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Thursday, 18 April, 2024
होमदेशजयपुर के एसएमएस अस्पताल ने दिखाया कि कैसे 'टेस्ट, ट्रेस, आइसोलेट' का मंत्र कोरोना के खिलाफ कारगर साबित हो सकता है

जयपुर के एसएमएस अस्पताल ने दिखाया कि कैसे ‘टेस्ट, ट्रेस, आइसोलेट’ का मंत्र कोरोना के खिलाफ कारगर साबित हो सकता है

डॉक्टरों ने अप्रैल में ही एसिम्पटोमैटिक मरीजों का ऑक्सीजन स्तर देखना शुरू कर दिया था. यह कदम 9 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय की संशोधित डिस्चार्ज पॉलिसी आने से पहले ही उठा लिया गया था.

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नई दिल्ली: जयपुर के सवाई मान सिंह (एसएमएस) मेडिकल कॉलेज और अस्पताल, जिले में कोविड-19 के लिए नोडल अस्पताल, ने मार्च की शुरुआत में ही जिस तरह से स्वास्थ्य संकट पर काबू पाया वह राजस्थान के बाकी हिस्सों के लिए एक मिसाल बन गया.

27 जून (नवीनतम उपलब्ध जिला-वार डाटा) तक के आंकड़ों के अनुसार, अस्पताल में मरीजों के ठीक होने की दर 86 फीसदी थी. 1,243 मरीजों में से 1,003 को छुट्टी मिल चुकी थी जबकि 67 को अन्य अस्पतालों में स्थानांतरित किया गया था. यहां 162 लोगों की मौत हुई. राज्य में इसके बाद से जिलेवार आंकड़े जारी किया जाना बंद हो चुका है.

सरकारी अधिकारियों ने राज्य के 97 प्रतिशत मरीज ठीक होने के समग्र प्रदर्शन का श्रेय एसएमएस अस्पताल में ठीक होने की दर को दिया.

अस्पताल ने 1 जून से विशेष रूप से कोविड इलाज की सुविधा बंद कर दी थी, लेकिन यहां मरीजों को भर्ती किया जाना और उनका इलाज करना जारी है.

राजस्थान के पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव (एसीएस), स्वास्थ्य रोहित कुमार सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘राजस्थान में मरीजों की ठीक होने की उच्च दर में एसएमएस का बड़ा हाथ है.’ ‘वे रिसर्च के तरीकों को लेकर एकदम निष्पक्ष थे और हर कदम पर नतीजों को हमारे साथ साझा करते थे. उन्होंने जो कुछ किया, अन्य ने वही रास्ता अपनाया और नतीजे पूरे राज्य में नज़र आए.’

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From 1 June onward the hospital started taking patients with other problems | Photo: Manisha Mondal | ThePrint
एक जून से दूसरी समस्या वाले मरीजों का भी अस्पताल में इलाज किया जा रहा है | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

एसएमएस अस्पताल की सफलता में कई बातों का अहम योगदान रहा, इसमें यह सुनिश्चित करना कि मरीजों को इस दौरान बरती जाने वाली सावधानियों की पूरी जानकारी हो, कोविड स्क्रीनिंग सिस्टम चुस्त-दुरुस्त रहे, इलाज के लिए दवाओं के साथ प्रयोग और उपयुक्त समय पर जिला अधिकारियों के साथ सहयोग आदि शामिल है.


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कोविड स्क्रीनिंग, उपचार में प्रयोग

अस्पताल की रणनीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है वह जांच तकनीक जिससे कोविड मरीजों का पता लगाने में उसने महारत हासिल की है, भले ही वह सिम्पटोमैटिक हों या नहीं.

एसएमएस अस्पताल के प्रिंसिपल डॉ. सुधीर भंडारी ने कहा, ‘यहां लाए गए हर मरीज की गहन जांच की गई. ज्यादातर मरीज सामान्य दिखते हैं और ऊपरी तौर पर एसिम्पटोमैटिक होते हैं. लेकिन उनके ऑक्सीजन स्तर की त्वरित जांच से अक्सर यह पता चल जाता है कि वे सब-नॉर्मल है. शरीर को उससे कहीं ज्यादा क्षति पहुंचती है जो सामान्य तौर पर नज़र आती है.

डॉक्टरों ने अप्रैल में ही एसिम्पटोमैटिक मरीजों का ऑक्सीजन स्तर देखना शुरू कर दिया था. यह कदम 9 मई को स्वास्थ्य मंत्रालय की संशोधित डिस्चार्ज पॉलिसी आने से पहले ही उठा लिया गया था.

