पश्चिमी चंपारण/ गया: गांव से पुलिस थाने तक जाने वाली एक ऊबड़-खाबड़ सड़क पर सिर्फ आधे घंटे की दूरी पर थी लेकिन 14 साल की सुमन और उसकी मां के लिए यह उनके जीवन का तय किया गया सबसे मुश्किल सफर था. बाद में उन्होंने यह भी सोचा होगा कि आख़िर उन्होंने यह कष्ट क्यों किया.
जब ये दोनों मां-बेटी किराए के वाहन में बगाहा पुलिस ज़िले (पश्चिमी चंपारण) के एक मात्र महिला थाने पहुंची, तो उन्हें थानाध्यक्ष के कक्ष में ले जाया गया.
वहां सुमन ने एसएचओ उमाशंकर मांझी को बताया कि किस तरह उसके एक 55 वर्षीय रिश्तेदार ने बार-बार उसका रेप किया, उसे एक ख़तरनाक गर्भपात कराने के लिए मजबूर किया, और अब उसे धमका रहा था. इस मामले में पंचायत ने पीड़िता के रिश्तेदार को 2 लाख रुपए मुआवज़ा देने के लिए कहा है.
लेकिन यह सब सुनने के बाद एफआईआर दर्ज करने करने या जांच शुरू करने की बजाय एसएचओ ने मां-बेटी को वापस भेज दिया और उनपर दवाब बनाया कि अपराधी के साथ मामले को सुलटा लें.
बिहार में एक के बाद एक मामलों में जांच करने के बाद दिप्रिंट को पता चला है कि और महिलाओं के साथ भी पुलिस ने ऐसा ही बर्ताव किया है.
पश्चिम चंपारण से 350 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थिति गया जिले में जांच अधिकारी सुधीर कुमार ने अपने फोन से पीड़िता को कथित तौर पर अश्लील क्लिप्स भेजीं और उस पर अपने साथ सेक्स के लिए दबाव बनाया.
इन दोनों मामलों में उच्च अधिकारियों ने दख़ल दी. बगाहा पुलिस अधीक्षक (एसपी) किरन कुमार गोरख जाधव ने मांझी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई, जिसे इसी महीने जांच पूरी होने तक सेवा से निलंबित कर दिया गया. गया के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) हरप्रीत कौर ने, कुमार की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए.
हालांकि दोनों ही ख़बरें, यौन हिंसा की शिकार पीड़िताओं के लिए न्याय के वायदे और बहुत सारे पुलिस थानों की वास्तविकता के बीच के भारी अंतर को उजागर करती हैं, जहां शिकायतकर्त्ताओं को अक्सर उदासीनता, संदेह, यहां तक कि और अधिक अत्याचार का सामना करना पड़ता है.
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‘पुलिस हमारा आख़िरी ठिकाना थी’
छोटी कद काठी वाली, कुर्ता पहने हुए सुमन अभी भी बच्ची ही है. यौन हमलों की शुरुआत होने से केवल दो महीने पहले ही सुमन को अपना पहला पीरियड हुआ था. उसे ठीक से याद भी नहीं है कि कब, सिवाय इसके कि उस समय बारिश हो रही थी.
उसकी कठिन परीक्षा तब शुरू हुई जब उसके माता-पिता, जो दिहाड़ी मजदूर हैं, ने उसे एक दूर के रिश्तेदार के पास सहायता के लिए भेज दिया, जिसकी पत्नी सर्जरी के लिए कहीं गई हुई थी. लेकिन सुमन के रिश्तेदार ने उसका शोषण करना शुरू दिया.
अपनी मां के साथ पीएम आवास योजना के तहत अधूरे बने अपने मकान के बरामदे में बैठे हुए सुमन ने बताया, ‘उसने लगातार तीन दिन मेरा बलात्कार किया, और कहा कि अगर मैंने किसी को बताया, तो वो छुरी से मेरी जान ले लेगा’.
