भोपाल: खुशी क्या है? मनुष्य इस क्षणिक भावना के अहसास के लिए हजारों सालों से न जाने क्या-क्या करता रहा है, इसे लेकर हमारे दार्शनिक हमेशा बंटे रहे हैं.
अरस्तू ने इसे एक अच्छे या समृद्ध जीवन का सार करार दिया; नीत्शे की नजर में खुशी आस-पास के माहौल पर नियंत्रण से जुड़ी होती है, वहीं भारतीय दर्शन का तर्क है कि संतुष्टि ही जीवन में खुशी का राज है.
लेकिन भोपाल के शिवाजी नगर इलाके में स्थित एक मामूली दफ्तर से संचालित मध्य प्रदेश के एक छोटे-से विभाग का मानना है कि खुशी आत्मनिरीक्षण, ‘संस्कार’ और भावनात्मक समर्थन में निहित होती है.
यह दफ्तर ‘राज्य आनंद संस्थान’ का है जिसे शिवराज सिंह चौहान सरकार ने 2016 में ‘आनंद विभाग (हैप्पीनेस डिपार्टमेंट)’ के तहत स्थापित किया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य में लोग खुश रहें.
कुछ मेज-कुर्सियों से सजे एक छोटे से हॉल वाले विभागीय कार्यालय में काम कर रहे मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अखिलेश अर्गल और पांच अन्य अधिकारियों ने ‘मिशन आनंद’ की कमान संभाल रखी है.
अर्गल के मुताबिक, उनका ध्यान ‘दैनिक जीवन में आत्मनिरीक्षण—जिसमें हम किसी अन्य को सही या गलत ठहराने से पहले खुद को आंकते हैं और अपने मनोविज्ञान को समझते हैं’—और ‘लोगों के बीच एक सकारात्मक वातावरण बनाने’ पर केंद्रित है.
जैसा दिप्रिंट ने पाया सीईओ के पास करीब 60,000 वालंटियर हैं, जिनमें ज्यादातर राज्य सरकार से ही जुड़े हैं. ये ‘वालंटियर’ आनंदक के नाम से जाने जाते हैं और ‘आनंद सभा’ नामक कार्यशालाओं- जिसके तहत खेल और भजन आदि आयोजन किए जाते हैं- के माध्यम से लोगों के बीच खुशियां फैलाने में मदद करते हैं. यह बात अलग है कि वह चौहान सरकार की तरफ से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिलने का रोना रोते हैं.
हालांकि, इन आयोजनों में हिस्सा लेने वाले राज्य के नागरिक बार-बार एक जैसी गतिविधियों के दोहराव और वालंटियर के उदासीनता रवैये के कारण बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं दिखते.
थोड़े समय ही पुराने इस संगठन का इतिहास भी बहुत ज्यादा खुशनुमा नहीं रहा है.
जैसा कि राज्य मंत्री विश्वास सारंग दावा करते हैं कि दिसंबर 2018 और मार्च 2020 के बीच कुछ ही महीनों के लिए सत्ता में रही कांग्रेस सरकार ने मध्य प्रदेश के लोगों से ‘खुशी’ छीन ली थी, जब उसने इस संगठन को ‘आध्यात्मिक विभाग’ का हिस्सा बना दिया. विभाग को इस साल जनवरी में ही एक बार फिर अलग पहचान के साथ बहाल किया गया है.
लेकिन अस्तित्व में आने के पांच सालों के दौरान दो सालों में महामारी ने भी इसे काफी हद तक प्रभावित किया है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में ही जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है और आनंदकों के लिए अपना काम करना मुश्किल हो गया है.
कार्यक्रमों में निरंतरता के अभाव, केवल छोटी-मोटी गतिविधियों के ही आयोजन और विभाग के पास अपनी गतिविधियों को लेकर कोई रोडमैप न होने को लेकर इसकी काफी आलोचना भी हुई है.
लेकिन इस सबने विभाग के दफ्तर को बहुत प्रभावित नहीं किया. यहां अभी भी लोगों का जीवन खुशहाल बनाने के लिए योजनाएं बनाई जा रही और मिशन आनंद जारी है.
