scorecardresearch
Thursday, 31 October, 2024
होमदेशकैसे एक एग्रीटेक फर्म बायो-डिकंपोजर का इस्तेमाल कर पराली जलाने से बचने में किसानों की मदद कर रही है

कैसे एक एग्रीटेक फर्म बायो-डिकंपोजर का इस्तेमाल कर पराली जलाने से बचने में किसानों की मदद कर रही है

आईएआरआई ने बायो-डिकंपोजर बड़े पैमाने पर तैयार करने और उसे बेचने के लिए 12 कंपनियों को इस तकनीक का लाइसेंस दिया है.

Text Size:

नई दिल्ली/करनाल: करनाल के जमालपुर गांव में 10 एकड़ जमीन के मालिक ओमप्रकाश सिंह पूसा के नए डिकंपोजर को लेकर काफी उत्साहित हैं, जिसे उन्होंने एक एग्रीटेक कंपनी की मदद से अपने खेत में इस्तेमाल किया है.

ओमप्रकाश सिंह का कहना है कि उन्होंने ‘दोहरे लाभ’ को देखते हुए बायो-डिकंपोजर का विकल्प चुना.

उन्होंने कहा, ‘पिछले साल तक हम सरकार और कानूनी कार्रवाई की चेतावनियों के बावजूद पराली जलाते थे. लेकिन इस साल हमने इस घोल के छिड़काव का विकल्प चुना है क्योंकि इसके दोहरे लाभ हैं—एक तो यह जलाने के कारण होने वाले प्रतिकूल प्रभाव से बचाने में मददगार है और पराली सड़ने से मिट्टी को अतिरिक्त खाद भी मिल जाती है. डिकंपोजर डालने के एक या दो दिन बाद खेत की जुताई की जाती है और पानी लगाया जाता है, जिससे पराली तेजी से सड़ने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.’

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान आमतौर पर मशीनीकृत कंबाइन हार्वेस्टर के माध्यम से अक्टूबर में धान की कटाई करते हैं, जिसमें पराली खेल में रह जाती है. इसके बाद किसान अगली फसल की बुआई के लिए जमीन खाली करने के उद्देश्य से पराली में आग लगा देते हैं.


यह भी पढ़ें: लखीमपुर खीरी से वाया पंजाब -कश्मीर तक, जो हुआ ऐसे जोखिम भारत अब और नहीं उठा सकता


सर्दियों की शुरुआत के दौरान ही पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने से राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण काफी बढ़ जाता है. इससे दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) अक्सर ‘गंभीर’ और ‘खतरनाक’ श्रेणी में पहुंच जाता है.

किसानों को पराली जलाने से रोकने के उपायों के तहत केंद्र सरकार पूसा डिकंपोजर के उपयोग की वकालत करती रही है, जो एक कम लागत वाला माइक्रोबियल बायो-एंजाइम है, जो धान की फसल में रह जाने वाली पराली समेत तमाम फसलों के अवशेषों को नष्ट करने में सक्षम है.

2020 में सरकार ने फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिए ट्रायल के आधार पर कई राज्यों को आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) द्वारा विकसित पूसा डिकंपोजर प्रदान किया था.

इसके अलावा, आईएआरआई ने बायो-डिकंपोजर बड़े पैमाने पर तैयार करने और उसे बेचने के लिए 12 कंपनियों को इस तकनीक का लाइसेंस दिया है.

इस साल पंजाब और हरियाणा के 17 जिलों के 25,000 से अधिक किसानों ने अपने खेतों में पूसा डिकंपोजर का इस्तेमाल करने के लिए एक एग्री-टेक कंपनी नर्चर.फार्म के साथ रजिस्ट्रेशन कराया है. किसानों का कहना है कि डिकंपोजर अच्छा लग रहा है और इससे खाद की लागत कम करने में भी मदद मिलेगी.

करनाल के एक किसान राजवीर सिंह ने कहा, ‘हम पहले पराली जलाते थे क्योंकि मशीनों के जरिये इसे हटाने में कम से कम 4,000-5,000 रुपए प्रति एकड़ का खर्च आता था जिसमें काफी ईंधन और श्रम भी लगता था. हालांकि, इस साल 22 सितंबर को मैंने अपनी धान की फसल काटी, 24 सितंबर को पूसा डिकंपोजर का छिड़काव किया और 28 सितंबर को जुताई की. सिंचाई के बाद अगले कुछ दिनों में खेल अगली फसल की बुआई के लिए तैयार हो जाते हैं. पराली विघटित होकर मिट्टी में ही मिल जाने से उर्वरक की खपत 50 किलोग्राम से कम से कम 30 किलोग्राम घटकर 20 किग्रा/एकड़ ही रह जाती है. मैं तो आसपास के सभी लोगों से कहूंगा कि वे अपने खेतों में बायो डिकंपोजर का छिड़काव करें.’