कुछ महीनों के बाद पता चल गया कि वो गर्भ से थी. उसे सर्दियों का वो दिन आज भी याद है, इस साल 31 जनवरी को जब वो आदमी उसके घर आया. उस समय सुमन के माता-पिता बाहर थे. सुमन के रिश्तेदार ने उसे एक गोली निगलने के लिए मजबूर किया, ताकि गर्भपात हो जाए.
उसकी मां ने बताया, ‘वो घर के कच्चे फर्श पर लेटी थी और उसे लगातार ख़ून बह रहा था’. ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला परिवार चिकित्सा सहायता का ख़र्च नहीं उठा सकता था, इसलिए उन्होंने सुमन को पीने के लिए दूध दिया ताकि उसकी कुछ ताक़त वापस आ सके.
दो दिन बाद, 2 फरवरी को गांव वासियों ने मामले पर विचार-विमर्श के लिए एक पंचायत बुलाई, और वह निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभियुक्त को मुआवज़े के रूप में परिवार को, कम से कम 2 लाख रुपए देने चाहिएं, जिससे उन्हें सुमन की शादी का बंदोबस्त करने में सहायता मिल सके.
उस व्यक्ति ने सुमन के बलात्कार का आरोप स्वीकार कर लिया, और दो महीने में वो रक़म चुकाने को राज़ी हो गया, जिसके बाद एक लिखित घोषणा तैयार की गई, जिसपर स्टांप लगाकर पंचायत सदस्यों ने अपने दस्तख़त किए.
लेकिन जब रक़म अदा करने का समय क़रीब आया, तो अभियुक्त का मन कुछ बदल गया, और उसने कथित रूप से सुमन और उसके परिवार को धमकियां देनी शुरू कर दीं.
यही वो समय था जब परिवार ने झिझकते हुए महिला पुलिस स्टेशन जाने का फैसला किया, जहां वो एसएचओ मांझी से मिले जिसने उन्हें एफआईआर दर्ज कराने से रोकने की कोशिश की, और उनसे कहा कि बलात्कारी के साथ मामले को ऐसे ही निपटा लें.
लेकिन, स्टांप किया हुआ वो पेपर न्यूज़ 18 के एक स्थानीय पत्रकार मुन्ना राज के हाथ लग गया, और उसने महिला थाना एसएचओ के बारे में ख़बर छाप दी. ये ख़बर ज़िला मुख्यालय तक पहुंच गई, और एसएचओ के खिलाफ तुरंत कार्रवाई कर दी गई.
इसी महीने, मांझी के खिलाफ आईपीसी की धारा 166 के अंतर्गत (सरकारी कर्मचारी जो दूसरे को चोट पहुंचाने के इरादे से कानून का उल्लंघन करता है), एफआईआर दर्ज कर दी गई.
‘अगर तुम उसके साथ ऐसा कर सकती थीं, तो मेरे साथ क्यों नहीं?’
गया के डेल्हा पुलिस थाने में, जांच अधिकारी सुधार कुमार का मामला थोड़ा अलग था. उसने 20 साल की बबीता के यौन हमले से जुड़ी शिकायय के मामले में सब कुछ सही किया था. बबीता ने अपने साथ लंबे समय से होते आ रहे यौन हमले को लेकर शिकायत दर्ज कराई थी. 14 साल की उम्रे से वह यह सब झेल रही थी.
आईओ कुमार ने एक एफआईआर दर्ज की, और गया सिविल कोर्ट में अभियुक्त के खिलाफ एक चार्जशीट भी दाख़िल की. लेकिन बबिता ने बताया कि दिक़्क़त यह थी कि वो अपने इस काम के बदले में कुछ चाहता था.
उसने दिप्रिंट को बताया कि इसकी शुरुआत ज़बानी परेशान करने से हुई. बबिता ने कहा, ‘वो कहता था, ‘अगर तुमने उसके साथ ऐसा किया है, तो मेरे साथ क्यों नहीं?’ मैंने उससे कहा कि वो तो बुरा आदमी था, क्या आप भी बुरे हैं?’
