scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होमदेशकैसे सरकार बिजली संकट के लिए खुद जिम्मेदार, क्यों मानसून में एक और संकट का सामना करने के लिए रहना होगा तैयार

कैसे सरकार बिजली संकट के लिए खुद जिम्मेदार, क्यों मानसून में एक और संकट का सामना करने के लिए रहना होगा तैयार

मौजूदा समय में 165 ताप विद्युत संयंत्रों में से 106 में चालू अवस्था में हैं. इन संयंत्रों में कोयले का स्टॉक सामान्य रूप से जितना रहना चाहिए, उसके मानक स्टॉक से 25 प्रतिशत नीचे चला गया है.

Text Size:

नई दिल्ली: भारत में अप्रैल में सुर्खियों में रहने वाला बिजली संकट फिलहाल कम होने लगा है, न केवल पारा कुछ डिग्री नीचे आया है, बल्कि ऊर्जा की मांग भी घट रही है.

लेकिन, अगर बिजली मंत्रालय की ओर से राज्यों के साथ किए गए संवाद या भेजे गए पत्र को एक संकेत माने तो क्षेत्रीय विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा राहत कुछ ही समय के लिए है.

घरेलू कोयले की कम उपलब्धता के कारण देश में कुल बिजली की स्थिति अनिश्चित बनी हुई है और अगर भारत के ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले का स्टॉक मानसून से पहले नहीं बढ़ाया गया, तो पिछले अक्टूबर और अप्रैल 2022 के संकट का सामना एक बार फिर से करना पड़ सकता है.

केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) द्वारा जारी दैनिक कोयला स्टॉक रिपोर्ट के अनुसार, 20 मई तक 165 ताप विद्युत संयंत्रों में से 106 चालू अवस्था में हैं और इन संयंत्रों में कोयले का स्टॉक सामान्य रूप से जितना रहना चाहिए उसके मानक स्टॉक से 25 प्रतिशत नीचे चला गया है.

उदाहरण के लिए, पिथेड पावर स्टेशनों (जहां कोयला खदान थर्मल पावर प्लांट के पास स्थित होती है) को न्यूनतम 15 दिनों का कोयला स्टॉक रखना होता है, जबकि कोयला खदान से 1,000 किमी से ज्यादा दूरी वाले पावर स्टेशन को नॉन-पिथेड कहा जाता है. इन स्टेशनों को न्यूनतम 30 दिनों का स्टॉक रखना होगा.

165 चालू थर्मल प्लांट केंद्र, राज्य और निजी बिजली उत्पादकों द्वारा चलाए जा रहे हैं.

बिजली मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने निजी तौर पर माना कि स्थिति ठीक नहीं है. भारत में बिजली की 70 प्रतिशत जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयले पर ही निर्भर रहना पड़ता है.

नाम न जाहिर करने की शर्त पर बिजली मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘हम अप्रैल के संकट से निपटने में सक्षम थे. लेकिन, अगर राज्य अपना कोयला स्टॉक नहीं बढ़ाएंगे तो मानसून के मौसम में एक बार फिर से बिजली की कमी की का सामना करना पड़ सकता है.’

अधिकारी ने बताया कि धान की खेती का मौसम आने से न केवल सिंचाई से भार बढ़ेगा, बल्कि जून-जुलाई में गर्म और आर्द्र मौसम के कारण बिजली की घरेलू और औद्योगिक मांग भी बढ़ेगी. अधिकारी ने कहा, ‘इसके अलावा, मानसून के मौसम में कोयला खदानों में उत्पादन वैसे ही कम हो जाता है.’

आयातित कोयले की खरीद पर जोर, राज्य अनिच्छुक

घरेलू आपूर्ति खपत को पूरा न कर पाने के कारण, केंद्र ने राज्यों और जेनको (बिजली पैदा करने वाली कंपनियों) को आयातित-कोयला-आधारित संयंत्रों को चलाने के लिए कोयले का आयात करने के लिए कहा है.

165 चालू ताप विद्युत संयंत्रों में से 15 को आयातित कोयले से संचालित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है. इन संयंत्रों की कुल स्थापित क्षमता 17,255 मेगावाट है.

20 मई तक इन पावर प्लांट्स का कुल वास्तविक स्टॉक केवल 25 प्रतिशत था. घरेलू कोयले की आपूर्ति पर दबाव को कम करने के लिए आयातित कोयले को घरेलू कोयले के साथ 10 प्रतिशत तक सम्मिश्रण किया जाता है.

लेकिन यहां एक मुश्किल है. पिछले दिसंबर से बिजली मंत्रालय के कई निर्देशों के बावजूद, उच्च लागत के चलते राज्य कोयला आयात करने से हिचक रहे हैं.

राज्य को लिए अपने नए आधिकारिक पत्र में मंत्रालय ने 18 मई तक कोयले के आयात के लिए तत्काल कदम उठाने के लिए कहा है.

