इंडिया ब्रिज, कच्छ : कच्छ के रण में आम नागरिकों की पहुंच वाले आखिरी छोर से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर सिंगापुर के बराबर क्षेत्रफल—72,600 हेक्टेयर या 726 वर्ग किलोमीटर—वाले एक इलाके को दुनिया के सबसे बड़े हाइब्रिड सोलर-विंड पॉवर पार्क के लिए निर्धारित कर दिया गया है.
इस दुर्गम रेगिस्तानी इलाके में, जहां कोई इंसान नहीं रहता है, सूरज लगातार आग बरसाता है और दिन में तापमान 35 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है. मनोरम प्राकृतिक छवि वाले इस भूभाग में हवा के झोंके भी निर्बाध बहते रहे हैं, जिस वजह से यह जगह सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए एकदम आदर्श साबित होती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2020 में 1.5 लाख करोड़ रुपये की इस परियोजना की आधारशिला रखी, जिससे 30 गीगावाट (जीडब्ल्यू) या 30,000 मेगावाट (एमडब्ल्यू) बिजली का उत्पादन होने की उम्मीद है.
पिछले चार महीने से इस परियोजना स्थल को कच्छ स्थित इंडिया ब्रिज से जोड़ने वाली सड़क निर्माणाधीन है, जिसके इस साल दिसंबर तक पूरा होने की उम्मीद है. यदि सब कुछ योजना के मुताबिक चलता रहा तो पार्क 2024 तक 15 गीगावाट ऊर्जा पैदा करने लगेगा.
पार्क विकसित करने की जिम्मेदारी संभाल रहे गुजरात पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड के मुख्य परियोजना अधिकारी राजेंद्र मिस्त्री ने कहा कि सड़क पूरी होते ही इसका निर्माण कार्य भी शुरू हो जाएगा. उन्होंने आगे बताया, ‘पार्क में उत्पादित बिजली की गुजरात और अन्य राज्यों दोनों ही जगह आपूर्ति की जाएगी.’
जलवायु परिवर्तन पर काबू पाने के वैश्विक प्रयासों के बीच इस पार्क से भारत को कोयला आधारित बिजली उत्पादन घटाने में मदद मिलने की उम्मीद है. नवंबर 2020 तक भारत की अक्षय ऊर्जा क्षमता 90.39 गीगावाट थी, जिसे 2022 तक 175 गीगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य है.
2014 में केंद्र सरकार ने कम से कम 500 मेगावाट क्षमता वाले 50 सोलर पार्क और अल्ट्रा मेगा सोलर पॉवर प्रोजेक्ट शुरू करने के उद्देश्य से सोलर पार्क और अल्ट्रा मेगा सोलर पावर परियोजना को लॉन्च किया था. 2017 में इस परियोजना के तहत कुल ऊर्जा उत्पादन लक्ष्य 25,000 मेगावाट से बढ़ाकर 40,000 मेगावाट कर दिया गया.
सौर ऊर्जा उत्पादन बढ़ाने की कवायद में गुजरात सरकार एक प्रमुख खिलाड़ी रही है. दिसंबर 2020 में सरकार ने 2022 तक 30,000 मेगावाट उत्पादन का अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश के तहत सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमताओं पर लगी पाबंदी हटाने संबंधी एक नई नीति की घोषणा की.
कच्छ सोलर एंड विंड पॉवर पार्क राज्य को एक झटके में अपना लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकता है.
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गुजरात की सौर महत्वाकांक्षाएं
पिछले साल गुजरात घरेलू इस्तेमाल के लिए सोलर पैनल लगाए जाने के मामले में शीर्ष राज्य रहा था. देशभर में लगी कुल 79,950 फिटिंग्स में से 68 फीसदी अकेले गुजरात में लगाई गईं. यह मौजूदा समय में सौर ऊर्जा क्षमता के मामले में देश में पांचवें स्थान पर है—कर्नाटक, तेलंगाना, राजस्थान और आंध्र प्रदेश के बाद.
गुजरात की अतिरिक्त मुख्य सचिव, ऊर्जा सुनैना तोमर ने कहा कि गुजरात ने सौर ऊर्जा उत्पादन नीति पहली बार 2009 में पेश की थी.
