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Sunday, 22 December, 2024
होमदेशएम्स दिल्ली- भारत का सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कालेज जहां मौजूद हैं कोविड से लड़ाई के बहुत से योद्धा

एम्स दिल्ली- भारत का सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कालेज जहां मौजूद हैं कोविड से लड़ाई के बहुत से योद्धा

11 जून को सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) ने, लगातार तीसरी बार एम्स को नम्बर वन मेडिकल कालेज घोषित किया. इसके 540 से अधिक मेडिकल कॉलेज हैं.

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नई दिल्ली: दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का नाम आते ही, दिमाग में दो विषम तस्वीरें उभर कर आती हैं: एक है इसकी ओपीडी में दूर-दूर से आए हज़ारों मरीज़ों की भरमार, जिनकी लंबी-लंबी क़तारें परिसर के गेट के बाहर तक पहुंच जाती हैं. दूसरी है इलाज के लिए तेज़ी से अस्पताल पहुंचाए जा रहे, वीआईपी लोगों के पीछे लगे कैमरों की चमक, जो इन्हीं लाइनों को तोड़कर अंदर दाख़िल हो जाते हैं.

भारत के अमीर और ग़रीब सब जानते हैं कि दिल्ली का एम्स देश का सर्वश्रेष्ठ अस्पताल है.

लेकिन डॉक्टरों और छात्रों का कहना है कि इसकी प्रतिष्ठा आवश्यक रूप से, बतौर अस्पताल इसके काम से नहीं आती. प्रतिष्ठा इस बात में है कि एम्स कैसे साल दर साल शानदार फिजीशियंस तैयार करने में सक्षम है.

11 जून को सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) ने, लगातार तीसरी बार एम्स को नम्बर वन मेडिकल कालेज घोषित किया.

अगले मोर्चे पर डटकर कोविड-19 संकट से निपटने में लगे बहुत से एक्सपर्ट्स या तो दिल्ली एम्स में पढ़ा चुके हैं या वहां पढ़े हैं: संस्थान के निदेशक रण्दीप गुलेरिया, कॉर्डियोलॉजिस्ट बलराम भार्गव– जो अब इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के प्रमुख है और सरकारी थिंकटैंक नीति आयोग के डॉ. वीके पॉल.

डब्ल्यूएचओ की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन जिनकी यूएन हेल्थ एजेंसी में भूमिका ने उन्हें दशकों के एक सबसे बड़े संकट से निपटने में अग्रणी भूमिका में ला खड़ा किया है, एम्स की ही पूर्व छात्रा हैं.

लेकिन आख़िर वो क्या चीज़ है जो एम्स को ऐसे देश का सर्वश्रेष्ठ मेडिकल संस्थान बनाती है जिसमें 540 से अधिक मेडिकल कॉलेज हैं और जो अपने डॉक्टर्स दुनिया भर में ‘निर्यात’ करने के लिए जाना जाता है?


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आधुनिक औषधि का एक ‘मंदिर’

कैंसर विशेषज्ञ डॉ. पीके जुल्का जो 2016 में बतौर डीन, संस्थान से रिटायर हुए, कहते हैं कि एम्स में हर चीज़ ‘उत्कृष्ट श्रेणी’ की है. ‘उपकरणों से लेकर मेडिकल प्रोटोकोल्स तक, बल्कि ज़्यादा अहम ये कि उस आज़ादी तक, जो आपको अपनी रुचि के शोध के लिए मिलती है’.

संस्थान के दूसरे बहुत से पूर्व छात्रों की तरह, जुल्का का भी एक शानदार करिअर रहा है: वो देश के पहले इंसान थे जिन्होंने पेरीफेरल ब्लड स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किया और जिन्हें मेडिसिन में उनके योगदान के लिए 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. उन्होंने कहा. ‘ये एम्स से ही संभव हुआ’.

दिल्ली एम्स की बुनियाद 1952 में रखी गई, और 1956 में एम्स अधिनियम के ज़रिए, ये एक स्वायत्त संस्थान के रूप में वजूद में आया.

एम्स को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर की परिकल्पना के हिसाब से बनाया गया जिनके सम्मान में अस्पताल की ओपीडी का नाम उन पर रखा गया.

एम्स नेहरू के आधुनिक भारत के ‘मंदिरों’ में से एक था, जिसे मेडिकल साइंस के उत्कृष्ट केंद्र के तौर पर स्थापित किया गया था. इसके नामकरण के समय से ही तय किया गया था कि ये सर्वश्रेष्ठ होगा और इससे जुड़े हर किसी ने इसे उसी तरह समझा.

1971 में एक अंडर ग्रेजुएट छात्र के तौर पर एम्स में आने वाले, कम्युनिटी मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. चंद्रकांत पांडव ने कहा, ‘राजकुमारी ने इसे गुरुकुल की तर्ज़ पर बनाया: छात्र और टीचर्स सीखने की इस जगह में एक साथ रहेंगे. ये उनकी मनपसंद परियोजना थी’. उन्होंने आगे कहा, ‘तेज़ और प्रतिभावान भारतीय जो पढ़ने के लिए बाहर गए हुए थे, उन्हें अपने देशी की सेवा के लिए वापस बुलाया गया’.

स्थापित किए जाने के कुछ साल तक, एम्स मुख्य रूप से एक रिसर्च और टीचिंग सेंटर था लेकिन 1980 के मध्य और अंत तक आते आते, इसका तेज़ी से विस्तार होने लगा.

जुल्का ने कहा, ‘मरीज़ों को संभालना हमेशा एक समस्या रही है. पहले हमारे पास मरीज़ कम थे लेकिन फैकल्टी की कमी थी. अब हाल ये है कि सैकड़ों डॉक्टर होने के बावजूद, आने वाले मरीज़ों की भारी संख्या को संभाल पाना मुश्किल है’. उन्होंने ये भी कहा, ‘इसकी वजह से मरीज़ों की देखभाल, टीचिंग और रिसर्च के बीच, समय की प्राथमिकता तय करना और मुश्किल हो गया है’.

2003 में भारत सरकार ने टर्शरी केयर की उपलब्धता के असंतुलन को ‘ठीक’ करने का संकल्प लिया, और ‘एम्स-जैसे’ 6 संस्थान बनाने को मंजूरी दे दी. 1012 में एक अध्यादेश और उसके बाद एक संशोधन विधेयक के ज़रिए इस फैसले को पुख़्ता कर दिया गया.

उसके बाद से ‘एम्स-जैसे’ संस्थानों की संख्या, बढ़कर 15 हो गई है. आठ और विकसित हो रहे हैं लेकिन, डॉक्टरों का कहना है कि उनके पास ब्राण्ड तो है, मगर उतना सम्मान नहीं मिलता.

जुल्का ने आगे कहा, ‘इन संस्थानों की तुलना नहीं हो सकती, दिल्ली एम्स जिस मुक़ाम पर है, वहां तक पहुंचने के लिए, उन्हें अभी मीलों का सफर तय करना है. ऐसा इसलिए क्योंकि उनके यहां काम का वो कल्चर नहीं है जो दिल्ली में पहले से है. वर्क कल्चर समंदर की लहर होती है और उनके यहां वो नहीं है’.

एम्स के अंदर

आने वाले छात्रों के लिए एम्स में पढ़ाई का मौक़ा, डर और उत्साह दोनों पैदा करता है. प्रदर्शन के दबाव की तरफ इशारा करते हुए, एम्स में दूसरे वर्ष की एमबीबीएस छात्रा मेहक अरोड़ा ने कहा, ‘उस दबाव के लिए आप तैयार रहते हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘एक बार आपकी क्लासेज़ शुरू हो जाएं, तो चीज़ें एक लय में बैठ जाती हैं और आप इसके आदी हो जाते हैं’.

दिल्ली में 115 एकड़ में फैले इसके परिसर में, 43 विभाग हैं और अंडर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट दोनों मिलाकर, 1,700 से अधिक छात्र हैं. छात्रों का कहना है कि रैगिंग के डर के बिना, जूनियर और सीनियर खुलकर एक दूसरे से मिलते हैं, जो भारत के मेडिकल कॉलेजों में एक बड़ी चिंता बन गई थी. जहां पूरे भारत में औसत छात्र-टीचर अनुपात 29:1 है (2018-19), एम्स में 2016 में इसका अनुमान 6:1 था. अंदरूनी लोगों का कहना है कि यहां, शैक्षिक प्रदर्शन में बेहतरी एक साझा लक्ष्य है, इसलिए माहौल में पढ़ाई को लेकर उत्साह बना रहता है.

कम्युनिटी मेडिसिन के फील्ड में पीएचडी कर रहे एक छात्र, गिरिधर गोपाल ने कहा, ‘एम्स में आप जल्द ही मरीज़ों, नए नए विकसित होते मेडिकल प्रोटोकोल्स, और उभरते शोध के संपर्क में आ जाते हैं. अमेरिका में अगर कोई नई चीज़ सामने आती है, तो हमें हफ्ते भर के अंदर उसका पता चल जाता है. यहां पर कोई आपको समझाएगा नहीं लेकिन सीखने और ऊपर उठने के बहुत मौक़े होते हैं’.

2012 में एमडी के लिए एम्स आने से पहले, गोपाल ने तमिलनाडु के कंजानूर स्थित सरकारी मेडिकल कॉलेज से, एमबीबीएस किया था. उन्होंने कहा, ‘यहां पर पढ़ाई कोई बोझ नहीं है, यही वो चीज़ है जो कम्युनिटी में गूंजती रहती है’.

पुराने ज़माने के पांडव के अनुसार, ये छात्र और टीचर के बीच रिश्ते की पवित्रता है, जो एम्स के कामकाज की जड़ है. उन्होंने कहा कि जब वो सबसे पहले यहां आए, तो यहां का फोकस ‘पढ़ाने और पढ़ाने की आज़ादी’ पर था.

