scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होमदेशहाई टेक मशीनें, 9 हजार से अधिक वर्कर, जानिए वंदे भारत ट्रेन बनाने वाली इंटीग्रल कोच फैक्ट्री के बारे में

हाई टेक मशीनें, 9 हजार से अधिक वर्कर, जानिए वंदे भारत ट्रेन बनाने वाली इंटीग्रल कोच फैक्ट्री के बारे में

चेन्नई स्थित आईसीएफ दुनिया के सबसे बड़े रेल कोच के कारखानों में से एक है, जो सालाना 4,000 से अधिक कोच का उत्पादन करता है. फिलहाल इसके कर्मी 15 अगस्त 2023 तक 75 वंदे भारत ट्रेनों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए समय के साथ होड़ लगा रहे हैं.

Text Size:

चेन्नई: नीले कपड़े, पीले हेलमेट और कुछ मामलों में मोटे दस्ताने पहने पुरुषों और महिलाओं द्वारा की जा रही सहायता के साथ अलग-अलग आकार की विशाल मशीनें ट्रेन बनाने के काम आने वालीं स्टेनलेस स्टील, बिजली के तारों और अन्य घटकों की चादरें उठाती हैं, उन्हें काटती हैं और वेल्ड करती हैं. शॉप फ्लोर (श्रमिक कर्मशाला या कारख़ाने का वह हिस्‍सा जहां कर्मचारी माल तैयार करते हैं) में से एक में कभी-कभी चिंगारियां उड़ती हैं, जहां हेलमेट से ढके चेहरे वाले पुरुष वेल्डिंग के काम पर लगे होते हैं.

एक अन्य शॉपफ्लोर में, स्टेनलेस स्टील की चादरें कम्प्यूटरीकृत लेजर कटिंग-एंड-वेल्डिंग मशीन में डाली जा रही हैं, जिसे निर्देशों के अनुसार शीट के किनारों को तराशने के लिए प्रोग्राम किया गया है. बाद में, इन चादरों को एक साथ जोड़ने के लिए एक बार में दो चादरों के हिसाब से वेल्ड कर दिया जाता है.

यहां की हवा में एक निरंतर गुनगुनाहट बनी रहती है, किसी स्थान पर यह कम है तो किसी और जगह पर काफ़ी तीव्र.

इस बीच, लगभग सौ पुरुष और महिलाएं चेन्नई में इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) में भारत की पहली स्वदेशी सेमी-हाई-स्पीड ट्रेन वंदे भारत एक्सप्रेस को पुर्जा-दर-पुर्जा जोड़ने में व्यस्त हैं.

चेन्नई के औद्योगिक केंद्र पेरंबूर में स्थित कारखाने के बाहर पत्तेदार वातावरण के एकदम विपरीत, शॉपफ्लोर के फर्श के अंदर फरफराहट और गुनगुनाट बनी रहती है. दुनिया के सबसे बड़े और भारत के सबसे पुराने कोच निर्माण कारखानों में शामिल आईसीएफ सालाना तौर पर 4,000 से अधिक रेल कोच का उत्पादन करता है, जिसमें वंदे भारत एक्सप्रेस सहित 50 विभिन्न प्रकार की ट्रेनों के कोच शामिल हैं.

हिमाचल प्रदेश के ऊना और नई दिल्ली को जोड़ने वाली चौथी वंदे भारत एक्सप्रेस को 13 अक्टूबर को हरी झंडी दिखाई जाने की चर्चाओं के बीच दिप्रिंट ने आईसीएफ की यात्रा करके यह जानने की कोशिश की कि इस ट्रेन के निर्माण कैसे किया जाता है. और यह भी इस गर्मी और शोर के बीच काम करते हुए, इस कारखाने में कार्यरत पुरुषों और महिलाओं को अपनी लय बनाए रखने के लिए क्या कुछ करना पड़ता है.