इस पत्र का एक प्रति दिप्रिंट के पास है. इसमें लिखा है, ‘अचानक से बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए जरूरी है कि आयातित-कोयला-आधारित संयंत्र चलाए जाएं. राज्य को पिछले वर्षों की तरह सम्मिश्रण के लिए कोयले का आयात करना चाहिए. विद्युत मंत्रालय विद्युत अधिनियम की धारा 11 के तहत पहले ही सभी आयातित-कोयला आधारित संयंत्र को चलाने के निर्देश जारी कर चुका हैं. उनमें से अधिकांश ने चलना शुरू कर दिया है.’ पत्र के मुताबिक, ‘राज्यों द्वारा सम्मिश्रण के लिए कोयले का आयात संतोषजनक नहीं है.’

पॉलिसी थिंकटैंक सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस में फेलो (ऊर्जा, प्राकृतिक संसाधन और स्थिरता) राजशेखर ने बताया कि ‘यह कहना आसान है लेकिन घरेलू कोयले के साथ महंगे आयातित कोयले का सम्मिश्रण निश्चित रूप से उत्पादन लागत को प्रभावित करेगा और खुदरा उपभोक्ता पर इसका प्रभाव वितरण इकाइयों द्वारा खरीदी गई बिजली की मात्रा पर निर्भर करता है.’

उन्होंने कहा कि सबसे पहले राज्य के नियामक को महंगी बिजली खरीदने के लिए सहमति देनी होगी. वह बताते हैं, ‘यह मान भी लें कि नियामक की सहमति है, वितरण इकाइयों की वित्तीय स्थिति और उत्पादन कंपनियों को उनके वर्तमान बकाया को देखते हुए वितरण इकाइयों इस मुद्दे को संभालने के लिए दुविधा में है.’

राजशेखर ने आगे कहा कि जबकि डिस्कॉम (बिजली वितरण कंपनियां) अपनी देनदारियों को बढ़ाना नहीं चाहती हैं. वे महंगी बिजली खरीदने और देनदारियां बढ़ाने या ऑप्टीमल लोडशेडिंग का सहारा लेने के बीच यानी ट्रेड-ऑफ से सतर्क हैं.

उन्होंने कहा, ‘बिजली उत्पादकों को पहले ही समय पर भुगतान नहीं किया जाता है और वे अंतरराष्ट्रीय कोयले की खरीद को लेकर सतर्क हैं. इसे देखते हुए डिस्कॉम इसकी खरीद नहीं करेंगे. (या तो इसलिए क्योंकि जब तक यह आता है संतुलन बदल जाता है, या इसलिए क्योंकि वे उपभोक्ता नकदी प्रवाह को उच्च उत्पादन खरीद के अनुरूप नहीं देखते हैं)’


यह भी पढ़ें : शादी, बच्चे और शराब: भारतीय मुसलमानों के खिलाफ फैली इन अफवाहों को NFHS-5 ने किया बेनकाब


‘केंद्र राज्यों के प्रति हुआ सख्त’

बिजली मंत्रालय ने अब आयात करने की अनिच्छुक जेनकोस (बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियां) के साथ सख्त कार्रवाई करने का फैसला किया है. राज्य को लिखे अपने 18 मई के पत्र में मंत्रालय ने कहा, ‘यदि 31 मई तक जेनकोस द्वारा कोयले के आयात के आदेश नहीं दिए जाते हैं और यदि आयातित कोयला 15 जून तक बिजली संयंत्रों में पहुंचना शुरू नहीं होता है, तो 31 अक्टूबर 2022 तक की शेष अवधि में कमी को पूरा करने के लिए सभी डिफॉल्टर जेनको को सम्मिश्रण उद्देश्य के लिए 15 प्रतिशत की सीमा तक कोयले का आयात करना होगा.’

ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष शैलेंद्र दुबे ने दिप्रिंट को बताया कि अप्रैल संकट विभिन्न हितधारकों – बिजली, कोयला और रेल मंत्रालय, राज्य सरकारों, डिस्कॉम और उत्पादन कंपनियों के बीच समन्वय की कमी के कारण हुआ था.

उन्होंने कहा, ‘ऐसा लगता है कि हमने इससे कोई सबक नहीं लिया है. केंद्र फिर से राज्यों को इस आधार पर कोयले का आयात करने के लिए मजबूर कर रहा है कि घरेलू आपूर्ति जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी’ वह आगे कहते हैं, ‘लेकिन आयातित कोयले की उच्च लागत कौन वहन करेगा? बिजली मंत्री ने मई में राज्यों को लिखे गए अपने पत्र में स्वीकार किया है कि आयातित कोयले की दर लगभग 140 डॉलर प्रति टन है.’

दुबे ने कहा कि चूंकि कोयले की कमी भारत सरकार की ‘नीतिगत चूक’ के कारण हुई है, इसलिए बिजली मंत्रालय को सरकार से सरकार के आधार पर कोयले के आयात की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आयातित कोयला मौजूदा कोल इंडिया लिमिटेड दरों पर राज्य के जेनकोस को उपलब्ध कराया जाए.

