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Saturday, 21 December, 2024
होमदेशयूपी के सीतापुर के अलग-थलग और सुदूर बसे बाढ़ प्रभावित गांवों के सामने कोरोनावायरस से भी बड़ी समस्याएं हैं

यूपी के सीतापुर के अलग-थलग और सुदूर बसे बाढ़ प्रभावित गांवों के सामने कोरोनावायरस से भी बड़ी समस्याएं हैं

गांव वालों का कहना है सरकार की तरफ से जो सहायता या फिर राशन मिलता है वह जीने के लिए काफी नहीं है. जबकि प्रशासन का कहना है कि हर महीने एक से 10 तारीख के बीच गांव-गांव मुहल्ले-मुहल्ले भेजा जा रहा है राशन.

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सीतापुर:उत्तरप्रदेश की बिसवां तहसील में बसे दुर्गापुरवा और नई बस्ती गांव सीतापुर शहर से लगभग नब्बे किलोमीटर की दूरी पर बसे हैं. यहां से कुछ दूरी पर ही सरयू, घाघरा और शारदा नदियों का संगम हो रहा है. ये नदियां हर साल मानसून के दौरान विकराल रूप धारण कर अपने किनारे बसे आस-पास के गांव में भारी तबाही मचाती हैं. इसलिए इन गांवों का जीवन बाढ़ और कटाव के चलते अस्त-व्यस्त रहता है. वो एक तरह से खानाबदोश वाला जीवन जीते हैं. कोरोनावायरस के दौरान हुए देशव्यापी लॉकडाउन ने इन गांववासियों की परेशानियों की लिस्ट थोड़ी और लंबी कर दी है. यहां के कई परिवार ना सिर्फ नमक-तेल जैसी आवश्वयक वस्तुओं के लिए जूझ रहे हैं बल्कि दूसरे राज्यों में फंसे अपने परिवार के लोगों की बाट जोह रहे हैं.

न सड़क न गाड़ी

नदी के बीच में टापू पर बसे नई बस्ती गांव में हालत और बदतर हैं. शहर से गांव को जोड़ने के लिए न तो सड़क है न कोई सुविधा. नई बस्ती के लोग हर छोटी चीज के लिए तीन किलोमीटर की पैदल दूरी तय कर नदी के किनारे पहुंचते हैं और फिर नाव वाले को किराया देकर दुर्गापुर गांव आते हैं. यहां से भी मार्केट और दूसरी जगहों पर जाने के लिए दस-बारह किलोमीटर पैदल चलते हैं. तो फिर बिजली के बारे में सोचना तो बेमानी ही लगता है.

इसी गांव के इमरान दिप्रिंट को बताते हैं, ‘अब्बू की पिछले महीने मौत हो गई थी. मेरा भाई कय्यूम जनता कर्फ्यू के बाद से ही दिल्ली में फंसा हुआ है. वो अतिंम संस्कार में शामिल नहीं हो सका. वो फोन पर रोता रहता है और बताता है कि शहर में तो कोरोनावायरस फैल गया है और उसे डर लग रहा है.’

इमरान आगे कहते हैं, ‘उसे खाना नहीं मिल रहा है तो हम भी असहाय महसूस कर रहे हैं. अब मेरे अब्बू की मौत के 40वें दिन पर एक कार्यक्रम है जो कय्यूम के बिना पूरा नहीं हो सकता. मेरी दिल्ली सरकार से प्राथर्ना है कि उसे घर भेजने में मदद करें.’ इमरान का भाई राजधानी में एक टेलर की दुकान पर काम करता है. ‘हम उसे देखने के लिए मरे जा रहे हैं. पता नहीं कब तक आ पाएगा वो’, इमरान जोड़ते हैं.


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दिनेश राज भी अपनी व्यथा सुनाते हैं, ‘ मेरा भाई और उसके दो बच्चे पंजाब में फंसे हुए हैं. वो लोग बिलकुल असहाय महसूस कर रहे हैं. जब भी फोन पर बात होती हैं तो घर ना आ पाने की वजह से रोते रहते हैं. हम लोग भी कर्ज लेकर रहते हैं तो हम भी उसकी बहुत मदद नहीं कर सकते.’