उन्होंने दिप्रिंट को व्हाट्सएप पर लिखकर भेजा, ‘गुजरात एक दूरदर्शी और प्रगतिशील राज्य है जिसने 2009 में ही जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव घटाने में बड़े योगदान के उद्देश्य के साथ राज्य केंद्रित विशेष सौर नीति को लागू करके हरित और स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन के जरिये सतत विकास सुनिश्चित करने का फैसला कर लिया था और इसके पीछे उद्देश्य देश के माननीय प्रधानमंत्री की तरफ से निर्धारित 2022 तक 175 गीगावाट और 2030 तक 450 गीगावाट के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करना भी है.’
उन्होंने कहा, ‘सौर ऊर्जा के बारे ज्यादा सटीक अनुमान लगाया जा सकता है और इसका उत्पादन दिन में होता है, जो कृषि के लिए बिजली की व्यापक जरूरत को पूरा करने के अनुरूप है.’
कच्छ सौर परियोजना पूरी होने के बाद कर्नाटक के पावागढ़ स्थित 2,000 मेगावाट के सौर पार्क से ‘दुनिया का सबसे बड़ा’ सोलर पार्क होने का दर्जा छिन जाएगा. 2018 में शुरू हुआ पावागढ़ संयंत्र देश में कुल सौर ऊर्जा के 19 प्रतिशत से अधिक की आपूर्ति करता है, और 2018 के अंत में इसकी स्थापित क्षमता 27,199 मेगावाट थी.
मार्च 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019-20 में गुजरात को अपनी अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए केंद्रीय वित्तीय सहायता का सबसे अधिक हिस्सा मिला. यह उन कुछ गिने-चुने राज्यों में शामिल है जो कच्छ में बनने जा रहे पार्क जैसी परियोजनाओं को संभालने की क्षमता रखते हैं.
दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट, एंड वाटर (सीईईडब्यू) में अक्षय ऊर्जा मामले की प्रोग्राम लीड दिशा अग्रवाल का कहना है, ‘गुजरात और राजस्थान ऐसे कुछ राज्यों में शामिल हैं जिनके पास काफी ज्यादा भूमि ऐसी है जो इस्तेमाल योग्य नहीं है. महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य सौर पार्कों के लिए इतना बड़ा भूभाग छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते. निवेश की गुंजाइश है, इससे रोजगार बढ़ते हैं, साथ ही वे बिजली उत्पादन करके और इसे बाहर बेचकर राजस्व भी कमा सकते हैं.’
मिस्त्री ने बताया कि सौर ऊर्जा उत्पादन की लागत 3 रुपये प्रति यूनिट आती है. यह कोयले से बनने वाली बिजली से कम है, जिसकी कीमत 3.5 रुपये से 4 रुपये प्रति यूनिट होती है. सौर ऊर्जा को मौजूदा विद्युत ग्रिड के साथ इंटीग्रेट करने से लागत में वृद्धि होती है, लेकिन यह निवेशकों को इस क्षेत्र में आगे आने से रोकता नहीं है.
तोमर ने कहा, ‘निवेशकों को बिजली उत्पादन और ग्रिड तक आपूर्ति करनी होती है. इंटीग्रेशन कास्ट का जिम्मा ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों का होता है. चूंकि सौर ऊर्जा की उत्पादन लागत बहुत कम है इसलिए यह इंटीग्रेशन कास्ट कुछ ज्यादा होने पर भी व्यावहारिक है.’
उन्होंने कहा, ‘गुजरात डिस्कॉम की वित्तीय स्थिति मजबूत है और यह जेनरेटर को समय पर भुगतान कर रहा है, इसलिए गुजरात में अपने सौर संयंत्र लगाने को लेकर निवेशकों में बहुत उत्साह है.’
छह खिलाड़ी चुने गए
यह पार्क कितनी बिजली की आपूर्ति करेगा, इस बारे में समझाते हुए मिस्त्री ने कहा, ‘एक मेगावाट में लगभग 4,000 और 5,000 यूनिट बिजली होती है. औसतन, भारतीय परिवार प्रतिदिन 5 यूनिट बिजली की खपत करता है. यह संयंत्र पूरी तरह तैयार होने के बाद 30,000 मेगावाट बिजली की आपूर्ति करेगा.’
छह डेवलपर्स पार्क को विकसित करने और बिजली उत्पादन के कार्य में लगे हैं, जिनमें से पांच पवन और सौर दोनों स्रोतों के माध्यम से ऊर्जा का उत्पादन करेंगे.