कुमार ने देर रात बबीता से फोन पर संपर्क करना शुरू कर दिया. ‘वो वीडियो कॉल करता था और मुझसे अपनी बॉडी दिखाने के लिए कहता था. लेकिन जब उसने मुझे एक पोर्न क्लिप भेजी, तो मैं सबूत के तौर पर उसे एसएसपी के पास ले गई’. इसके बाद कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया.
लेकिन बबीता के प्रति हर किसी का रवैया सहानुभूतिपूर्ण नहीं है, ख़ासकर इसलिए कि वो एक ‘आदर्श पीड़िता’ के प्रोफाइल पर फिट नहीं बैठती.
वो 14 साल की थी जब उसने औरंगाबाद ज़िले में अपना शहर छोड़ दिया, और अपने एक 45 वर्षीय पड़ोसी के साथ गया आ गई. जिस आदमी के साथ बबीता आई थी उसने बताया कि उसे ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में एक निजी सहायक की नौकरी मिल गई थी. उसने बबिता को सुनहरे ख़्वाब दिखाए थे लेकिन वह पांच साल तक उसका यौन शोषण करता रहा.
बबीता याद करते हुए बताती हैं, ‘मैंने उससे कहा कि मुझे स्कूल में दाख़िला दिला दे, लेकिन उसने मुझे पीटना शुरू कर दिया. मुझे पता चल गया कि वो किसी सरकारी विभाग में चपरासी है. उधर वापस शहर में, उसकी पत्नी और बच्चों ने मुझे गालियां देनी शुरू कर दीं. लेकिन वो मुझे जाने नहीं देता था’.
2021 में, बबिता आख़िरकार अपने उत्पीड़क के खिलाफ, डेल्हा पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर दर्ज कराने में कामयाब हो गई, और उसने अपने माता-पिता के साथ फिर से रिश्ते बनाने शुरू कर दिए.
लेकिन महिला थाने में भी, जहां उसने बाद में आईओ के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई, अधिकतर पुलिसकर्मी उसे एक ‘ढीले चरित्र’ की महिला समझते हैं, हालांकि उसने सुबूत भी पेश किए हैं.
डेल्हा पुलिस स्टेशन में बबिता के बारे में पूछे जाने पर एक महिला सिपाही ने कहा, ‘वो इसी के लायक़ है. किस तरह की महिला अपने परिवार को छोड़कर, अपने पिता की उम्र के व्यक्ति के साथ भागती है? वो 420 लड़की है’
दूसरी ओर, गिरफ्तार हुए जांच अधिकारी के लिए व्यापक सहानुभूति है, जिसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (किसी महिला की लज्जा भंग करने के उद्देश्य से उस पर आपराधिक बल प्रयोग), और अश्लील सामग्री के संचार से संबंधित आईटी एक्ट की धाराओं के तहत, एफआईआर दर्ज हुई थी.
एक दूसरी महिला कॉन्सटेबल ने, जो कुमार के साथ काम कर चुकी है, कहा, ‘सुधीर कुमार एक सम्मानित परिवार से आते हैं. उनकी पत्नी एक टीचर हैं और उनके बेटे भी अच्छी नौकरियों में हैं. वो स्मार्टफोन्स के बारे में सीख रहे थे. वो उसे कैसे परेशान कर सकते थे?’
बबिता अपने बारे में अफवाहों से अच्छी तरह वाकिफ है, लेकिन उसे कोई ग्लानि नहीं है.
उसने निडरता से कहा, ‘हां, ये सही है- मैं ये सोचकर भागी थी कि वो आदमी मुझे कोई नौकरी दिलाएगा. लेकिन क्या इसका ये मतलब है कि कोई पुलिस वाला भी मेरे साथ गंदी हरकत कर सकता है?’
‘मेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है…अगर कोई और भी मुझे कुछ कहता है, तो मैं शिकायत करूंगी’.
