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Saturday, 4 October, 2025
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आईआईटी रुड़की ने पेरासन मशीनरी के सहयोग से गेहूं के भूसे से टेबलवेयर विकसित किए

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देहरादून, चार अक्टूबर (भाषा) पर्यावरणीय चुनौतियों के लिए स्थायी और अभिनव समाधान ढूंढने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान (आईआईटी) रुड़की की इनोपैप (इनोवेशन इन पेपर एंड पैकेजिंग) प्रयोगशाला ने औरंगाबाद स्थित पैरासन मशीनरी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के सहयोग से गेहूं के भूसे से पर्यावरण-अनुकूल टेबलवेयर (खाने की मेज पर प्रयुक्त होने वाले बर्तन) विकसित किए हैं।

यह प्रौद्योगिकी एक साथ दो गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं — फसल अवशेष जलाने और एकल-उपयोग प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण— का समाधान करती है ।

गेहूं के भूसे को सांचे में ढालते हुए स्वभाविक रूप से नष्ट होने वाले तथा गलकर खाद में तब्दील होने वाले टेबलवेयर में बदलकर इस तकनीक ने पारंपरिक प्लास्टिक का एक टिकाउ, गर्मी प्रतिरोधी और भोजन सुरक्षित विकल्प प्रस्तुत किया है । इसने “मिट्टी से मिट्टी तक” के दर्शन को मूर्त रूप दिया है जो धरती से उत्पन्न होकर मानव उपयोग के बाद बिना कोई पयावरणीय निशान छोड़े पुनः धरती में समा जाता है।

इस परियोजना का नेतृत्व करने वाले कागज़ प्रौद्योगिकी विभाग के प्रो. विभोर के. रस्तोगी ने कहा, “यह शोध दर्शाता है कि कैसे फसल के अवशेषों को उच्च-गुणवत्ता वाले, पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता है । यह विज्ञान और इंजीनियरिंग की उस क्षमता को प्रदर्शित करता है जो पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित और आर्थिक रूप से व्यवहार्य समाधान प्रदान कर सकती है।”

भारत में हर वर्ष लगभग 35 करोड़ टन कृषि अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसका बड़ा हिस्सा जला दिया जाता है या बेकार छोड़ दिया जाता है। यह नवाचार न केवल इस पर्यावरणीय हानि को रोकेगा बल्कि किसानों को अतिरिक्त आय का स्रोत प्रदान कर अपशिष्ट को संपदा में बदलने वाले चक्रीय अर्थव्यवस्था मॉडल की दिशा में कदम बढ़ाएगा ।

यह पहल स्वच्छ भारत मिशन, आत्मनिर्भर भारत और संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी)— विशेष रूप से एसडीजी 12 (जिम्मेदार उपभोग और उत्पादन) तथा एसडीजी 13 (जलवायु कार्रवाई)— के अनुरूप है ।

आईआईटी रुड़की के निदेशक प्रो. कमल किशोर पंत ने कहा, “यह नवाचार समाज की वास्तविक चुनौतियों का समाधान करने के प्रति संस्थान की प्रतिबद्धता को दर्शाता है । यह स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया जैसे राष्ट्रीय अभियानों को मज़बूती प्रदान करता है तथा प्रयोगशाला अनुसंधान को व्यावहारिक प्रभाव में बदलने का उदाहरण है।”

इस नवाचार में पीएचडी छात्रा जैस्मीन कौर और पोस्ट डॉक्टरल शोधकर्ता डॉ. राहुल रंजन ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भाषा दीप्ति शफीक रंजन

रंजन

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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