उन्होंने कहा, ‘राज्यों को सजा नहीं दी जानी चाहिए. केंद्र की नीतिगत चूक के लिए, आयातित कोयले की उच्च लागत का वित्तीय बोझ राज्यों पर नहीं डाला जाना चाहिए.’

इसके अलावा दुबे ने कहा, सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि आयातित कोयले को बंदरगाहों से थर्मल पावर प्लांट तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त रेलवे रैक उपलब्ध हों.

उन्होंने पूछा, ‘क्या कभी माल को यहां से वहां ढोने वाली व्यवस्था के बारे में सोचा गया है? अभी पिछले महीने हमारे पास घरेलू कोयले को पिथेड से बिजली संयंत्र तक ले जाने के लिए पर्याप्त रेक नहीं थे. क्या हमारे पास अभी पर्याप्त रेक हैं?’

बढ़ती मांग और डिस्कॉम की खराब आर्थिक हालत के चलते अप्रैल संकट

कोविड लॉकडाउन के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने और इस साल की समय से पहले भीष्ण गर्मी के आ जाने से बिजली की मांग में वृद्धि हुई. घरेलू स्रोतों से कोयले की आपूर्ति, जरूरी मांग को पूरा करने में विफल रही और डिस्कॉम ने लोडशेडिंग का सहारा लेना शुरू कर दिया.

भारत में लगातार बिजली की बढ़ती मांग 29 अप्रैल को 207 GW के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई. एक दिन पहले पीक पावर की कमी दर्ज की गई थी. 10.8 गीगावॉट पर यह 2012 के बाद से सबसे अधिक थी.

बिजली मंत्रालय के अधिकारियों और विशेषज्ञों दोनों ने कहा कि समस्या लंबे समय से बनी हुई थी. एक अधिकारी ने कहा, ‘यह केवल मांग और आपूर्ति के बीच एक बड़ा असंतुलन नहीं है जिसने पिछले अक्टूबर और फिर इस अप्रैल में बिजली की कमी को जन्म दिया. ऐसे कई कारक हैं जो संकट का कारण बने. डिस्कॉम के खराब वित्तीय हालत ने भी संकट में एक बड़ी भूमिका निभाई.’

भारत में बिजली संकट के केंद्र में राज्य की डिस्कॉम की वित्तीय स्थिति है, जो बढ़ते नुकसान से जूझ रही है. भारत में लगभग 32 बिजली डिस्कॉम हैं, जिनमें से अधिकांश राज्य के स्वामित्व वाली हैं.

बिजली वितरण सेक्टर इस पूरी वेल्यू चैन में एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है. राजस्व वितरण- अंत में बिजली के उपभोक्ताओं से उत्पन्न होता है और श्रृंखला में अन्य खिलाड़ियों जैसे कि जेनकोस और कोयला आपूर्तिकर्ताओं को फंड दिया जाता है.

अगर उपभोक्ता बिजली का भुगतान नहीं करते हैं, तो पूरी वैल्यू चैन का राजस्व बाधित हो जाता है. इससे सभी गुड्स एंड सर्विस प्रोवाइडर्स को नुकसान पहुंचता हैं.

जब पंजाब, दिल्ली और तमिलनाडु जैसे राज्य/केंद्र शासित प्रदेश उपभोक्ताओं को 200 से 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देते हैं. तो यहां स्थानीय सरकार डिस्कॉम को राजस्व अंतर के लिए भुगतान करती हैं.

पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक सरकारी उपक्रम राज्य वितरण युटिलिटिज का घाटा 2019-20 में घटकर 31,672 करोड़ रुपये रह गया, जो 2018-19 में 49,103 करोड़ रुपये था.

पुणे स्थित एनजीओ प्रयास एनर्जी ग्रुप के डेटा से पता चलता है कि उपभोक्ताओं को दी जाने वाली सब्सिडी बिजली वितरण कंपनियों के कुल राजस्व का 30 प्रतिशत तक है.

केंद्र सरकार के ‘जनरेटर्स के चालान में पारदर्शिता लाने के लिए भुगतान की पुष्टि और बिजली खरीद में विश्लेषण’( PRAAPTI) के मुताबिक, मई की शुरुआत में बिजली वितरण कंपनियों पर बिजली उत्पादन कंपनियों का 97,688 करोड़ रुपये बकाया था. बिजली वितरण कंपनियों पर सबसे अधिक बकाया तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में है.

सरकार को डिस्कॉम के बड़े पैमाने पर हुए तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान की तरफ देखने की भी जरूरत है. सीईए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘तकनीकी के साथ-साथ प्रशासनिक सुधारों के जरिए सिस्टम के नुकसान को नियंत्रित किए जाने की जरूरत है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें : भारत पहुंचे दो अमेरिकी सुपर हॉर्नेट, नौसेना सौदे के लिए अपनी ताकत का करेंगे प्रदर्शन के साथ


 

share & View comments