नई दिल्ली: मोदी सरकार ने भारत में आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों के परीक्षण की जिम्मेदारी राज्यों को सौंपकर एक तरह से इस मामले को ठंडे बस्ते में ही डाल दिया है.
केंद्रीय पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सोमवार को राज्य सभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि बीटी बैंगन समेत विभिन्न जीएम फसलों का खेतों में वैज्ञानिक परीक्षण कराने संबंधी बीज निर्माताओं के प्रस्तावों पर जीएम मामले देखने वाली शीर्ष समिति जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की सिफारिशों के बिना कोई विचार नहीं करेगी, जहां परीक्षण किया जाना प्रस्तावित है.
सीधे तौर पर इसका मतलब यह है कि अब तक जहां जीईएसी ट्रायल के अनुरोधों को देख रहा था, वहीं अब उन पर राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ही कुछ भी तय करेंगे.
जावड़ेकर के अनुसार, सरकार ने आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ (बीकेएस) समेत तमाम किसान यूनियनों और गैर-सरकारी संगठनों के विरोध के बाद यह फैसला लिया है.
मंत्री का जवाब ये बात सामने आने के महीनों बाद आया है जिसमें कहा गया था कि सरकार ने मई 2020 में महाराष्ट्र की एक कंपनी को मध्य प्रदेश और कर्नाटक सहित आठ राज्यों में बीटी बैंगन के फील्ड ट्रायल की अनुमति दी है. ट्रायल में इस्तेमाल होने वाली किस्में सरकार संचालित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरई) द्वारा तैयार एक उत्पाद थीं.
हालांकि, माना जाता है कि कोविड-19 के कारण यह परीक्षण नहीं हो पाया. दो साल पहले, हरियाणा के एक किसान का मामला सामने आया था जो दो सालों से बीटी बैंगन की खेती और बिक्री कर रहा था, 2019 में इस बारे में पता लगने के बाद काफी हंगामा मचा था.
भारत में जीएम फसलें शुरू से ही विवादों के घेरे में रही हैं. इस प्रौद्योगिकी के समर्थक इसके तमाम लाभ गिनाते हैं मसलन, कम कीटनाशक का इस्तेमाल, कम पानी की जरूरत, उच्च उत्पादकता आदि. वहीं आलोचक इसे बिना किसी स्पष्ट लाभ वाली एक असफल प्रौद्योगिकी बताकर खारिज करते हैं, साथ ही इसमें विषाक्तता संभव होने के आरोप लगते हैं.
भारत में सिर्फ बीटी कपास की खेती को ही मंजूरी मिली हुई है, जबकि पड़ोसी देश बांग्लादेश ने बीटी बैंगन उगाने में काफी सफलता हासिल की है.
भारतीय किसान संघ ने सरकार के फैसले की सराहना करते हुए कहा है कि जीएम फसलों से जैव विविधता को खतरा है. हालांकि, प्रौद्योगिकी के तमाम समर्थक इसे ‘एक घातक कदम’ मानते हैं जो इसमें शामिल निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के खिलाड़ियों के लिए एक भारी झटका होगा. वे इसे केंद्र सरकार के अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने का संकेत भी मानते हैं.
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‘पैसा बर्बाद क्यों करें’
फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया के डायरेक्टर जनरल और एक उद्योग निकाय एलायंस फॉर एग्री इनोवेशन से जुड़े राम कौंडिण्य ने कहा कि सरकार का निर्णय ‘जीएम तकनीक के भविष्य को प्रभावित करेगा क्योंकि पहले से ही मौजूदा प्रक्रिया बेहद बोझिल है, जिसमें पिछले 10 सालों में कोई प्रगति नहीं हुई है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह एक घातक कदम है. तकनीकी क्षमता और सहमति बनाने (की जिम्मेदारी) का काम केंद्र का है. तकनीकी ज्ञान और विशेषज्ञता तो जीईएसी के पास है, न कि राज्यों के पास.’ साथ ही जोड़ा कि राज्यों की भूमिका तो तब शुरू होती है जब किसी फसल का विभिन्न कृषि-जलवायु वाले क्षेत्रों में परीक्षण किया जाना होता है.
कौंडिण्य ने कहा कि कई जीएम-संबंधित कंपनियां ‘अपना व्यवसाय तब तक बंद कर देंगी जब तक सरकार ये स्पष्ट नहीं करती है कि क्या वह यह प्रौद्योगिकी चाहती है…चूंकि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों ने इसमें सैकड़ों करोड़ रुपये का निवेश किया है.’ साथ ही कहा, ‘अगर उनका ट्रायल ही नहीं होता है तो उत्पादों पर पैसा क्यों बर्बाद करेंगे?’
