जहनी तौर पर कोई सिनेमा लंबे समय तक असर छोड़े, ऐसा कुछ बॉलीवुड फिल्मों में कम ही नज़र आ रहा है. इसलिए बॉलीवुड का दर्शक इन दिनों दक्षिण भारतीय फिल्मों की तरफ आकर्षित हो रहा है और वह इसे बड़ी संजीदगी से देखता है.
घिसी-पिटी स्क्रिप्ट पर बॉलीवुड में दो घंटे लंबी फिल्में बनाने की एक रीत पुरानी है, लेकिन पिछले कुछ सालों में नए डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और स्क्रिप्ट राइटर नए-नए विषयों पर भी फिल्में लेकर आए हैं महिला डायरेक्टर और प्रोड्यूसर्स ने भी लीक से हटकर काम किया है. इसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.
लेकिन प्रतीकात्मकता के सहारे बहुत सारी बातें कहने की शैली और बहुत कुछ छोड़ देनी की चालाकी, दर्शकों के बीच काफी सारे भ्रम भी छोड़ जाती है. इसका अच्छा उदाहरण बीते दिनों आई द कश्मीर फाइल्स फिल्म है.
इस बीच अभिषेक बच्चन और यामी गौतम अभिनीत फिल्म दसवीं- शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय को तो अच्छे से उभारती है लेकिन निर्देशन और स्क्रिप्ट के स्तर पर ये दर्शकों के सामने काफी सारी उलझनें भी पैदा करती है.
दसवीं फिल्म में हरित प्रदेश का जिक्र किया गया है, जिसे भारत के हरियाणा राज्य के प्रतीक के तौर पर देखा जा सकता है और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला की राजनीति और उनके व्यक्तित्व जैसा ही गंगा राम चौधरी का किरदार गढ़ा गया है जो भ्रष्ट सिस्टम को मजबूत करता है.
फिल्म का एक दिलचस्प डॉयलाग गंगा राम चौधरी की भ्रष्ट राजनीति को अच्छी तरह बयां करता है, जिसमें एक कैदी उससे कहता है- ‘आपका मिज़ाज अलग ही है चौधरी साहब, हंसी मजाक में ही सही, खाने-पीने की बात तो मानते हो ‘.
हालांकि राजनीति में दिलचस्पी लेने वालों और उत्तर भारत का कोई भी शख्स आसानी से इस बात को समझ जाएगा कि ये फिल्म किस व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनाई गई है.
गुरुवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई तुषार जलोटा निर्देशित दसवीं शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय को राजनीति के माध्यम से पेश करने में सफल साबित हुई है लेकिन साथ ही ये फिल्म ऐसा अधूरापन भी छोड़ जाती है जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.
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‘जो इतिहास को भूलते हैं, वो खुद इतिहास हो जाते हैं’
हरित प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर विराजमान गंगा राम चौधरी (अभिषेक बच्चन), को फिल्म में एक शिक्षक भर्ती घोटाले की वजह से जेल जाना पड़ता है, जिसके चलते राज्य की सत्ता उनकी पत्नी (निमरत कौर) के हाथों में चली जाती है.
जेल में रहने के दौरान शुरुआत में तो गंगा राम चौधरी तमाम सुख-सुविधाओं का फायदा उठाता है लेकिन नई जेलर ज्योति देसवाल (यामी गौतम) के आने के बाद चौधरी उन सच्चाईयों से रू-ब-रों होता है जिससे वो अनजान है.
ज्योति देसवाल को एक सशक्त और मजबूत पुलिस अधिकारी के तौर पर दिखाया गया है जो अपनी ड्यूटी के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है, चाहे उसके सामने पूर्व मुख्यमंत्री से भी निपटने की चुनौती क्यों न आई हो. वहीं फिल्म में उस भ्रष्ट व्यवस्था को भी उकेरा गया है जिसके तहत जूनियर पुलिस अधिकारी अपने वरिष्ठों की चापलूसी करने से नहीं थकते.