ऊर्जा के प्रत्येक मेगावाट के लिए दो हेक्टेयर भूमि की जरूरत होती है. इसके मद्देनजर राज्य सरकार ने अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड को 19,000 हेक्टेयर, सर्जन रियलिटीज और सरकार संचालित नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) दोनों में से प्रत्येक को 9,500 हेक्टेयर, राज्य के स्वामित्व वाली गुजरात स्टेट इलेक्ट्रिसिटी कॉरपोरेशन को 6,650 हेक्टेयर और गुजरात इंडस्ट्रीज पॉवर कंपनी लिमिटेड, जो राज्य सरकार की ही कंपनी है, को 4,750 हेक्टेयर भूमि आवंटित की गई है.
छठी कंपनी केंद्र सरकार की भारतीय सौर ऊर्जा निगम (एसईसीआई) है जो 23,000 हेक्टेयर भूमि लेकर 11,500 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करेगी.
मिस्त्री ने कहा, ‘इन डेवलपर को उनकी तरफ से आवेदन दिए जाने के बाद यह देखकर चुना गया कि क्या वे हमारे अपेक्षित मानदंडों पर खरे उतरते हैं. वे बुनियादी ढांचा, कनेक्टिविटी, ड्रेनेज सिस्टम वगैरह विकसित करने के लिए जिम्मेदार होंगे. वे बिजली जेनरेट करने वाले भी होंगे.’
परियोजना स्थल, जो कि सीमा सुरक्षा बल द्वारा नियंत्रित इंडिया ब्रिज और भारत-पाकिस्तान सीमा के बीच स्थित है, पर अब भी सेना का नियंत्रण है, जिसने 2020 में पार्क के लिए अनुमति दी थी. आज भी परियोजना स्थल पर कोई निर्माण कार्य केवल बीएसएफ की तरफ से विशेष परमिट मिलने के बाद ही किया जा सकता है.
उद्घाटन के दौरान मोदी ने कहा कि सौर ऊर्जा पार्क ‘सीमा को सुरक्षित’ बनाएगा. इंडिया ब्रिज पर तैनात एक बीएसएफ अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि इस पर उनकी ओर से अधिक सतर्कता की जरूरत होगी. अधिकारी ने कहा, ‘अभी हमें एक ही सड़क (पुल) की रखवाली करनी होती है. जल्द ही इनकी संख्या तीन हो जाएगी, इसलिए यहां पर और अधिक सतर्कता की जरूरत होगी.
चिंताएं भी कम नहीं हैं
कच्छ में सौर पार्क की प्रेरणा देश के पहले सौर पार्क से ली गई थी जो यहां से करीब 290 किलोमीटर दूर चारंका गांव में है. चारंका स्थित सौर पार्क 215 मेगावाट के लक्ष्य के साथ शुरू हुआ था लेकिन 32 डेवलपर्स के जरिये 600 मेगावाट से अधिक उत्पन्न क्षमता पर पहुंच गया.
2012 में जब चारंका का उद्घाटन हुआ था तब मोदी, जो उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे, ने कहा था कि यह इस क्षेत्र में ‘एक नई क्रांति की शुरुआत करेगा’ और रोजगार सृजन में सहायक होगा. साथ ही पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए एक सूर्य मंदिर और झील के निर्माण का वादा भी किया था.
लेकिन सौर पार्क से सटे गांव की यात्रा बताती है कि इन वादों को पूरा नहीं किया गया है. यहां तक कि स्थानीय सड़कों का भी विकास नहीं हुआ है.
सौर पार्क के नजदीक ही रहने वाले बूपत सिंह ने बताया, ‘गांव के कुछ ही लोग पार्क में सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करते हैं. जब मोदी ने पार्क का उद्घाटन किया था तो हमसे विकास और मुफ्त बिजली का वादा किया गया था. लेकिन हमारे यहां कोई अस्पताल या अच्छा स्कूल नहीं है. अब तो 10 साल से अधिक का समय हो गया है.’
सरपंच सुमेश सिंह राणा सहित कई ग्रामीणों ने कहा कि उन्हें इस पार्क से उम्मीद के मुताबिक फायदा नहीं हुआ है, जिसके लिए 200 एकड़ से अधिक जमीन खरीदी गई थी.
चारंका गांव के दलित किसान दीबा हाजा ने कहा, ‘मैं 16 एकड़ जमीन पर जीरा उगाता था लेकिन जबसे जमीन बेची है, मैं दूसरे लोगों के खेतों में काम कर रहा हूं. हमें रोजगार नहीं मिले हैं, जिसका हमसे वादा किया गया था.’