फोटो/ज्योति यादव/दिप्रिंट

जब उनसे पूछा कि सरकार ने श्रमिक रेल चलाई है तो वह बोले, ‘ उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि कहां रजिस्टर करें और किससे बात करें और कैसे ट्रेन पकड़ें.’ अपने परिवार वालों का इंतजार कर रहे अधिकतर लोगों का यही कहना था कि समझ ही नहीं पा रहे हैं कि किससे बात करें और किससे पूछें.

बूढ़े मां-बाप का रो-रो कर हुआ बुरा हाल

दिप्रिंट की टीम एक नाव से नदी पार करते हुए एक टापू पर बसे गांव कोरोनावायरस और लॉकडाउन में हालात जानने पहुंची, यहां एक परिवार के दो बेटे अनिल और प्रमोद पंजाब में फंसे हुए हैं.

जवान बेटों के वहां फंसे होने पर बूढ़े बाप का यहां रो-रो कर बुरा हाल है. रामफल 70 साल के हैं, दिप्रिंट से बात करते हुए कई बार उनकी आंखें भर आईं और आवाज ही नहीं निकली. वह कहते हैं, ‘हमारे पास फोन नहीं है लेकिन पड़ोसी के फोन से बात हो पाती है. हम लोग ही जानते हैं कि हमारे दिन कैसे कट रहे हैं. जब भी बेटों से बात करते हैं तो वो रोते रहते हैं. उनके पास अब पैसे नहीं बचे हैं. खाने के भी लाले पड़ रहे हैं. वहां पर वो पहले ही उधार ले चुके हैं और अब ऐसे समय में उन्हें कौन उधार देगा? हमारे पास भी उतनी बचत नहीं है कि उन्हें पैसे भिजवा सकें. उनके पास अलग से कोई बैंक खाता भी नहीं है. वही कमाने वाले थे, हमारे पास बचत के पैसे है भी नहीं.’

वो आगे बताते हैं,’ उन दोनों को समझ भी नहीं आ रहा है कि आखिर वापस आने के लिए किससे बात करें. ट्रेन या बस कहां से मिलेगी.’ अनिल और प्रमोद दोनों ही पंजाब में एक लोहा फैक्ट्री में काम करते हैं.

‘मैं भी बूढ़ा हूं और बीमार पड़ता रहता हूं. यहां कोई मदद करने वाला भी नहीं है. बेटे ही हैं कमाने वाले. अब किस्मत पर तो जोर है नहीं. चिंता तो खाए ही जा रही है कि कब उनके चेहरे देख पाएंगे.’- रामफल आंखों में पानी भरते हुए कहते हैं.

अनिल और प्रमोद की मां भी अपनी तकलीफ के बारे में बात करते हुए रो पड़ीं. वो कहती हैं, ‘यहां हर साल बाढ़ आती है. हर साल तबाही मचती है. अब लॉकडाउन ने और मुश्किल बढ़ा दी है. अब समझ नहीं आ रहा कि अपने पेट पालने की ज्यादा चिंता करें कि पंजाब में फंसे हुए बेटों की.’

‘वो फोन पर बताते हैं कि वो अंदर ही अंदर घुट रहे हैं. जब भी बात करते हैं, तब रोते हैं. सारे ही असहाय महसूस कर रहे हैं. उनके पास कोई मैसेज भी नहीं आ रहा कि किस ट्रेन से जाएं. इसलिए रेलवे स्टेशन पर घूमते रहते हैं.’-वह आगे कहती हैं.

लॉकडाउन के बाद जब दोनों बेटे वापस नहीं आ सके तो रामफल की बेटी उनकी देखभाल करने और काम में हाथ बंटाने के लिए उनके पास रहने आ गई. राजकुमारी दिप्रिंट को बताती हैं, ‘यहां कोई था नहीं माता-पिता की देखभाल कर सके. इसलिए मैं आ गई. बूढ़े हो गए हैं और सेहत भी सही नहीं रहती. लेकिन अब भाइयों की टेंशन में और ज्यादा बीमार रहने लगे हैं. दो बेटों को खो देने का डर कैसा होता है, ये जब खुद पर बीतती है तभी पता चलता है.’

राशन काफी नहीं

जब गांव वालों से पूछा कि क्या उन्हें सरकार की तरफ से कोई सहायता या फिर राशन मिला है तो उन्होंने कहा हां, लेकिन जितना मिला वह जीने के लिए काफी नहीं है. यहां कि सबसे बड़ी समस्या बाजार या फिर किसी भी जरूरत के लिए जिले के किसी बाजार या बैंक पहुंचने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. ये गांव जिलों और शहरों से बिलकुल कटे हुए हैं, एक कोने में.