समय के साथ होड़

आईसीएफ की शॉपफ्लोर के फर्श पर काम कर रहे कर्मियों और अधिकारियों का कहना है कि उनके लिए यह समय के खिलाफ एक होड़ जैसा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2023 तक 75 वंदे भारत ट्रेनों का उत्पादन की एक कठिन समय सीमा निर्धारित कर रखी है.

साल 2018 में पहली वंदे भारत ट्रेन की शुरुआत के बाद से, तीन और ऐसी ट्रेनें चालू हो गईं हैं: नई दिल्ली-वाराणसी, नई दिल्ली-कटरा, गांधीनगर-मुंबई और अंब अंदौरा (ऊना में) -नई दिल्ली.

Workers at the ICF shop floor where the Vande Bharat trains are made | Photo: Moushumi Das Gupta | ThePrint
जहां वंदे भारत ट्रेन का निर्माण हो रहा है वहां आईसीएफ शॉप फ्लोर पर वर्कर । फोटोः मौसमी दास गुप्ता । दिप्रिंट

आईसीएफ के महाप्रबंधक (जीएम) अतुल कुमार अग्रवाल ने दिप्रिंट को बताया कि हालांकि यह एक बहुत ही कठिन लक्ष्य है, फिर भी उन्हें पूरा यकीन है कि वे इसे हासिल करने में सक्षम होंगे. उन्होंने कहा, ‘हम (इस बारे में) आश्वस्त हैं और हमारी टीम चौबीसों घंटे काम कर रही है.’

वर्तमान में, लगभग आधा दर्जन वंदे भारत ट्रेनें आईसीएफ में निर्माणरत हैं.

आईसीएफ के पूर्व जीएम सुधांशु मणि, जिनके कार्यकाल के दौरान वंदे भारत एक्सप्रेस – जिसे तब ट्रेन- 18 के रूप में जाना जाता था – की अवधारणा और क्रियान्वयन किया गया था, ने कहा, ‘अब जब आईसीएफ ने पहले ही चार (वंदे भारत) ट्रेनें विकसित कर ली हैं और उसे इस प्रक्रिया के बारे में मालूमात हासिल हो गई है, तो वे हर महीने तीन-चार और अगले साल 15 अगस्त तक करीब 40 ट्रेनें आसानी से पेश कर सकते हैं, जो मेरे हिसाब से एक अच्छी संख्या है.’

क्या कुछ लगता है एक सेमी-हाई-स्पीड ट्रेन बनाने में

130-132 किलोमीटर प्रति घंटे (किमी प्रति घंटे) की रफ़्तार के साथ चल रही वंदे भारत ट्रेन पर यात्रा करना एक बड़ा ही सुखद मामला है. इसके अंदर आपको जो अनुभव मिलता है वह नियमित ट्रेनों से काफ़ी अलग होता है. शानदार सुविधाओं, गर्म पके हुए भोजन और अच्छी तरह से तैयार परिचारकों के साथ – यह किसी हवाई यात्रा वाले अनुभव के समान ही होता है.

लेकिन इन सब को एक साथ जुटाने के पीछे आठ सप्ताह से अधिक का श्रमसाध्य काम लग होता है, जो इस ट्रेन के अंडरफ्रेम से शुरू होकर इसके कारखाने से बाहर निकलने तक चलता रहता है.

अंडरफ्रेम – जिसे सामान्य बोलचाल में चेसिस कहा जाता – 23 मीटर लंबा और ट्रेन का सबसे महत्वपूर्ण घटक होता है, जो इसके पूरे संरचनात्मक भार और नीचे लगे हुए उपकरणों , जैसे कि बैटरी बॉक्स, बायो टॉयलेट टैंक, आदि को एक साथ बनाए रखता है.

आईसीएफ ने भारत भर के विभिन्न विक्रेताओं से इस कोच की बॉडी बनाने में काम आने वाले अंडरफ्रेम और अन्य घटकों को जुटाया,फिर उन्हें चेन्नई पहुंचाया गया, और उन्हें यहां के शॉप फ्लोर पर एक साथ एकत्रित (असेंबल) किया गया.