पांडव ने आगे कहा, ‘एम्स की जड़ें इसमें हैं कि यहां टीचिंग और रिसर्च पर ज़ोर रहता है. छात्र और टीचर्स फैमिली की तरह रहा करते थे, क्योंकि वहां सर्वश्रेष्ठ छात्र और सर्वश्रेष्ठ टीचर, जनता की सेवा के लिए एक जगह जमा थे’.

एम्स में दाख़िले से जुड़ी प्रतिष्ठा, छात्रों व टीचर्स के पास बेहतरीन मेडिकल उपकरणों की उपलब्धता और उसके साथ रिसर्च करने की आज़ादी ने मिलकर, यहां सीखने की प्रक्रिया में नवीनता बनाए रखी है.

गोपाल ने कहा, ‘दूसरे कालेजों में आप उस तरह की जानकारी, और प्रमुख प्रोटोकोल्स तक नहीं पहुंच पाते. हर चीज़ बहुत बाद में आती है, जबकि एम्स में ये सब रियल टाइम में चल रहा होता है’.

लेकिन, कुछ लोगों का कहना है कि एम्स की विशिष्टता, इसे एक ऐसा आभामंडल सा बना देती है, जिसमें बाहरी लोगों को जल्दी से स्वीकार नहीं किया जाता.

एक रिटायर्ड वाइरॉलोजिस्ट डॉ शोभा ब्रूर, जिन्होंने 27 साल संस्थान में पढ़ाया, कहती हैं, ‘बाहरी इंसान के तौर पर, स्वीकार किए जाने’ में समय लगता है.

उन्होंने बताया, ‘मुझे स्वीकार करने में, उन्हें थोड़ा समय लगा, मैंने पीजीआईएमएस चंडीगढ़ से आकर, बतौर एडिशनल प्रोफेसर ज्वाइन किया था. शुरू में मुझे मुश्किलें पेश आईं लेकिन मैंने मेहनत की और अपनी जगह बना ली. असल में संस्थान को जो चीज़ बनाती है, वो उसके छात्रों की क्वालिटी होती है’.


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चुनौतियां बरक़रार

पिछले कुछ सालों में एम्स जिन समस्याओं से दो-चार रहा है, वो मरीज़ों की बढ़ती संख्या तक सीमित नहीं हैं. संस्थान पर जाति के आधार पर पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं.

2007 में, दलित छात्रों को इम्तिहान में फेल करने के आरोपों पर, एक भारी विरोध प्रदर्शन के बाद, एम्स देश का पहला उच्च शिक्षा संस्थान बना, जहां सिस्टम में जातिगत भेदभाव और दुर्व्यवहार की पड़ताल की गई जिसके नतीजे में थोराट कमीटी रिपोर्ट सामने आई.

रिपोर्ट में पता चला कि 72 एससी छात्रों ने टीचिंग के दौरान भेदभाव महसूस किया. हालांकि सुधारों ने सुनिश्चित कर दिया कि खुले तौर पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता लेकिन प्रोफेसरों ने 2019 में दिप्रिंट को बताया कि बारीकी के साथ जाति भेदभाव अभी भी चलता है.

एम्स हालांकि हर साल औसतन 700 रिसर्च पेपर्स पेश करता है लेकिन इस क्षेत्र में इसकी विश्व रैंकिंग कम ही रहती है: क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग फॉर लाइफ साइंसेज़ एंड मेडिसिन के अनुसार, एम्स 231वें नम्बर पर है. तुलना करें, तो हार्वर्ड यूनिवर्सिटी तीसरे नम्बर पर है.

पांडव ने कहा, ‘मरीज़ों की भारी संख्या के चलते, रिसर्च और टीचिंग में दिलचस्पी धीरे-धीरे ग़ायब हो रही है’. उन्होंने आगे कहा, ‘क्लीनिकल प्रैक्टिस को ज़्यादा अहमियत मिल रही है. आपको क्या लगता है कि हमने अभी तक कोई नोबल पुरस्कार क्यों नहीं जीता है?’

संस्थान इन दिनों बहुत से सिलसिलेवार वीडियो सेशंस आयोजित कर रहा है जिन्हें ग्रैंड राउंड कहा जाता है. इनमें ये कोविड-19 से निपटने के अपने अनुभव, दुनिया के दूसरे अस्पतालों के साथ साझा कर रहा है. ये एक वैक्सीन ट्रायल भी करा रहा है, और दूसरे संस्थानों के उन डॉक्टरों के साथ जिन्हें दिशा-निर्देश चाहिए, टेलीमेडिसिन सेशंस भी कर रहा है. आगे का रास्ता अनिश्चित है लेकिन पांडव इसे बहुत अच्छे से कहते हैं, ‘एम्स का भविष्य इसके अतीत में है’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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