बीटी बैंगन के फायदों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे काफी पैसों की बचत होगी क्योंकि इन बैंगन में कीटनाशक का इस्तेमाल कम करना पड़ता है. सबसे अधिक कीटनाशक के इस्तेमाल वाली सब्जी माने जाने वाले बैंगन में एक फसल चक्र (70-80 दिन) के दौरान के 35-40 बार स्प्रे के बजाये 5 से 6 बार कीटनाशक के इस्तेमाल से ही काम चल जाएगा. उन्होंने कहा कि इससे उपभोक्ताओं और पशुधन के लिए कीटनाशक संबंधी प्रदूषण का जोखिम घटाने में भी मदद मिलेगी.
उन्होंने कहा, ‘नए नियम जीएम फसलों के विकास/शुरुआत को बाधित करेंगे जो सूखे से बेअसर है, खारे पानी में भी उगाई जा सकती है, चावल और गन्ने जैसी फसलों में पानी और उर्वरक का उपयोग 25-50 प्रतिशत तक घटाती है और मिट्टी की उत्पादकता बढ़ाने के भी काम आती है.’
जीएम फसलों की आलोचना करने के लिए कृषि विज्ञानी समुदाय के पास बहुत कुछ नहीं है.
मध्य प्रदेश स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. वी.एस. तोमर का कहना है, ‘किसी भी वैज्ञानिक ने कभी यह दावा नहीं किया कि ये किस्में असुरक्षित हैं. महज ऐसी आशंकाओं के कारण जीएम गोल्डन चावल, जो विटामिन ए जैसे पोषक तत्वों की कमी पूरा करने वाला माना जाता है, को 1999 में लॉन्च किए जाने के बावजूद आगे नहीं बढ़ाया गया.’
सरकार के फैसले की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि ‘राज्य के संस्थानों और विभागों के पास इतनी तकनीकी विशेषज्ञता या संसाधन नहीं हैं जिससे वह बड़े पैमाने पर ऐसी विविधता विकसित कर पाएं और केंद्रीय प्राधिकरण को सिफारिश करने से पहले व्यापक स्तर पर परीक्षण कर पाएं.’
उन्होंने कहा, ‘नीति निर्धारण और आम सहमति बनाना केंद्र का काम है और इसके लिए राज्यों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है.’
मध्य प्रदेश बागवानी और खाद्य प्रसंस्करण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘बीटी बैंगन का अब कोई भविष्य नहीं है.’
अधिकारी ने कहा, ‘परीक्षण के बिना, देश में कोई खेती नहीं होगी. कीटनाशक और कीटाणुनाशक कंपनियां इन किस्मों का विरोध करने के लिए एनजीओ और सिविल सोसाइटी ग्रुप को आगे मोर्चे पर तैनात कर रही हैं क्योंकि वे कीट-पतंगों से बेअसर है, जो उनके कारोबार को प्रभावित करेगा.
उन्होंने कहा, ‘यह तर्क एकदम बेतुका है कि बीटी बैंगन विषाक्त साबित होगा क्योंकि बांग्लादेश में इसकी खेती की जा रही है और उसमें कोई समस्या नहीं आई है. किसान बंपर पैदावार और कम इनपुट लागत के साथ मुनाफा कमा रहे हैं.’
बांग्लादेश पिछले सात वर्षों से बीटी बैंगन की खेती कर रहा है और इसकी खेती से जुड़े किसानों की संख्या 2014 में 20 से बढ़कर 2018 में 27,012 हो गई थी.
बांग्लादेश और अमेरिका के शोधकर्ताओं की तरफ से 2020 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, पड़ोसी देश में बीटी बैंगन की पैदावार 51 प्रतिशत तक बढ़ी है और कीटनाशक की लागत 37.5 प्रतिशत घटी है. अध्ययन में पाया गया कि पैदावार इस वजह से भी ज्यादा बढ़ी है कि कीट-पतंगों के कारण बेकार हो जाने वाले बैंगन काफी कम थे. अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि बीटी बैंगन का उपयोग करने वाले किसानों की आय 128 प्रतिशत बढ़ी है.
साथ ही, इसमें यह भी बताया गया है कि बीटी बैंगन उगाने वाले किसानों को घरेलू इस्तेमाल के लिए 6.5 किलोग्राम अधिक बैंगन मिल पाए और इसमें कीटनाशक के कारण विषाक्तता मिलने की संभावना भी 11.5 प्रतिशत घट गई.