ऐसी ही स्थिति गंगा राम चौधरी के पर्सनल सेक्रेटरी, जो आईएएस अधिकारी है, की भी है- जो हर वो काम करता है जो मुख्यमंत्री कहता है. इसी व्यवस्थागत कमियों की तरफ बीते दिनों आरबीआई के पूर्व गवर्नर और रिटायर्ड आईएएस अधिकारी दु. सुब्बाराव ने अपने लेख में किया था जिसका मुख्य थीम ये था कि कैसे आईएएस अधिकारी अपना काम ठीक तरह से नहीं कर रहे हैं.
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बोझिल शुरुआत से अच्छे संदेश तक
दसवीं फिल्म की शुरुआत काफी बोझिल है और उबाऊ लगती है लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, वैसे ही इसमें एक लयात्मकता दिखती है जो इसकी शुरुआत से ही दिखनी चाहिए. फिल्म जो संदेश देना चाहती है, उसे पर्दे पर उतारने के लिए निर्देशक तुषार जलोटा काफी समय ले लेते हैं.
हालांकि जेल में रहते हुए गंगा राम चौधरी 10वीं पास करने के बारे में सोचता है और इसके लिए पढ़ाई शुरू कर देता है जिसमें उसके साथी कैदी और जेल की सुपरेटेंडेंड ज्योति देसवाल मदद करती है.
लेकिन 10वीं की पढ़ाई करने के दौरान गंगा राम चौधरी आज़ादी के वक्त के उन किरदारों की तरफ आकर्षित होता है जिनकी भारती की आज़ादी में महत्वपूर्ण भूमिका है. लेकिन गांधी, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, लाला लाजपत राय, सुभाषचंद्र बोष जैसे किरदारों को तो दिखाया गया है लेकिन जवाहर लाल नेहरू को शामिल नहीं किया गया है. इसके पीछे के कारण दर्शकों को काफी संकेत देते हैं.
हालांकि कुछ प्रेरक गानों के साथ फिल्म आगे बढ़ती है और गंगा राम चौधरी की पत्नी के हाथों में सत्ता आने से उसका आत्मविश्वास और घमंड भी बढ़ता जाता है, जिसकी वजह से वो चौधरी के जेल से बाहर निकलने के बाद भी कुर्सी नहीं छोड़ती और कहती है- ‘पॉलिटिक्स में रिश्ते नहीं फायदो जरूरी होवे हैं‘.
जेल से निकलने के बाद चौधरी नए गठबंधन के सहारे चुनाव में एक क्रांतिकारी विषय के साथ राजनीति में प्रवेश करता है और लोगों से ‘फ्री शिक्षा’ का वादा करता है. गंगा राम चौधरी की राजनीति के तरीके में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के केजरीवाल सरकार की छाप दिखती है.
फिल्म में आखिर में गंगा चौधरी कहते हैं- ‘शिक्षा से मेरे जैसा रंगा-शियार भी इंसान बन जाता है ‘. यही विषय और संदेश इस फिल्म को खास बनाती है. वरना स्क्रिप्ट के तौर पर कुमार विश्वास ने भले ही देशज और स्थानीयता का ध्यान रखा है लेकिन उससे असर पैदा होता नहीं है.
अभिषेक बच्चन, गंगा राम चौधरी के रूप में एक बार फिर अपने आपको साबित करने में कामयाब रहे हैं. डायलॉग डिलीवरी हो या फिर हाव-भाव वह काफी मंझे हुए नज़र आते हैं. अब यह कहना गलत होगा कि अभिषेक को एक्टिंग नहीं आती और वो अपने पिता की विरासत नहीं संभाल पाए. समय के साथ उनकी अदाकारी में भी काफी सुधार हुआ है. यामी गौतम ने भी अपने किरदार के साथ इंसाफ किया है.
सिनेमा प्रेमी इस फिल्म को बॉलीवुड सिनेमा में नए विषयों को लेकर हो रहे प्रयोग की वजह से देख सकते हैं. हालांकि निर्देशक फिल्म के किरदार को भी मजबूती से स्थापित नहीं कर पाए हैं लेकिन फिर भी इस सिनेमा को जरूर देखना चाहिए.
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