2019 में जर्नल ऑफ पीजेंट स्टडीज में प्रकाशित एक पीर-रिव्यूड पेपर में नॉर्दन मिशिगन यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर रयान स्टॉक और पेन स्टेट में एसोसिएट प्रोफेसर ट्रेवर बिरकेनहोल्ट्ज ने चारंका के करीब 200 लोगों के बीच एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए बताया कि अब तक केवल 63 लोगों (31.5 प्रतिशत) को सौर पार्क में काम मिला, ‘जिसमें परियोजना शुरू होने से पहले अल्पकालिक निर्माण कार्य भी शामिल था.’
इसके लिए जिनकी भूमि अधिग्रहित की गई, उनमें से केवल ‘39.3 प्रतिशत को सौर पार्क में रोजगार की पेशकश की गई थी.’
इसमें बताया गया, ‘… राज्य अक्सर दावा करता है कि कृषि भूमि संबंधी इन बदलावों से ‘ग्रामीण पुनरुत्थान’ होगा. लेकिन वास्तव में भूमि के इस्तेमाल में यह बदलाव उत्पादन की पूरी रूपरेखा को बदल डालने वाला है, जो अंततः व्यापक स्तर पर मजबूरी में अपनी जमीनें देने के कारण छोटे-मोटे किसानों के लिए अस्तित्व का संकट बन सकता है.’
इसमें कहा गया है, ‘भारत सरकार जलवायु परिवर्तन को घटाने के लिए और बहुप्रतीक्षित अक्षय ऊर्जा के व्यापक उत्पादन के लिए शुष्क क्षेत्रों में अधिक सौर पार्कों का विकास करती है, लेकिन इस बारे में सीमांत आबादी को अंधेरे में नहीं रखा जाना चाहिए.’
सीईईडब्ल्यू की अग्रवाल ने कहा कि सौर पार्कों के आसपास रहने वाली आबादी पर इसके प्रभाव का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया गया है.
उन्होंने कहा, ‘सौर ऊर्जा पार्क स्थापित करने का उत्साह अपेक्षाकृत हालिया ट्रेंड है, हमने अब तक सिर्फ लोगों की आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों को ही देखना शुरू किया है. यह निश्चित रूप से कुछ ऐसा है जिस पर हमें लंबे-चौड़े लक्ष्य निर्धारित करने से पहले ठीक से विचार करना चाहिए.’
कच्छ, जहां पानी एक दुर्लभ संसाधन है, में पार्क के सबसे करीब यानी परियोजना स्थल से लगभग 35 किलोमीटर दूर रहने वाले ग्रामीण खुद से किए गए वादों को लेकर सशंकित हैं.
प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि खारे पानी का एक संयंत्र इस क्षेत्र में रहने वाले 8 लाख लोगों को ‘10 करोड़ लीटर स्वच्छ पानी’ की आपूर्ति करेगा.
मोटागांव के निवासी और बकरी पालकर अपनी आजीविका चलाने वाले समा मुश्ता इब्राहिम ने कहा, ‘हमें पिछले हफ्ते एक महीने के बाद पानी मिला. हम आम तौर पर एक निजी आपूर्तिकर्ता के जरिये 700 रुपये में 4,000 लीटर पानी खरीदते हैं.’
उनके मित्र और पड़ोसी गनी जैकब ने कहा, ‘हमें नहीं पता कि खारे पानी का संयंत्र कब शुरू होगा, इसमें सालों लग सकते हैं. और कौन जानें इससे हमें फायदा होगा भी या नहीं? हमारे यहां तो हर घर में नल भी नहीं है.’
हालांकि, तोमर ने इस बात से इनकार किया कि स्थानीय समुदायों ने इन परियोजनाओं से पर्याप्त लाभ नहीं मिलता है. उन्होंने कहा, ‘वे सौर परियोजनाओं के निर्माण के दौरान और फिर उसके रखरखाव के लिए वहां नौकरी पा रहे हैं. बेशक, कोयला आधारित परियोजनाओं की तुलना में एक विशाल क्षेत्र को अधिग्रहित करने वाली सौर परियोजनाओं में नौकरियों की संख्या कम होती है, लेकिन किसी भी तरह से विस्थापन, प्रदूषण या प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभावों के बिना नौकरी मिलना स्थानीय समुदायों के लिए निश्चित तौर पर फायदेमंद है.’
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