केरल में बीते दिनों एक 24 वर्षीया विवाहित महिला विस्मय नायर की कथित तौर पर दहेज के कारण मौत ने पितृसत्तात्मक समाज की क्रूर सच्चाई को एक बार फिर से सामने ला दिया है.
एक और रिपोर्ट से पता चलता है कि 1970 के बाद से केरल में दहेज का चलन लगातार बढ़ा है और साथ ही हरियाणा, पंजाब और गुजरात में भी इसका विस्तार हो रहा है. दहेज का लेन-देन भारत में सिर्फ हिंदू समुदाय के बीच ही नहीं बल्कि पिछले कुछ सालों में ईसाई और सिखों के बीच भी इसमें काफी वृद्धि देखी गई है.
इसी के साथ ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2021 में भारत 28 स्थान नीचे गिरकर 156 देशों में 140वें स्थान पर है. जून 2020 में आई विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं का काम में भागीदारी का दर गिरकर 20.3 प्रतिशत रह गया है जो कि 1990 में 30 प्रतिशत हुआ करता था.
वहीं अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने अपने अध्ययन में पाया कि कोरोना महामारी के कारण देश में लगे लॉकडाउन में महिलाओं के काम छूटने की संभावना 7 गुना ज्यादा थी वहीं उनके काम में वापस न लौटने की संभावना भी काफी थी. ऑक्सफैम की 2020 की रिपोर्ट भी दावा करती है कि महिलाओं के साथ किस तरह की असमानता बरती जाती है.
इन कुछ आंकड़ों के जरिए ये समझ जरूर बन सकती है कि भारतीय समाज में महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार होता है और उनके काम को कितनी तरजीह दी जाती है. लेकिन दुनियाभर में समाज के इस विरूपित सच का मुकाबला करने के लिए नारीवादी समूहों ने दशकों से जेंडर इक्वेलिटी पर जोर दिया है और उसके कई आयामों पर लंबे समय से सामुदायिक दायरे में बहस छेड़ी है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर निवेदिता मेनन भी अपनी किताब ‘नारीवादी निगाह से ‘ में उन्हीं बहसों, सवालों, नारीवादी सिद्धांतों की बेहद जटिल अवधारणाओं को विस्तार से बताती हैं.
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नारीवादी निगाह
नारीवादी निगाह से देखने का मतलब है मुख्यधारा तथा नारीवाद, दोनों की पेचीदगियों को लक्षित करना. किताब में जैविक शरीर की निर्मिति, जाति-आधारित राजनीति द्वारा मुख्यधारा के नारीवाद की आलोचना, समान नागरिक संहिता, यौनिकता और यौनेच्छा, घरेलू श्रम के नारीवादीकरण तथा पितृसत्ता की छाया में पुरुषत्व के निर्माण जैसे मुद्दों की पड़ताल की गई है.
नारीवाद का मतलब समझाते हुए निवेदिता मेनन बताती हैं, ‘इसका मतलब हर उस प्रभुत्वशाली सत्ता के मुकाबले हाशिये पर सिमटा और अपेक्षाकृत शक्तिहीन प्राणी होता है, जो केंद्र की पूरी जगह को हजम कर जाती है.’
लेखिका स्पष्ट तौर पर कहती हैं, ‘नारीवाद केवल महिलाओं के राजनीतिक रवैये या उनकी जीवन-शैली तक सीमित नहीं है, बल्कि अगर पुरुष इस नज़रिये के हामी बनना चाहते हैं तो उन्हें अपने उन विशेषाधिकारों का त्याग करना होगा जिनके बारे में वे कभी अलग से सोचने की जहमत नहीं उठाते.’
लेखिका बताती हैं कि नारीवादी राजनीति में कई प्रकार की सत्ता-संरचनाएं सक्रिय हैं जो इस राजनीति का मुहावरा एक दूसरे से अलग-अलग बिंदुओं पर अंत:क्रिया करते हुए गढ़ती है.
किताब में नारीवादी राजनीति तथा सत्ता के जेंडर-आधारित रूपों की कार्यप्रणाली, शिक्षण संस्थाओं में जेंडर आधारित बहसों को समझाया गया है.
गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में एक परिवर्तन नाम की सोसाइटी है जो हर सप्ताह जेंडर आधारित विषयों और उसके अलग-अलग आयामों के बारे में छात्रों से संवाद करती है.
किताब में नारीवाद के इतिहास में न जाकर उन सवालों पर चर्चा की गई है जो सत्ता के जेंडर स्वरूप और नारीवादी राजनीति से टकराती हैं. इस किताब से ये उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि इसमें नारीवाद का पूरा खांका मिलेगा लेकिन इस मुद्दे पर सामान्य समझ बनाने के लिए ये उपयुक्त है.
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‘यौन-भिन्नता’ पर टिका परिवार
किताब की शुरुआत में लेखिका निवेदिता मेनन भारतीय परिवार के उस ढांचे को बताती है जो पितृसत्ता के इर्द-गिर्द चलती है. वो कहती हैं, ‘परिवार केवल पितृसत्तात्मक, विषमलिंगी परिवार ही हो सकता है- एक पुरुष, एक स्त्री और पुरुष के बच्चे. परिवार की संस्था उत्तराधिकार और वंश परंपरा की व्यवस्था का बहुत कड़ाई से पालन करती है और इसकी बुनियाद यौन-भिन्नता पर टिकी है.’
परिवार के ढांचे के बारे में बताते हुए वो श्रम के यौन विभाजन पर जोर देती हैं और कहती हैं कि इसका सेक्स से कोई ताल्लुक नहीं है बल्कि यह पूरी तरह जेंडर आधारित है जिसमें कुछ कामों को ये मान लिया जाता है कि ये महिलाओं का ही काम है. घरेलू कामों में लगी महिलाओं के बीच असमानता की खाई को भी वो कई उदाहरणों के जरिए उभारती हैं.
वास्तविक देह क्या है और इस पर समय-समय पर क्या-क्या बहसें चली और भारतीय समाज में इसे किस तरह से देखा जाता है, इसे बताने के लिए किताब में कई उदाहरण दिए गए हैं. इसमें क्वीयर राजनीति, धारा-377 और अदालतों में चले मामलों के जरिए भी बहस के मुद्दों को सामने रखा गया है.
लेखिका ने उन कानूनों, आंदोलनों और अदालतों के फैसलों का भी जिक्र किया है जिनपर नारीवादी आंदोलनों का प्रभाव रहा. वो कहती हैं कि एड्स के बाद जागरूकता बढ़ने के बाद ही यौनिकता के मुद्दे पर भारत में बात होनी शुरू हुआ जिसे 1990 के दशक में मीडिया के प्रसार ने और बढ़ा दिया.
नारीवादी धड़े में यौन हिंसा के मुद्दे पर चली बहस और भारतीय कानूनों में इसे किस रूप में दर्ज किया गया और इन कानूनों की विसंगतियों का खाका भी लेखिका ने खींचा है.
मेनन बताती हैं, ‘नए कानूनों में बलात्कार की परिभाषा का तो विस्तार किया गया है परंतु उसमें अपराध के भिन्न-भिन्न रूपों में निहित हिंसा की प्रचंडता या उसकी प्रकृति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है.’
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‘नारीवादी अभिशासन’ और ‘दलित महिलावाद’
नारीवादी अभिशासन के बारे में लेखिका कहती हैं, ‘यह एक ऐसा श्वेत सार्वभौमवाद और राज्य-केंद्रित नारीवाद है जिसे ऊपर से थोपा गया है. दुनिया के गैर-पश्चिमी क्षेत्र में रहने वाले हम जैसे लोग इस नारीवाद की हिमायत नहीं कर सकते क्योंकि दरअसल वह नई विश्व-व्यवस्था तथा नव-साम्राज्यवाद का समर्थक है जो अपने रणनीतिक हितों के लिए महिला अधिकारों की भाषा बोलता है.’
एक और बहस ही तरफ लेखिका ध्यान दिलाती है और कहती हैं कि दलित महिलाएं मुख्यधारा के नारीवाद पर शक करती हैं. उन्हें यह नारीवाद विशेषाधिकारों से लैस और शहराती नारीवादियों से लदा दिखाई देता है. दलित बुद्धिजीवी सिंथिया स्टेफन ने इस तरह की राजनीति को बताने के लिए ‘दलित महिलावाद ‘ नाम सुझाया था.
लेखिका कहती हैं, ‘दलित और सवर्ण नारीवादियों में जिस तरह का झन्नाटेदार संवाद चल रहा है उससे उम्मीद बंधती है कि वह दोनों पक्षों के लिए उपयोगी होगा.’
किताब के अंत में लेखिका ने स्त्री के वस्तुकरण, यौन कर्म, बार-डांसर, मानव व्यापार, किराये की कोख, पोर्नोग्राफी, गर्भपात जैसे जरूर मुद्दों पर एक अलग ही दृष्टि से विचार किया है.
वो कहती हैं, ‘सत्ता की अन्य संरचना की तरह, पितृसत्ता का भी एक बाहरी परकोटा होता है जिससे इसके पूर्ण विकास में बाधक बनने वाले तत्वों को लगातार रसद पहुंचती रहती है. जिसे अकादमिक भाषा में नारीवाद कहा जाता है.’
‘नारीवादी निगाह से ‘ किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इसका अनुवाद नरेश गोस्वामी ने किया है. किताब का अनुवाद काफी अच्छा है और शब्दों की तारतम्यता कहीं टूटती हुई नज़र नहीं आती. किताब का आवरण (कवर) काफी आकर्षित करता है और इसे ध्यान से देखने पर कई दृश्य और विचार उभरते हैं.
नारीवाद जैसे बेहद जटिल विषय को समझने के लिए ये किताब उपयोगी हो सकती है लेकिन पूरे नारीवादी ढांचे को ये किताब नहीं समझाती. इसे समझना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया की ही तरह है, जैसा कि निवेदिता मेनन खुद भी कहती हैं-
‘नारीवाद धीरे-धीरे ही आता है. लेकिन उसका आना कभी रुकता नहीं.’
(‘नारीवादी निगाह से’ किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. निवेदिता मेनन इस किताब की लेखिका हैं और नरेश गोस्वामी अनुवादक हैं)
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