‘शिकायत तब दर्ज होती है, जब महिला भरोसे लायक़ हो’
आप हर सुनी हुई बात पर यक़ीन नहीं कर सकते, ख़ासकर जब कोई महिला यौन-उत्पीड़न के बारे में शिकायत कर रही हो- बहुत से पुलिसकर्मी इसी बात को दोहराते नज़र आते हैं.
गया के महिला थाने में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर कमल नयन ने समझाया कि पीड़ितों के सूंघने का टेस्ट किया जाता है, और उसके बाद ही उन्हें गंभीरता से लिया जाता है.
उन्होंने कहा, ‘अगर लड़की किसी गार्जियन या परिवार के सदस्य के साथ आती है और केस विश्वसनीय लगता है, तो हम फौरन शिकायत दर्ज कर लेते हैं’.
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन अगर लड़की अकेले ही पुलिस स्टेशन में आकर रिपोर्ट कर रही है, तो फिर हमें उसके बारे में सोचना पड़ता है…कि क्या ये कोई निजी लफड़ा है, या वास्तव में केस है’.
लेकिन उनके एसएचओ रवि रंजाना, जिन्होंने सुधार कुमार के मामले की भी जांच की थी, इससे सहमत नहीं हैं.
उन्होंने कहा, ‘मैंने बहुत बार अपने लोगों को समझाया है, कि ऐसे मामलों में संवेदनशीलता के साथ पेश आएं, लेकिन समाज में प्रचलित एक आम व्यवहार पुलिस थानों में भी दिखाई देता है’.
यौन हिंसा की शिकार पीड़िताओं के लिए सुविधाएं नदारद
बिहार पुलिस के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, कि राज्य में 40 महिला थाने हैं जो हर ज़िले में मौजूद हैं, लेकिन उनमें भी जब कोई महिला यौन अपराध की शिकायत करती है, तो एक ‘आम प्रवृत्ति यही होती है कि ये एक झूठा केस है’.
दिल्ली में 2012 के ‘निर्भया’ गैंगरेप और हत्या मामले के बाद, बलात्कार क़ानूनों में संशोधनों की सिफारिश के लिए जस्टिस वर्मा कमेटी का गठन किया गया. कमेटी ने पुलिस सुधारों के लिए कई उपाय सुझाए, तथा पीड़िताओं की उचित चिकित्सा-कानूनी जांच के लिए भी सुझाव दिए.
कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है, कि हर पुलिस थाने में कम से कम हेड कांस्टेबल रैंक की एक ‘महिला पुलिस अधिकारी’ चौबीसों घंटे मौजूद रहनी चाहिए. रिपोर्ट में कहा गया कि जैसे ही कोई शिकायत प्राप्त होती है, ड्यूटी ऑफिसर को ‘रेप क्राइसिस सेल को उसके अधिसूचित नंबर पर’ सूचना देनी चाहिए.
रिपोर्ट में आगे भी व्याख्या की गई है, कि पीड़िता और उसके परिवार को आराम महसूस कराने की ज़रूरत होती है’. उसमें ये भी कहा गया है कि पीड़िता को काउंसलिंग सेवा उपलब्ध कराई जानी चाहिए, जो पुलिस की आरंभिक जांच या पीड़िता को मेडिकल जांच के लिए ले जाने ने से पहले ही, उन्हें उनके अधिकारों और क़ानूनी सहायता की सुविधा के बारे में अवगत करा दे.
जब दिप्रिंट की टीम ने गया और चंपारण में महिला थानों का दौरा किया, तो वहां स्टाफ की कमी नज़र आई, और पीड़िताओं के लिए बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं. संदिग्धों के लिए बने हाजत (लॉक अप कक्ष) भी धूल से भरे थे, और स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल होते थे.
ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे आभास हो सके, कि जस्टिस वर्मा कमेटी की किसी भी सिफारिश पर वहां अमल हो रहा है, न अक्षर में न भावना में.