उदाहरण के इसका अंडरफ्रेम हैदराबाद स्थित मेधा से आया है. आईसीएफ के एक अधिकारी ने बताया, ‘अंडरफ्रेम हैदराबाद में विक्रेता के कारखाने में बनाया गया था और फिर इसे आईसीएफ में पहुंचाया गया था.’

इसके अलावा, प्रत्येक कोच में दो किनारे की दीवारें (साइड वाल्स), दोनों छोर वाली दो दीवारें और एक छत होती है, जो सभी स्टेनलेस स्टील से बनी होती है और ट्रेन बनाने के आवश्यक घटकों में से एक है.

प्रिंसिपल चीफ मैकेनिकल इंजीनियर (पीसीएमई) एस श्रीनिवास ने विस्तार से बताते हुए कहा, ‘फिर अंडरफ्रेम को एक भारी मशीन, जिसे बॉडी असेंबली जिग कहा जाता है, पर रखा जाता है. यही वह जगह है जहां अंडरफ्रेम, किनारे की दीवारें, दोनों छोरों की दीवारें और छत सभी एकीकृत होती हैं.’

A model of the Vande Bharat Express at the ICF museum | Photo: Moushumi Das Gupta | ThePrint
आईसीएफ म्यूजियम में वंदे भारत एक्सप्रेस का एक मॉडल । फोटोः मौसमी दास गुप्ता । दिप्रिंट

फिर पूरी संरचना को जिग से बाहर निकाला जाता है और बोगियों पर रखा जाता है. उन्होंने कहा, ‘अब, ट्रेन का मूल ढांचा तैयार हो जाता है.’

अगला पड़ाव विशेष रूप से बनाया गया पेंट बूथ है, जहां कोच की बॉडी को पेंट किया जाता है – पहले पॉलीयूरेथेन पेंट के साथ, और फिर इसके उपर से नैनो पेंट के साथ

श्रीनिवास का कहना है कि नैनो पेंट का इस्तेमाल करने का एक विशेष कारण है. और यह केवल इसकी चमक के लिए नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हम उन्हें ग्रॅफीटी रेप्पेल्लेंट कहते हैं. यदि आप मार्कर पेन का उपयोग भी करते हैं, तो भी इसे सामान्य कपड़े से मिटाया जा सकता है. ट्रेन को साफ करना बहुत आसान है. एक नैनो कोट वास्तव में कोच की हिफ़ाज़त करता है. इसलिए चमक बहुत लंबे समय तक बरकरार रहती है.’

पेंटिंग एक काफ़ी कठिन काम है और इसे पूरा करने में पांच से सात दिन लग जाते हैं.


यह भी पढ़ेंः मुस्लिम सिक्कों पर शिव के बैल: हिंदू तुर्क शाह की अजीब दुनिया


फर्निशिंग और अन्य कार्य

एक बार पेंटिंग का काम पूरा हो जाने के बाद, ट्रेन के ढांचे को फर्निशिंग फैक्ट्री (साजसज्जा कारखाने) में लाया जाता है. यह वह जगह है जहां फर्श के निर्माण सहित सभी तरह की साज-सज्जा की जाती है.

फर्श के निर्माण के लिए, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से मकोर फ्लोरबोर्ड नामक एक विशेष लकड़ी की सामग्री का उपयोग किया जाता है. हालांकि, मूल तल स्टील का बना होता है, इसके ऊपर मकोर फर्शबोर्ड भी लगाया जाता है.

श्रीनिवास ने कहा, ‘ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि यह शोरशराबे और कंपन को सोख लेता है. जब सीटें लगाई जाती हैं तो यह एक चिकने कुशन की तरह काम करता है.’

मकोर बोर्ड के ऊपर, पीवीसी के साथ फर्श की तीसरी परत इसके सुंदर दिखने के हिसाब से लगाई जाती है.

