महात्मा गांधी की मृत्यु के करीब तीन वर्षों के बाद सरकार ने मुंबई के 28 साल के मूर्तिशिल्पी सदाशिवराव साठे को राष्ट्रपिता की एक आदमकद प्रतिमा बनाने का जिम्मा सौंपा था. इस मूरत को राजधानी के चांदनी चौक स्थित टाउन हॉल के बाहर स्थापित किया जाना था. साठे ने तब तक कोई बहुत उल्लेखनीय काम नहीं किया था. पर वे संभावनाओं से लबरेज युवा मूर्तिकार के रूप में अपनी पहचान बनाने लगे थे. उन्होंने इतने खास दायित्व को चुनौती के रूप में लिया और गांधी जी की अप्रतिम मूरत की रचना करके अपनी रचनाधर्मिता को साबित कर दिया. यह प्रतिमा 1952 में स्थापित की गई थी.
गांधी जी की देश या राजधानी में लगी संभवत: यह पहली आदमकद प्रतिमा है. इस मूर्ति में भाव और गति का कमाल का संगम देखने को मिलता है. इसे आप कुछ पल रूककर अवश्य देखते हैं.
हालांकि टाउन हॉल में गांधी जी की प्रतिमा लगने के बाद संसद भवन, राजघाट, ग्यारह मूर्ति वगैरह में उनकी प्रतिमाएं लगीं. पर साठे ने उनमें से किसी को नहीं बनाया. संसद भवन और राजघाट की मूर्तियों को राम सुतार ने और ग्यारह मूर्ति को देवीप्रसाद राय चौधरी ने बनाया था.
सदाशिवराव साठे कहते थे कि वे बचपन से ही महात्मा गांधी से प्रेरित रहे थे. इसलिए उन्हें जब भी बापू की आदमकद या धड़ प्रतिमा बनाने का मौका मिला तो उसे उन्होंने मना नहीं किया. उन्हीं सदाशिव राव साठे का बीते सोमवार (30 अगस्त) को मुंबई में निधन हो गया. वे 95 साल के थे.
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चित्रों और शिल्प में डूबा कलाकार
मृदुभाषी साठे ने देश के महापुरुषों की अनेक अप्रतिम प्रतिमाएं बनाईं. जितनी देश में, उतनी ही विदेश में भी. महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, छत्रपति शिवाजी, विनोबा भावे आदि की प्रतिमाएं इनमें प्रमुख हैं. साठे ने ही गेटवे ऑफ इंडिया पर छत्रपति शिवाजी और ग्वालियर में रानी लक्ष्मी बाई की भी जीवंतप्राय: मूर्तियां बनाईं. वे भी हरेक भारतीय और मराठी मानुष की तरह मानते हैं कि शिवाजी महाराज एक धर्मनिरपेक्ष राजा थे.
सदाशिव राव साठे ने कंक्रीट, मिट्टी, प्लास्टर ऑफ पेरिस और अन्य उपलब्ध संसाधनों से आकर्षक मूर्तियां तैयार कीं. वे धुन के पक्के थे, कभी थकते नहीं थे. मौसम के असर से बेखबर यह अनोखा कलाकार अपने चित्रों और शिल्पों में इतना डूबा होता था कि दिन और रात का भेद भूल जाता था. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनके अनन्य प्रशंसको में थे.
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सर्वश्रेष्ठ कृति
उन्होंने देश-विदेश में सैकड़ों आदमकद और धड़ प्रतिमाएं बनाई थीं. पर वे मानते थे कि उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति टाउन हॉल के बाहर लगी गांधी जी की मूर्ति ही है.
कला मर्मज्ञ कहते हैं कि साठे को देश के नायकों की लार्जर देन लाइफ फौलादी प्रतिमाओं को चट्टान या पहाड़ के शीर्ष पर खड़ा देखना बहुत अच्छा लगता था बनिस्बत किसी चारदीवारी के अंदर बनी इमारत में.
शिवाजी से लेकर तिलक तक की मूर्तियां
गांधी जी की मूरत बनाने के बाद सदाशिव राव साठे राजधानी के विभिन्न स्थानों पर लगी महापुरुषों की मूर्तियों की रचना करते रहे. कनॉट प्लेस से जो सड़क मिंटो रोड की तरफ जाती है, वहां पर ही छत्रपति शिवाजी महाराज की सन 1972 में आदमकद प्रतिमा की स्थापना करके दिल्ली ने भारत के वीर सपूत के प्रति अपने गहरे सम्मान के भाव को प्रदर्शित किया था. इस मूर्ति को भी साठे ने ही तैयार किया था.
इस अश्वारोही प्रतिमा को किसने मुग्ध होकर न निहारा होगा. छत्रपति शिवाजी का घोड़ा एक पैर पर खड़ा है. हवा में प्रतिमा तभी रहेगी जब संतुलन के लिए पूंछ को मजबूत छड़ से गाड़ दिया जाए, यह बात सदाशिव साठे जैसे कलाकार ही समझ सकते थे.
‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा ‘ जैसा प्रेरक नारा देने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की राजधानी के सबसे व्यस्त चौराहे तिलक ब्रिज पर लगी 12 फीट ऊंची प्रतिमा को भी सदाशिव राव साठे ने ही तैयार किया था. इसे करीब से देखकर लगता है कि मानों वे राजधानी पर पैनी नजर रख रहे हों. ये प्रतिमा बेहद जीवंत लगती है.
सदाशिव राव साठे ने ही राजधानी के सुभाष मैदान में स्थापित नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके साथियों की लाजवाब आदमकद प्रतिमा बनाई थी. इसे पहले एडवर्ड पार्क कहा जाता था.
इधर नेता जी की अपने साथियों के साथी लगी आदमकद मूर्ति का अनावरण 23 जनवरी, 1975 को उनके जन्मदिन पर तब के उपराष्ट्रपति बी.डी. जत्ती ने किया था. उस अवसर पर सदाशिव साठे जी भी मौजूद थे. जिस दिन नेताजी की मूर्ति का सुभाष पार्क में अनावरण हुआ था उस दिन सुभाष पार्क पुरानी दिल्ली वालों से खचाखच भरा हुआ था. मानो सारी पुरानी दिल्ली उन लम्हों की गवाह बनना चाहती थी.
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चित्रकला और मूर्तिकला पर जबर्दस्त पकड़
सदाशिव साठे अश्वारोही प्रतिमाएं गढ़ने में सिद्धहस्त थे. धार रियासत के सुप्रसिद्ध मूर्तिकार फड़के साहब का अश्वारोही प्रतिमाएं बनाने में कोई मुकाबला नहीं था. साठे की कला में यूरोपीय कला का प्रभाव साफ दिखता था. लेकिन सदाशिव साठे की कला में एक देशज ठाठ दिखाई देता है. उनकी चित्रकला और मूर्तिकला, दोनों विषयों पर समान अधिकार था. उन्होंने देशभर में अपने काम को प्रदर्शित किया. उनकी मूर्तियां मुंह से बोलती हैं.
सदाशिव राव साठे काम अपनी शर्तों पर करते थे. वे खुद तय करते थे कि किसी शख्सियत की मूर्ति को किस तरह से बनाना है. एक बार किसी काम को लेने के बाद उसमें वे दिन-रात जुट जाते थे. उनकी रचनाओं में कोई कमी नहीं निकाल सकता था. जब उनके काम को कोई देखेगा तो उनकी याद आएगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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