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विभाग के गठन का क्या था उद्देश्य
सबसे पहले भारत के पड़ोसी देश भूटान ने ‘सकल राष्ट्रीय खुशी’ के विचार को अपनाया और इसे समग्र दृष्टिकोण के साथ विकास के वैकल्पिक साधन के तौर पर 1998 में संयुक्त राष्ट्र के समक्ष पेश किया. मध्य प्रदेश सरकार ने भी ऐसा ही रास्ता अपनाया है.
राज्य आनंद संस्थान की वेबसाइट के मुताबिक, ‘विकास का पैमाना जीवन मूल्यों पर आधारित होने के साथ ही नागरिकों के बीच खुशियां फैलाने वाला भी होना चाहिए.’
आनंद और कल्याण के पैमाने को पहचानना और परिभाषित करना; खुशियां फैलाने के लिए परस्पर समन्वय के साथ दिशानिर्देश तय करना; आनंद की अवधारणा को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाना और उन पर अमल की प्रक्रिया को मुख्यधारा में लाना आदि इस संगठन की प्रमुख जिम्मेदारियों में शामिल है.
सीईओ अर्गल के मुताबिक, उनके विभाग ने ‘आनंदक’ की अगुआई में जिलों में ‘आनंद बस्ती’ या ग्राम समूहों की स्थापना की है. वह कहते हैं कि यह सब बेहद कम खर्च के साथ किया जा रहा है लेकिन इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनकी पहल एक कल्याणकारी कदम है.
अर्गल ने कहा कि विभाग का सालाना बजट करीब तीन करोड़ रुपये है. विभाग किसी प्रशिक्षण या प्रशिक्षक पर किसी तरह का निवेश नहीं करता है, यह केवल कुर्सियां, कॉपी मशीन, स्टेशनरी आदि मुहैया कराता है.
इसके साथ ही, बच्चों और बुजुर्गों, महिलाओं और दिव्यांगों के लिए अलग-अलग तरह के कार्यक्रम हैं.
उन्होंने कहा, ‘हमारे अपने कार्यक्रम हैं, जिसमें बच्चों को भी शामिल किया जाता है. आजकल के बच्चे ‘संस्कार’ की पूरी अवधारणा से अपरिचित होते हैं क्योंकि वे संयुक्त परिवारों में नहीं रहते. हम इसे ध्यान में रखकर उन्हें इससे परिचित कराने की कोशिश करते हैं. उन्हें बुनियादी तौर-तरीके, जीवन के पारंपरिक मूल्य आदि सिखाए जाते हैं.’
अर्गल ने कहा, ‘हमारे पास बुजुर्गों, महिलाओं और दिव्यांगों के लिए भी अलग-अलग कार्यक्रम हैं. चूंकि महामारी के कारण फिजिकल क्लास लेना संभव नहीं था, इसलिए हमने जूम और वेबेक्स जैसे डिजिटल तरीके अपनाने की कोशिश की.’
इन कार्यशालाओं के दौरान विभाग ने योग सत्र और रस्साकशी, खो-खो जैसी गतिविधियों का आयोजन किया. बुजुर्गों और बच्चों दोनों को भजन गाने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया.
यह पूछने पर कि विभाग लोगों तक कैसे पहुंच रहा है, अर्गल ने कहा, ‘हम इसके लिए अपने वालंटियर पर निर्भर हैं और ऐसे बहुत लोग हैं जो अपने क्षेत्रों में प्रतिभागियों को शामिल करते हैं. योग शिक्षक, स्कूल और कॉलेज के शिक्षक, पत्रकार, आर्ट ऑफ लिविंग आदि के लोग इससे जुड़े हुए हैं.’
उन्होंने बताया, ‘हमारे पास अभी तक लोगों के लिए अलग से कोई आउटरीच प्रोग्राम नहीं है. प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए लोग हमसे संपर्क साधते हैं और यह सब वह खुद अपने साधनों से करते हैं. हालांकि, जब यहां फिजिकल वर्कशॉप हुई थी तब हमने लंच की व्यवस्था जरूर की थी.’
कौन हैं वालंटियर और वे क्या करते हैं?
विभाग पूरी तरह से वालंटियर पर निर्भर है, जो इन कार्यक्रमों और कार्यशालाओं का आयोजन करते हैं.