अब, ट्रेन की बॉडी एलेकट्रिकल वाइरिंग (बिजली के तार बिछाने) के महत्वपूर्ण कार्य के लिए तैयार हो जाती है. श्रीनिवास ने कहा, ‘वायरिंग एक बहुत व्यापक और महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. एयर कंडीशनिंग के लिए वायरिंग की जाती है, बहुत सारे कम्यूनिकेशन केबल, पावर केबल आदि भी लगे होते हैं.’

इस अधिकारी ने कहा कि एक अन्य महत्वपूर्ण गतिविधि कोचों के अंदर की पैनलिंग करने की होती है. पैनल बनाने के लिए फाइबर-युक्त प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है.

सीट का लगाया जाना सबसे आखिरी गतिविधि होती है.

इसके बाद कोच का विद्युत परीक्षण किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि सभी सिस्टम सही तरीके से काम कर रहे हैं या नहीं.

श्रीनिवास ने बताया, ‘फिर चार डिब्बों को एक साथ जोड़ा जाता है और इनका एक ट्रेन के स्तर पर फिर से परीक्षण किया जाता है. हम यह देखने के लिए परीक्षण करते हैं कि जब एक छोर से आदेश दिया जाता है, तो क्या यह दूसरे छोर पर पहुंच रहा है. या नहीं . कोच स्तर, बुनियादी इकाई स्तर और फिर ट्रेन स्तर पर सभी प्रणालियों की जांच की जाती है. फिर 15-20 किमी प्रति घंटे की गति से यार्ड में एक ‘रन टेस्ट’ (ट्रेन को चलाकर किए जाने वाला परीक्षण) लिया जाता है, यह देखने के लिए कि यह कैसा व्यवहार कर रहा है.

यही वह स्तर है जहां रेलवे सुरक्षा आयुक्त तस्वीर में आते हैं और ट्रेन को कारखाने से बाहर निकालने के लिए अपनी मंज़ूरी देते हैं.

वंदे भारत ट्रेन के निर्माण में लगे लगभग 80-85 प्रतिशत घटक स्वदेशी हैं. प्रमुख आयातित घटकों में इसके पहिये और चिप्स जैसे इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे शामिल हैं.


यह भी पढ़ेंः रेजांग ला की लड़ाई याद है— कैसे 120 भारतीय सैनिकों ने 1000 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था


किस बात से लय बनी रहती है

ट्रेन बनाने में शामिल लोग या कर्मी विविध पृष्ठभूमि से आते हैं. मद्रास विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त 35 वर्षीय शशि कला, आईसीएफ के बोगी सेक्शन में काम करती है, जहां वंदे भारत की बोगियों को एक साथ इकट्ठा किया जा रहा है. वह वाणिज्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद के पिछले छह वर्षों से यहां काम कर रहीं हैं

उन्होने दिप्रिंट को बताया, ‘यह काफ़ी श्रमसाध्य काम है, लेकिन मुझे यह पसंद है. यह केवल वंदे भारत के बारे में नहीं है. जब भी मैं किसी ऐसे ट्रेन को यहां से बनकर बाहर निकलते देखती हूं, जिस पर मैंने काम किया है, तो मैं बहुत गर्व महसूस करती हूं. आप अपनी मेहनत और बहाया गया पसीना सब भूल जाते हैं.’

पूरे शॉपफ्लोर के अंदर तैनात कई अन्य लोग भी ऐसा ही सोचते हैं.

कला आईसीएफ में काम करने वाली सिर्फ़ महिला कर्मियों से बनी ‘शक्ति टीम का हिस्सा है’ और महिलाएं यहां के 9,086 कर्मियों के मजबूत कार्यबल का लगभग दसवां हिस्सा रखती हैं.

लेकिन हर कोई वंदे भारत एक्सप्रेस, जिसके लिए कोई विशेष रूप से समर्पित कर्मचारी तैनात नहीं है, पर ही काम नहीं कर रहा है. श्रीनिवास ने कहा, ‘वे (स्टाफ) अन्य काम भी करते रहते हैं, क्योंकि आईसीएफ में अन्य प्रकार के कोच भी बनाए जा रहे हैं.’