दिप्रिंट ने यहां के एसडीएम सुरेश कुमार से बात की. उन्होंने कहा, ‘ हमारा प्रशासन हर मुमकिन कोशिश कर रहा है लोगों की समस्याओं को सुलझाने की. लोगों की समस्याओं को सुनने और सुलझाने के लिए हमने एक कंट्रोल रूम भी बनाया है साथ ही पुलिस हेल्पलाइन नंबर 112 तो है ही कि जो भी परेशानी मे हों हमें फोन कर सकता है.’

‘गांव वालों की समस्याओं का निवारण करना बीडीओ सोमनाथ चौरसिया के हाथों में हैं साथ ही जनसुनवाई पोर्टल भी प्रवासी मजदूरों को ध्यान में रख कर बनाई गई है कि लोग उसके माध्यम से भी हम तक पहुंच सकते हैं.’

सुरेश कुमार ने हमें बताया कि बीती रात करीब 125 लोग मुंबई और उदयपुर से आए हैं. लोग लगातार वापस आ रहे हैं. हमने अपना निजी नंबर तक इनलोगों के लिए खोल दिया है कि अधिक से अधिक लोग हम तक पहुंच सकें. वह बताते हैं, ‘हर दिन 100 से अधिक फोन आ रहे हैं. अभी तक 1000-1200 लोग बिस्वां विभिन्न ट्रांसपोर्ट के माध्यमों से लौट चुके हैं. ‘

‘हम उनकी स्क्रीनिंग कर रहे हैं अगर उनमें लक्षण मिलते हैं तो प्रोटोकॉल पूरा किया जाता है. हमने बड़ी संख्या में कनवेंस तक मुहैया कराया है अगर हमें पता चला है कि लोग परेशानी में हैं.’

यही नहीं एसडीएम सुरेश कुमार ने दिप्रिंट को यह भी बताया कि हर महीने की 1 से 10 तारीख तक हम लोगों को राशन मुहैया कराते हैं और यह डिस्ट्रीब्यूशन का काम गांव के लेखपाल और सूबेदार के हाथों में हैं जो गांवों में जाकर जरूरतमंदों की पहचान भी कर रहे हैं.

गेहूं के बदले जरूरी सामान

इन दो गांवों के लोग अपनी आजीविका के लिए खेती-बाड़ी और पशुपालन पर आश्रित हैं. हालांकि लॉकडाउन के चलते कई किसानों की फसलें अभी भी खेतों में खड़ी हैं क्योंकि जो लोग दूसरे गांवों से मजदूर बुलाते थे वो नहीं आ सके. जिन्होंने गेहूं निकाल लिया है, वो भी उसे बेच नहीं पा रहे हैं. इन गांवों से गुजरते हुए हमने देखा कि कैश की कमी के चलते यहां लोग राशन की दुकानों और फलों के लिए भी गेहूं तोलकर दे रहे थे.


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दिनेश राज बताते हैं, ‘गर्मी बढ़ रही है और आंधी तूफान भी शुरू हो गया है. लॉकडाउन के दौरान मंडी तक कैसे अनाज बेचने जाएं. अब कैश भी नहीं गांवों में. शहर तक सफर करना भी मुश्किल है. कोई साधन ही नहीं चल रहा.’ दिनेश दुर्गापुरवा गांव के रहने वाले हैं.

फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

इस गांव के लोग दिप्रिंट को बताते हैं कि बैंक से कैश निकालने के लिए भी नदी के किनारे वाले रास्ते से दस किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है. इसलिए वो तरबूज खरीदने के लिए भी गेहूं तौल कर दे देते हैं. ज्यादातर सामान गेहूं के बदले ही खरीदा जा रहा है.

इसी गांव के संजय कहते हैं, ‘पंद्रह दिन बाद ये नदी हमारे लिए कहर बनकर आएगी. हम अपने पशुओं को उनके हाल पर छोड़ देंगे और खुद पेड़ों पर ऊंची अटान बनाकर रहेंगे जब तक कि पानी कम नहीं हो जाता.’

हालांकि बीडीओ सोमनाथ चौरसिया से कई बार बात करने की कोशिश की गई लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई है.

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