अस्पताल ने अपनी जांच क्षमता बढ़ाकर प्रतिदिन 3,500 आरटी-पीसीआर टेस्ट कर ली थी.

एक बार कोई मरीज पॉजीटिव पाया गया तो एकदम घड़ी की सुई की तरह निरंतर चलने वाला इलाज शुरू कर दिया जाता था.

एसएमएस विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सॉलिडैरिटी ट्रायल के तहत कोविड-19 के इलाज में एचआईवी एंटीरेट्रोवाइरल दवाओं के साथ हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) का इस्तेमाल करने वाले दुनिया के कुछ चुनिंदा अस्पतालों में से एक था.

डब्ल्यूएचओ द्वारा अपने परीक्षण से इनको हटा लिए जाने के बाद दवाओं को दोनों सेट चिकित्सा जगत में विवाद का मुद्दा बन गए.

डॉ. भंडारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने एचसीक्यू देना जारी रखा है क्योंकि हल्के लक्षण वाले रोगियों के लिए हमारा मूल ऑब्जर्वेशन अब भी वही है. हम अपने प्रोटोकॉल की मजबूती के लिए अन्य दवाओं और टेस्ट का सहारा ले रहे हैं ताकि बीमारी को जल्द पकड़ सकें और इसका इलाज किया जा सके.’

यहां तक कि उन्होंने एचसीक्यू को परीक्षण से हटाने के फैसले को लेकर विवाद पर डब्ल्यूएचओ को पत्र भी लिखा है लेकिन उनका कहना है कि अभी तक कोई जवाब नहीं आया है.

एसएमएस अस्पताल सॉलिडैरिटी परीक्षण के अनुपालन के तहत अब हल्के से मध्यम लक्षण वाले मरीजों के एक वर्ग पर रेमडिसिविर के प्रभावों का परीक्षण कर रहा है. साथ ही यह इन्वेस्टिगेशनल ड्रग टॉसिलिजुमाब का भी उपयोग कर रहा है, जो पारंपरिक तौर पर रुमेटाइड आर्थराइटिस के इलाज में इस्तेमाल होती है लेकिन कोविड-19 से जुड़े निमोनिया के मरीजों के इलाज में इसके नतीजे उत्साहजनक रहे हैं.

एसएमएस अस्पताल में मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. रमन शर्मा ने कहा, ‘हमारे पास जैसे ही कोई संदिग्ध या पॉजीटिव केस आता है तो हम आकलन करते हैं कि क्या उन्हें हमारे वार्ड में रखा जाना चाहिए या आइसोलेशन के लिए घर भेज देना चाहिए. लक्षणों की गंभीरता के आधार पर अलग-अलग वार्ड निर्धारित हैं. ऐसे 15 फीसदी मरीजों जिनमें निमोनिया के लक्षण विकसित हो जाते हैं हम रेमडिसिविर और टॉसिलिजुमाब लिखते हैं. हल्के लक्षण वाले मामलों के लिए एचसीक्यू और एजिथ्रोमाइसिन है.’


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सरकार-अस्पताल के बीच बेहतर समन्वय

एसएमएस अस्पताल के डॉक्टरों ने राज्य और जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम किया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मरीजों को सावधानियों की पूरी जानकारी हो और लोग समय पर इलाज के लिए आएं.

राज्य में कोविड-19 संकट के चरम पर होने के समय, मार्च से मई तक, अस्पताल में गंभीर रोगियों के लिए 300 इंटेसिव केयर यूनिट बेड और 1,200 अन्य बेड हल्के से मध्यम लक्षण वाले मरीजों के लिए थे.

एक तरफ जहां दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद जैसे बड़े महानगरों में बड़ी संख्या में मौतें हो रही थीं क्योंकि ज्यादातर मरीज बीमारी काफी बढ़ जाने के बाद इलाज के लिए पहुंच रहे थे- राजस्थान में इस तरह की स्थिति नज़र नहीं आई. राज्य में अब तक दर्ज 23,174 मामलों में से 11 जुलाई तक केवल 497 की मौत हुई.

जयपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. नरोत्तम शर्मा ने कहा, ‘हम आसपास के क्षेत्रों में पॉजिटिव मामलों का पता लगाएंगे और कांटैक्ट ट्रेसिंग के लिए रैपिड रिस्पांस टीम तैनात करेंगे. बड़ी संख्या में जांच नमूने एसएमएस भेजे जाएंगे और वहां से हमें नतीजे मिलने में 24 घंटे से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा.’