Women workers at ICF | Photo: Moushumi Das Gupta | ThePrint
आईसीएफ म्यूजियम में महिला वर्कर । फोटोः मौसमी दास गुप्ता । दिप्रिंट

आईसीएफ के पूर्व जीएम मणि ने कहा कि उन्हें वंदे भारत एक्सप्रेस की सफलता से काफ़ी अच्छा महसूस होता है.

उन्होंने कहा, ‘एक बच्चा जिसे आपने आईसीएफ में अपनी टीम के साथ जन्म दिया था, आखिरकार बड़ा हो गया है और हर ट्रेन का उद्घाटन खुद पीएम कर रहे हैं. वह, और वास्तव में भारत के लोग, इसे पुनरुत्थान वाले भारत के प्रतीक के रूप में देखते हैं. हमने सिर्फ़ एक ट्रेन बनाई है, लेकिन टीम आईसीएफ द्वारा दिखाई गई प्रतिबद्धता और उद्देश्य की भावना के कारण इसने ‘कल्ट स्टेटस’ का दर्जा हासिल कर लिया है.’

चुनौतियां जो अभी भी बनी हुई हैं

वंदे भारत ट्रेनें काफी हाई-टेक (उन्नत तकनीक वाली) हैं. प्रत्येक कोच में सीसीटीवी कैमरे, घूमने वाली सीटें, वायुगतिकीय रूप से प्रोफाइल किए गए नोज कोन्स, वाई-फाई इंफोटेनमेंट सुविधाएं, बायो-वैक्यूम शौचालय और टक्कर रोधी उपकरण लगे होने के साथ ये ट्रेनें नवीनतम तकनीक से भरी हुई हैं.

लेकिन चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं. इनमें से पहली है ट्रेनों को 160 किमी प्रति घंटे की उनकी पूरी संभावित गति से चलना. वर्तमान में ऐसी गति का समर्थन करने के लिए कोई बुनियादी ढांचा नहीं है.

मणि ने कहा, इसे अपनी पूरी क्षमता से चलाने के लिए, एक चीज़ जो नितांत आवश्यक है, वह है बाड़ लगाना. जब तक आपके पास एक फेंसिंग ट्रैक (बाड़बंद रेल की पटरियाँ) नहीं आ जाती है, रेलवे सुरक्षा के मुख्य आयुक्त आपको 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से ट्रेन दौड़ने की मंजूरी नहीं देंगे, क्योंकि उस गति पर कोई भी टकराव बहुत हानिकारक हो सकता है.’

हालांकि पटरियों को अपग्रेड करने की बात एक दशक से अधिक समय से चल रही है, भारतीय रेल ने कुछ साल पहले ही इस पर काम शुरू किया है. मणि ने कहा, ‘एक बार इसके पूरा हो जाने के बाद, आप ट्रेन को 160 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चला सकते हैं, जो इसकी पूरी क्षमता है. अन्यथा आप इसे 130 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से ही चला सकते हैं.’

यह सुनिश्चित करना कि आवारा मवेशी भटक कर पटरियों पर न आएं, एक और बड़ी चुनौती है.

वर्तमान में, वंदे भारत एक 16-कोच वाली ट्रेन संरचना है. लेकिन भविष्य में, आईसीएफ इससे लंबी बनावट की ट्रेनें बनाने की योजना बना रहा है, खासकर स्लीपर कोच के लिए. आईसीएफ के जीएम ने कहा, ‘स्लीपर ट्रेन क्लास इसका अगला संस्करण है. हम उस पर काम कर रहे हैं और जल्द ही आप हमसे इस बारे में और जानेगें.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः न नौकरी, न फूटी कौड़ी- UP में गलत तरीके से दोषी करार दिया गया मुस्लिम युवक 10 साल बाद रिहा


 

share & View comments