दिप्रिंट ने 25 ऐसे वालंटियर से संपर्क साधा जिनके फोन नंबर आधिकारिक वेबसाइट पर सूचीबद्ध थे. उनमें से ज्यादातर सरकारी स्कूल टीचर थे, या फिर अपने क्षेत्र के किसी सरकारी कार्यालय से जुड़े थे, या पूर्व सरकारी अधिकारी थे. केवल दो लोग निजी संगठनों से जुड़े थे.
निवारी के एक वालंटियर वी.के. पुरोहित सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं. वह पिछले तीन साल से विभाग से जुड़े हैं.
उन्होंने कहा, ‘हमने हाल में 14 से 28 जनवरी तक एक कार्यशाला आयोजित की और इसमें हमने आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-छोटे समूह बनाए. इसमें महिलाओं और बच्चों की पूरी भागीदारी रही. हमने पारंपरिक खेलों पर ध्यान केंद्रित किया और भजन गाए.’
पुरोहित ने कहा, ‘बच्चों के बीच हमने परीक्षा का डर दूर करने पर कुछ सत्र आयोजित किए. मुझे लगता है कि इस कार्यक्रम के लिए और अधिक स्ट्रक्चर होना चाहिए. हमारे पास पर्याप्त लोग नहीं हैं और यह पूरी तरह से वालंटियर पर निर्भर है. हम इसके बलबूते पर इसे सौ फीसदी सफल बनाने की उम्मीद नहीं कर सकते.’
मध्य प्रदेश के सीधी निवासी पत्रकार राजकुमार पटेल भी विभाग से जुड़े एक वालंटियर हैं. उनका मानना है कि यद्यपि कार्यक्रम का दायरा बहुत बड़ा नहीं है. लेकिन फिर भी काम किया जा रहा है.
पटेल ने कहा, ‘हमारे कार्यक्रमों में निरंतरता नहीं बन पा रही और इसके लिए कोई वित्त पोषण भी नहीं है. हम बुजुर्गों के लिए छोटी कार्यशालाएं आयोजित करते रहते हैं जिन्हें दैनिक जीवन में इसकी जरूरत होती है और उन्हें सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर कुछ मदद मिल जाती है. जहां भी संभव होता है हम फिजिकल वर्कशॉप आयोजित करने की कोशिश करते हैं.’
‘बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शन’
हालांकि, इन कार्यशालाओं में हिस्सा लेने वालों के पास इस सब पर खुशी जाहिर करने के लिए ज्यादा शब्द नहीं हैं.
इंदौर के एक सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल के प्रिंसिपल प्रफुल्ल शर्मा ने अपने क्षेत्र के आसपास इस विभाग की कार्यशालाओं में हिस्सा लिया था.
शर्मा ने कहा, ‘इन सेशन का संचालन करने वाले लोग गतिविधियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में विश्वास करते हैं. उन्होंने फोटो क्लिक कीं और उन्हें वेबसाइट पर अपलोड कर दिया. यह सब अपने फायदे के लिए किया गया. कौन जाने किसने फेक तस्वीरें जुटाई हैं, इसका पता लगाने का कोई तरीका नहीं है. प्रचार करना ही सब कुछ नहीं, असली काम तो होना चाहिए. वे लोगों को छोटे-छोटे समूहों में बुला सकते थे और जागरूकता बढ़ा सकते थे या जिनके घर में मौतें हुईं उनकी मदद कर सकते थे. इसलिए, मैंने जाना बंद कर दिया.’
उन्होंने भी इस बात को रेखांकित किया कि महामारी के दौरान विभाग नदारत रहा.
शर्मा ने कहा, ‘इस विभाग को कोविड-19 के दौरान लोगों को मानसिक संबल देना चाहिए था, भले ही वे सीधे तौर पर राहत कार्य में शामिल न होते.
दूसरी लहर बहुत भयावह थी और उस समय हमें लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए विभाग की जरूरत थी.’
मुरैना के रवि गुप्ता ने भी कुछ इसी तरह की राय जताई और साथ ही गतिविधियों में दोहराव की बात रेखांकित की.
