमोलेशन से होने वाली कमाई है. इसी से कंपनी अपने ओवरहेड्स यानी इस काम में लगे कर्मचारियों और जरूरी मशीनों का भुगतान किया जाता है.

जैन इंजीनियर्स के अखिल ने कहा, ‘पहले मार्जिन अधिक था और काम ज्यादा नहीं था. लेकिन अब मामला दूसरा है. मार्जिन कम है, लेकिन काम जोखिम भरा है, खासकर भीड़भाड़ वाले और पूरी तरह से विकसित महानगरीय शहरों में.’

शेख ने प्रेस्टीज ग्रुप की बेंगलुरु की फाल्कन सिटी परियोजना को अपने सबसे चुनौतीपूर्ण कामों में से एक बताया. उन्होंने कहा, ‘हमें एक 14 मंजिला इमारत को गिराना था, जो एक व्यस्त सड़क के किनारे थी. हमें यातायात का प्रबंधन करना था, आम जनता को भी देखना था और नागरिक अधिकारियों और पुलिस से समर्थन भी लेना था.’

रिस्क जितना ज्यादा होगा, प्रोजेक्ट को पूरा करने में लगने वाला समय भी उतना ही लंबा होगा. फाल्कन सिटी को गिराने में 45 दिनों का समय लगा, जबकि आदर्श रूप से एक साफ इलाके में तीन या चार मंजिलों को गिराने में तकरीबन 20-25 दिन लगते हैं. चौधरी ने कहा कि मुंबई अपनी संकरी सड़क और घनी आबादी के साथ और भी जटिल इलाका है.

उन्होंने कहा, ‘बड़ी आबादी, संरचनाओं और मलबे के निपटान पर अधिक कड़े नियमों की वजह से इस शहर में इमारतों को गिराने में बहुत समय लगता है. तब ऐसे में चौकीदार और उसकी जुगाड़ू सीटी काम आती है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: संघप्रिय मौर्य)


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