अस्पताल में जांच के बाद जो एसिम्पटमैटिक मरीज घर जाने की स्थिति में पाए गए उन्हें सेल्फ आइसोलेशन में भेजा गया. अन्य जिन लोगों को भर्ती करने की आवश्यकता थी उनकी अच्छी तरह जांच की गई, जिसमें ऊतकों को पहुंचे नुकसान का पता लगाने के लिए सीने की हाई रिजोल्यूशन कंप्यूटेड टोमोग्राफी (एचआरसीटी), और खून के थक्के जमने की संभावना को देखते हुए एंजियोग्राम करना शामिल था. भर्ती किए गए मरीजों को आमतौर पर एक सप्ताह के इलाज के बाद छुट्टी दे दी जाती है.

एसएमएस में मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. रमन शर्मा ने कहा, ‘अगर किसी मरीज की सेहत बिगड़ने के संकेत दिखाई देते हैं, तो हम जांच करते हैं कि कहीं उसका साइटकिन स्तर तो नहीं बढ़ा हुआ है. यह किसी व्यक्ति की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के ज्यादा उत्पादन को दर्शाता है, ऐसे के इसके अनुरूप इलाज करना होता है.’

उन्होंने कहा, ‘महत्वपूर्ण यह है कि जब जरूरत हो तो ये परीक्षण करने में सुस्ती न बरती जाए. हर मरीज की एकदम अच्छी तरह जांच करने की आवश्यकता है, उनके लक्षण भले ही कैसे भी हों. बीमारी के बारे में हम अब भी बहुत कुछ नहीं जानते हैं.’

जून में, एसएमएस अस्पताल को राजस्थान सरकार ने कोविड-19 के इलाज में उत्कृष्टता हासिल करने वाला केंद्र करार दिया था. अब इसे राज्य भर में कोविड के लिए नोडल फैसिलिटी माना जाता है.

पूर्व मुख्य सचिव रोहित कुमार सिंह ने कहा कि अस्पताल ने संक्रमण प्रबंधन के अपने बेहतरीन उपायों से सभी जिलों के लिए उपचार मानक निर्धारित कर दिए हैं.

सिंह ने कहा, ‘संक्रमण की रोकथाम के दो तरीके हैं. पहला कांटैक्ट ट्रेसिंग के माध्यम से फैल रहे संक्रमण की रोकथाम और सामाजिक दूरी को लागू करना. दूसरा जब कोई व्यक्ति पॉजीटिव पाया जाता है और आप उनका इलाज करते हैं. यहीं पर एसएमएस ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने आगे कहा कि इसे एक इंवेस्टिगेशनल साइट चुना गया क्योंकि यह क्लीनिकल ट्रायल के लिए जरूरी सुविधाओं और अनुभव वाला एक ‘प्रीमियर इंस्टीट्यूट’ है.’

डॉ. भंडारी ने कहा, ‘राज्य सरकार हमेशा हमारे लिए सुलभ थी और पीपीई किट आदि की कमी जैसी किसी भी समस्या का तत्काल समाधान किया गया. हमें सरकार की तरफ से किसी दबाव का सामना भी नहीं करना पड़ा.’


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मृत्यु दर ज्यादा क्यों

आरटी-पीसीआर परीक्षणों- एसएमएस अस्पताल में लगभग 1,50,300 टेस्ट हुए- के अलावा पॉजीटिव मरीजों की भी स्कैनिंग होती है और घर भेजे जाने के बाद भी निगरानी के लिए उनके ऑक्सीजन स्तर की नियमित जांच की जाती है.

इन उपायों के बावजूद कुछ रोगी इसे नहीं अपनाते हैं. राजस्थान में हुई 497 मौतों में से 162 एसएमएस अस्पताल में 27 जून तक हुई थीं.

एसएमएस के एक वरिष्ठ सलाहकार डॉ. अजीत सिंह ने कहा कि इस अस्पताल के नोडल फैसिलिटी होने ने यहां मृत्यु दर अधिक रहने में अहम भूमिका निभाई है.

उन्होंने कहा, ‘चूंकि हम नोडल फैसिलिटी हैं इसलिए अन्य अस्पतालों यहां तक की जयपुर से बाहर के अस्पतालों ने भी अपने मरीज यहां भेज दिए. अक्सर ये मरीज हालत बिगड़ने के बाद ही आते हैं, और उनमें से ज्यादातर दो या दो से ज्यादा बीमारियों के शिकार होते हैं जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है. हमारा अपना आकलन बताता है कि 30 फीसदी मरीजों की जान बच सकती थी अगर वह समय पर अस्पताल आते.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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