गुप्ता ने कहा, ‘मैंने महामारी से पहले उनके फिजिकल सेशन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था और मुझे शुरू में यह पसंद आया लेकिन उनकी गतिविधियां दोहराई जाती रहती हैं. कम से कम पिछले दो वर्षों में तो कोई नयापन नहीं दिखाई दिया है. अधिकांश प्रतिभागी और प्रशिक्षक दोनों ही सरकारी कर्मचारी होते थे और वे किसी तरह सेशन खत्म होने का इंतजार करते थे.’
शर्मा ने कहा, ‘ऑनलाइन सेशन भी एक मजाक ही है, कितने लोग जानते हैं कि वेबेक्स सेशन में कैसे हिस्सा लेना होता है?’
हैप्पीनेस सर्वे
हैप्पीनेस सर्वे के जरिये राज्य के लोगों में खुशियों का स्तर पता लगाना और फिर इस पर तैयार रिपोर्ट को प्रकाशित करना इस विभाग की अहम जिम्मेदारियों में शुमार है.
2019 में विभागीय अधिकारियों ने करीब 80 विशेषज्ञों के साथ मिलकर उन मापदंडों पर मंथन किया था जो राज्य के लोगों में खुशियां ला सकते हैं. एक प्रश्नावली तैयार की गई, जिसमें करीब 30 प्रश्न थे. जिसमें लोगों को कल्याणकारी योजनाओं, शिक्षा, आर्थिक स्थितियों आदि पर अनुभव जैसे मापदंडों पर सरकार को 1-10 के पैमाने पर आंकना था. उसी साल इस पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर के साथ एक टाई-अप भी किया गया.
हालांकि, महामारी के कारण हैप्पीनेस सर्वे पटरी से उतर गया. और तीन साल बीत जाने के बाद भी अभी तक यह सर्वे नहीं किया गया है. अब विभाग इसी साल सर्वेक्षण करने की योजना बना रहा है.
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आलोचकों की क्या है राय
अपने एनजीओ विकास संवाद के माध्यम से पोषण नीतियों पर सरकार के साथ काम कर रहे बाल अधिकार कार्यकर्ता राकेश मालवीय का कहना है कि आनंद विभाग के कार्यक्रमों पर जमीन स्तर पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है.
मालवीय ने कहा, ‘हमें अभी ऐसे ज्यादा लोग नहीं मिलेंगे जिन्हें इन कार्यक्रमों के बारे में पता हो. इसका फायदा अभी पर्याप्त लोगों तक नहीं पहुंचा है.’
कांग्रेस पार्टी, जो चाहती थी कि यह विभाग सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करे और ‘सर्वधर्म संभव के विचार को मजबूत करे’, ने भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं.
कांग्रेस सरकार के दौरान इस विभाग से जुड़े रहे पूर्व मंत्री पी.सी. शर्मा ने महामारी के दौरान विभाग की गतिविधियां ठप रहने पर सवाल उठाए.
शर्मा ने दिप्रिंट से कहा, ‘जब दूसरी लहर के दौरान लोगों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब ये पदाधिकारी कोई मदद करते नजर नहीं आए. हम ऐसी छोटी-मोटी गतिविधियों के सहारे हैप्पीनेस इंडेक्स सुधार नहीं कर सकते. हमें स्वास्थ्य और रोजगार पर ठोस नीतियों की जरूरत है तभी सही मायने में लोगों में खुशी का माहौल होगा. मुझे नहीं लगता कि इस विभाग से लोगों को कोई मदद मिली है, यह अवधारणा खोखली है.’
हालांकि, अर्गल ने आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहा कि वे जमीन स्तर पर सक्रिय थे.
विभाग के एक पूर्व अधिकारी के अनुसार, कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों ने इस मिशन को ‘आक्रामक ढंग से’ आगे नहीं बढ़ाया.
अपना नाम न छापने की शर्त पर पूर्व अधिकारी ने कहा, ‘छिटपुट गतिविधियां चलती रही हैं और इसकी वजह भी है कि इसके लिए कोई फंड नहीं है. यह कागज पर तो अच्छा दिखता है लेकिन अगर मुख्यमंत्री वाकई इसके सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सुनिश्चित करना चाहते हैं तो इस पर स्पष्ट राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए. लेकिन किसी भी सरकार ने इस विभाग को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की जिसे महामारी के दौरान बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता था जब वालंटियर की वास्तव में बहुत जरूरत थी
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