यौन हमलों से उचित ढंग से निपटने के लिए, सुविधाओं की कमी के बारे में पूछने पर, एक पुलिस अधिकारी ने बेतुका या जवाब दिया: ‘आजकल शराब बंदी पर ज़ोर है, इसलिए हम उन मामलों में लगे हुए हैं’.
फिर भी, पिछले कुछ समय से बिहार सरकार, पुलिस मशीनरी को यौन अपराधों की पीड़िताओं के प्रति ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाने के लिए कुछ क़दम उठा रही है. मसलन, इस साल जनवरी में सरकार ने ऐलान किया, कि महिलाओं की सुरक्षा और मर्यादा की ख़ातिर, पहलक़दमियां उठाने के लिए स्थापित कोष- निर्भया फंड की सहायता से, वो पुलिस थानों में महिलाओं के लिए हेल्प-डेस्क स्थापित करेगी. राज्य में महिलाओं के लिए कोई रेप क्राइसिस सेल नहीं हैं.
राज्य अकसर पुलिसिंग में और अधिक जैंडर संतुलन की प्राथमिकता पर ज़ोर देता है. वास्तव में पुलिस बल में महिलाओं की क़रीब 25 प्रतिशत संख्या (33 प्रतिशत के लक्ष्य के सामने) के साथ, बिहार इस मामले में सबसे अच्छा प्रांत है.
लेकिन, एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने कहा, कि ऐसा ज़रूरी नहीं है कि इससे कोई बहुत बड़ा फर्क़ पड़ जाएगा. उन्होंने एक केस की मिसाल दी, जिसकी ख़बर पिछले साल राष्ट्रीय मीडिया में आई थी.
उन्होंने बताया, ‘चार साल पहले गया में एक डीएसपी पर, 14 साल की एक नाबालिग़ के रेप का आरोप लगा था. एसएसपी थीं गरिमा मलिक – एक महिला जो ज़िले के सबसे ताक़तवर पद पर बैठी थीं. फिर भी, डीएसपी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. जून 2021 में उसकी फाइल वरिष्ठ अधिकारियों को भेजी गई, और काफी दबाव के बाद एफआईआर दर्ज की गई’.
उन्होंने कहा, ‘अगर ऐसे केस में ये हो रहा है जिसमें बहुत से वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं, तो हम सोच सकते हैं कि सामान्य मामलों में क्या होता होगा. बल के अंदर महिलाएं तभी कोई अंतर ला पाएंगी, जब हम उनमें जेंडर-संवेदनशीलता पैदा करेंगे’.
अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) पुलिस अनिल किशोर यादव ने दिप्रिंट से कहा, ‘अपने पुलिस बल की ट्रेनिंग के लिए, हम एनजीओज़ के साथ सहयोग कर रहे हैं’.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ओर से पिछले वर्ष जारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार में रेप की घटनाओं में, 2019 से (730 दर्ज मामले) से 2020 (806) के बीच 10 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. 2020 में रेप के प्रयास के 110 मामले दर्ज हुए, जबकि पिछले साल ये संख्या 69 थी.
ज़्यादा संयत करने वाले आंकड़ों में, अदालतों में लंबित मामले और दोषसिद्धि की बहुत कम संख्या शामिल हैं.
मसलन, महिलाओं के खिलाफ अपराध के 2017 के एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार (विशेष रूप से रेप के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं), बिहार में 56,714 मुक़दमे ऐसे थे जो पिछले साल से लंबित थे. 2020 में ऐसे मामले 81,678 थे. 2017 में ऐसे 563 मामलों में अपराध साबित हुए, और 2,473 में रिहाई हुई थी. 2020 में, जब कोविड लॉकडाउन ने अदालतों के काम को और धीमा कर दिया था, तो कुल 174 दोषसिद्धियां हुईं और 222 मामलों में दोषमुक्ति हुई.
*निजता की सुरक्षा की ख़ातिर सभी रेप पीड़िताओं के नाम बदल दिए गए हैं.
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