उर्वरक खपत, ईंधन की लागत घटी

बायो डिकंपोजर का इस्तेमाल उर्वरक की इनपुट कास्ट घटाने के अलावा अगली फसल की बुआई के दौरान मशीन, ईंधन और श्रम लागत को कम करने में भी मददगार है.

पूसा बायो डिकंपोजर का छिड़काव कर सरसों की फसल की बुआई कर चुके प्रवीण शर्मा ने बताया, ‘पहले मिट्टी की ऊपरी परत के पोषक तत्व जल जाते थे लेकिन अब मिट्टी में ही रह जाते हैं. पहले प्रति एकड़ चार बोरी यूरिया का इस्तेमाल होता था जो अब घटाकर 2-2.5 बैग प्रति एकड़ हो गया है. इसी तरह, डीएपी का उपयोग भी तीन बैग से घटकर एक बैग हो गया है, जिससे लागत में 3,000 रुपए प्रति एकड़ की कमी आई है. मेरी फसल भी जल्दी पक जाएगी और इससे मुझे इस फसल के सीजन की तुलना में बेहतर कीमत मिलेगी.


यह भी पढ़ें: दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने कहा – अगर AAP सत्ता में आयी तो पंजाब पराली जलाने से मुक्त होगा


हरियाणा के ही एक किसान ओम प्रकाश सिंह ने कहा, ‘पहले पराली जलाने के बाद मशीन को 4-6 चक्कर चलाने की जरूरत पड़ती थी, जो अब मुश्किल से 2-3 रह गई है. मशीन, श्रम, ईंधन की लागत में कुल मिलाकर 1,000 रुपये प्रति एकड़ की बचत होती है.’

बायो-डिकंपोजर का एक और फायदा यह है कि किसान गेहूं या सरसों जैसी दीर्घकालिक फसलों की बुआई से पहले कम समय में होने वाली धनिया जैसी कुछ फसलों को भी उगा सकते हैं जो उनके लिए अतिरिक्त आय का एक स्रोत भी बन सकती हैं.

 

क्या है स्प्रे सॉल्यूशन

किसानों को कम लागत वाले और कृषि संबंधी समस्याओं के टिकाऊ समाधान मुहैया कराने में लगी बेंगलुरु की एग्रीटेक स्टार्टअप फर्म नर्चर.फार्म ने आईएआरआई के साथ मिलकर पूसा डिकंपोजर का आसानी से इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए रेडी-टू-यूज स्प्रे सॉल्यूशन कैप्सूल तैयार किया है.

एग्रीटेक कंपनी के मुख्य प्रौद्योगिकी अधिकारी प्रणव तिवारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘कैप्सूल का इस्तेमाल आसान नहीं था क्योंकि उन्हें लगाने से पहले पानी में गुड़ और चने के आटे के साथ मिलाकर कुछ हफ्तों के लिए फर्मेन्टड किया जाना था. हमने इसे रेडी-टू-यूज पाउडर फॉर्मूलेशन में बदल दिया, जिसे पानी में मिलाकर तुरंत स्प्रे किया जा सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘पूसा डिकंपोजर के छिड़काव के बाद अगले कुछ दिनों में मिट्टी की जुताई कर दी जाती है. पराली मिट्टी के साथ मिल जाने और फिर खेतों में पहले से ही मौजूद नमी के खाद में बदलने की प्रक्रिया से मिट्टी के पोषक क्षमता और ज्यादा बढ़ जाती है.

उन्होने कहा, ‘मिट्टी की गुणवत्ता का एक महत्वपूर्ण तत्व ऑर्गेनिक कार्बन सामग्री है जो पराली में मौजूद होती है और यह विघटित होने के साथ फिर से मिट्टी के साथ मिल जाती है, जिससे यह अत्यंत उपजाऊ और समृद्ध हो जाती है. इस घोल के इस्तेमाल पर अन्य वैकल्पिक समाधानों जैसे हैप्पी सीडर या मैनुअल लेबर की तुलना में एक चौथाई या पांचवें हिस्से जितनी लागत ही आती है. इन वैकल्पिक साधनों पर 3,000 से 4,000 रुपये प्रति एकड़ लागत आती है, जबकि छिड़काव की लागत सिर्फ 600 रुपये प्रति एकड़ है. इस साल 5 लाख एकड़ खेतों और 25,000 से अधिक किसानों को कवर करेंगे और हमारा लक्ष्य दो-तीन साल में पराली जलाने को पूरी तरह खत्म करना है.’

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments