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Thursday, 25 April, 2024
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सिख और ईसाइयों में दहेज का लेन-देन खूब बढ़ा, केरल की स्थिति है सबसे खराब

विश्व बैंक की साइट पर 30 जून को प्रकाशित दो भाग वाले ब्लॉग में कहा गया है कि वधुओं की तरफ से दिए जाने वाले दहेज में वृद्धि के मामले में केरल का प्रदर्शन भारतीय राज्यों में सबसे खराब रहा है.

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 नई दिल्ली: ग्रामीण भारत में 1960 से अब तक हुई 40 हजार शादियों पर किए गए अध्ययन पर आधारित एक ब्लॉग के मुताबिक, देश में पिछले कुछ दशकों के दौरान सिख और ईसाई समुदायों के बीच दहेज के लेन-देन में खासी वृद्धि हुई है.

विश्व बैंक की साइट पर 30 जून को प्रकाशित दो भाग वाले ब्लॉग में कहा गया है कि वधुओं की तरफ से दिए जाने वाले दहेज में वृद्धि के मामले में केरल का प्रदर्शन भारतीय राज्यों में सबसे खराब रहा है.

ब्लॉग ने दिल्ली स्थित थिंक-टैंक नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के 2006 के ग्रामीण आर्थिक और जनसांख्यिकी सर्वेक्षण (आरईडीएस) का इस्तेमाल किया हैं, जिसमें देश की लगभग 96 फीसदी आबादी वाले 17 प्रमुख राज्यों को शामिल किया गया है.

इसने भारतीय राज्यों में दहेज के पैटर्न पर अध्ययन के लिए औसत शुद्ध दहेज का मानक इस्तेमाल किया- जिसका मतलब है कि दुल्हन के परिवार की तरफ से दूल्हे या उसके परिवार को दिए गए उपहारों के मूल्य और दूल्हे के परिवार की तरफ से दुल्हन और उसके परिवार को दिए गए उपहारों के मूल्य के बीच का अंतर.

ब्लॉग ने इस नतीजे पर पहुंचने के लिए 1960 से 2008 के बीच हुई 40,000 शादियों को ट्रैक किया. इसे लिखने वालों में विश्व बैंक अर्थशास्त्री एस अनुकृति, अमेरिका के स्टोर्स में स्थित कनेक्टिकट यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर निशीथ प्रकाश और अर्थशास्त्री सुंगोह क्वोन शामिल हैं.

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वर और वधू पक्ष के परिवारों पर आर्थिक बोझ में भारी असमानता को दिखाते हुए ब्लॉग में बताया गया है कि इस अवधि के दौरान 95 प्रतिशत शादियों में दहेज दिया गया.

यह भी नोट किया गया कि जहां किसी दूल्हे का परिवार दुल्हन के परिवार को उपहार पर देने पर औसतन 5,000 रुपये खर्च करता है, वहीं दुल्हन के परिवार की तरफ से दिए जाने वाले उपहार की कीमत सात गुना अधिक होती है, जो कि लगभग 32,000 रुपये है. इसका मतलब है कि औसत वास्तविक शुद्ध दहेज 27,000 रुपये है. मुद्रास्फीति का असर हटाने के बाद ये आंकड़े वास्तविक रूप में हैं.


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ब्लॉग के मुताबिक, यह पाया गया कि औसत शुद्ध दहेज 1975 से पहले और 2000 के बाद कुछ मुद्रास्फीति के साथ ‘समय के साथ उल्लेखनीय रूप से स्थिर’ रहा है. हालांकि, राज्यों के स्तर पर व्यापक भिन्नता पाई गई है.

भारतीय राज्यों में स्थिति

अन्य तमाम सामाजिक संकेतकों पर शानदार प्रदर्शन करने वाला केरल दहेज के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला साबित हुआ है.

ब्लॉग में कहा गया है, ‘केरल में 1970 के दशक से दहेज देने का चलन लगातार और तेजी से बढ़ा है और हाल के वर्षों में सबसे अधिक औसत दहेज यहीं लिया-दिया गया है.’ साथ ही जोड़ा, हरियाणा, पंजाब और गुजरात में भी वृद्धि का यही ट्रेंड नजर आया है.

केरल की आबादी की धार्मिक संरचना—26 प्रतिशत मुस्लिम, 18 प्रतिशत ईसाई और 55 प्रतिशत हिंदू—दहेज में सबसे ज्यादा वृद्धि का कारण बता सकते हैं.

इसी तरह, एक बहुसंख्यक राज्य पंजाब में इंफ्लेमेटरी ट्रेंड सिखों के बीच दहेज लेन-देन में वृद्धि को दर्शाता है.

हालांकि, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र राज्यों में पिछले कुछ वर्षों में औसत दहेज में कमी आई है.

चित्रण : रमनदीप/ दिप्रिंट

आंकड़े बताते हैं कि हरियाणा, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों में वर्ष 2000 के बाद से दहेज में तेज वृद्धि देखी गई.

इसके विपरीत, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां 1980 से पहले की अवधि में दहेज का लेन-देन अधिक था, इन वर्षों में धीरे-धीरे गिरावट नजर आई है.

अलग-अलग धर्म और जातियां पर कैसा रहा असर

भारत में सभी प्रमुख धार्मिक समूहों के बीच दहेज का लेन-देन प्रचलित है, जिसमें बहुसंख्यक समुदाय हिंदुओं में राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसा ट्रेंड ही दिखता है.

हालांकि, ब्लॉग में पाया गया कि दहेज का लेन-देन भारत में सिर्फ हिंदुओं के बीच ही नहीं होता. पिछले कुछ सालों में ईसाइयों और सिखों के बीच दहेज लेने-देने में खासी वृद्धि देखी गई है, जिससे हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में इनका औसत दहेज ज्यादा हो गया है.

चित्रण : रमनदीप/ दिप्रिंट

इसमें यह भी रेखांकित किया गया कि दहेज सीधे तौर पर उच्च जाति की स्थिति के साथ भी जुड़ा है. उच्च जाति के लोगों के विवाह में सबसे अधिक दहेज दिया जाता है, इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का नंबर आता है.

लड़कों और लड़कियों के माता-पिता का बचत पैटर्न अलग-अलग

ब्लॉग में बताया गया है कि भविष्य में दहेज बढ़ने की संभावना परिवारों की तत्कालीन बचत को भी बढ़ा देती है.

पहले जन्म लेने वाली लड़कियों के माता-पिता पहले जन्म लेने वाले लड़कों के माता-पिता की तुलना में अपनी बचत बढ़ा देते हैं जो हर वर्ष प्रति व्यक्ति 1,613 रुपये होती है. ब्लॉग में कहा गया है कि बढ़ी बचत को मुख्य रूप से आभूषण के रूप में संग्रह करने के बजाये वित्तीय संस्थानों के पास रखा जाता है.

इसमें यह भी बताया गया, ‘इस पैटर्न का कारण ग्रामीण भारत में वित्तीय संस्थानों और साधनों तक पहुंच बढ़ने और हाल के वर्षों में बैंक खातों में बचत की तुलना में आभूषण में निवेश कम फायदेमंद होना भी रहा है.’

यह इस विचार को भी खारिज करता है कि दहेज परिवारों के लिए बेटियों की तुलना में बेटों को तरजीह देने का एक प्रमुख कारण रहा है. इसमें कहा गया है, ‘डाटा दर्शाता है कि यदि माता-पिता को कम से कम एक बेटा है, तो लैंगिक आधार पर उनकी प्राथमिकताएं तटस्थ होती है, यह बेटे को वरीयता देने के पीछे दहेज की भूमिका होने पर संदेह उत्पन्न करता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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