आईसीएआर-एनआईएपी यानी राष्ट्रीय कृषि अर्थशास्त्र और नीति अनुसंधान संस्थान (पूर्व में केंद्र था) के शोधकर्ताओं द्वारा ‘भारत में बीटी बैंगन के संभावित लाभ— एक आर्थिक आकलन’ शीर्षक से 2011 में किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि 15 फीसदी एडॉप्शन लेवल पर भी बीटी बैंगन 37 प्रतिशत ज्यादा पैदावार देगा और कीटनाशक का इस्तेमाल 42 प्रतिशत तक कम होगा.
अध्ययन में कहा गया है कि अगर शुद्ध लाभ की बात करें तो यह 11,029/हेक्टेयर रहने का अनुमान है.
60 प्रतिशत तक अपनाने पर बीटी बैंगन 119,000 टन का अतिरिक्त उत्पादन और शुद्ध लाभ 44,117 रुपये प्रति हेक्टेयर देगा. 15 फीसदी और 60 फीसदी फसल अपनाने पर देश को क्रमश: 577 करोड़ रुपये और 2,387 करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिल सकता है.
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‘प्रौद्योगिकी में खामी नहीं होनी चाहिए’
पिछले साल जब बीटी बैंगन के खेतों में परीक्षण को मंजूरी मिली थी तो इसे फसल के तौर पर स्वीकृति देने पर पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की तरफ से लगाई गई 10 साल की रोक के बाद एक बड़ी सफलता माना गया था.
हालांकि, आरएसएस से जुड़े एक और संगठन स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) ने इस कदम को ‘बुरी खबर’ बताते हुए सरकार को लिखा था कि ‘राष्ट्रीय हित’ को ताक पर रखकर ‘विवादास्पद प्रौद्योगिकी’ का रास्ता खोला गया है.
भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय सचिव (संगठन) दिनेश कुलकर्णी ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि बीटी बैंगन ‘बीटी कपास की तरह ही एक असफल प्रौद्योगिकी है, जो इसलिए नाकाम हो गई है क्योंकि वह अन्य तरह के कीटों की चपेट में आती है.’
उन्होंने कहा, ‘इससे न तो किसानों की लागत घटी है और न ही उपज बढ़ी. हम प्रौद्योगिकी के खिलाफ नहीं हैं पर वह खामी रहित होनी चाहिए. बीटी प्रौद्योगिकी पर भारत या विदेश में कोई अध्ययन इसके आर्थिक, सामाजिक या जैव विविधता संबंधी प्रभावों के बारे में नहीं हुआ है.’
इसमें साथ ही जोड़ा कि जीईएसी ‘बीटी कंपनियों की सहयोगी’ बन गई है.
उन्होंने कहा, ‘इसे खत्म करके फिर से गठित किया जाना चाहिए. यदि परीक्षण फिर शुरू होते हैं, तो हम उन्हें रोकने के लिए राज्यों को लिखेंगे क्योंकि यह एक ऐसी प्रौद्योगिकी है जो जैव विविधता को नष्ट कर देगी. हम राज्य सरकारों के संपर्क में हैं जो कि इन बीटी किस्मों के साथ आगे नहीं बढ़ने पर सहमत हैं.’
जीईएसी के अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि बीटी किस्मों के फायदे उनके बारे में आशंकाओं को दूर करते हैं लेकिन साथ ही कहा कि केंद्रीय समर्थन के बिना वे ट्रायल को आगे बढ़ने में असमर्थ थे.
एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘हमने स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संगठन की (बीज) कंपनियों के बीच कई बैठकें कराई लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.’
उन्होंने कहा, ‘आनुवांशिक संवर्द्धन पर समीक्षा समिति (आरसीजीएम) ने खेतों में ट्रायल के लिए नई किस्मों का डेटा हमें भेजा. हालांकि, अब नई जीएम फसलों के परीक्षण के लिए सिफारिश राज्यों को करनी होगी. राज्य में तकनीकी विशेषज्ञता और संसाधनों की कमी को देखते हुए यह असंभव ही है.’
अधिकारी ने कहा कि निजी खिलाड़ियों के लिए ‘भारी-भरकम निवेश के बाद विकसित अपनी किस्मों को राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने के लिए हर राज्य से संपर्क करना मुश्किल होगा.’
(सुनंदा रंजन द्वारा संपादित)
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