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Thursday, 25 April, 2024
होमरिपोर्टन नौकरी, न फूटी कौड़ी- UP में गलत तरीके से दोषी करार दिया गया मुस्लिम युवक 10 साल बाद रिहा

न नौकरी, न फूटी कौड़ी- UP में गलत तरीके से दोषी करार दिया गया मुस्लिम युवक 10 साल बाद रिहा

नाबालिग के साथ दुष्कर्म और हत्या के आरोप से बरी किए गए छोटकऊ ने करीब एक दशक का वक्त बिना जमानत जेल में बिताया. इस दौरान वह डिप्रेशन का शिकार रहा और दिल का दौरा भी झेला. अब जेल से बाहर आने के बाद उसकी चिंता है कि आगे गुजर-बसर कैसे होगी.

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नई दिल्ली: डिप्रेशन, हार्ट अटैक और एक एंजियोप्लास्टी के बाद छोटकऊ को आखिरकार पिछले महीने न्याय मिल ही गया. और एक ऐसे अपराध, जिसमें उसे गलत ढंग से दोषी करार दिया गया, की सजा के तौर पर करीब 10 साल जेल में बिताने के बाद वह 30 सितंबर को उत्तर प्रदेश की वाराणसी सेंट्रल जेल से बाहर आ गया.

लेकिन उसके लिए यह रिहाई कोई ऐसी नई शुरुआत नहीं है जैसी किसी को उम्मीद हो सकती है.

छोटकऊ को 8 मार्च, 2012 को गिरफ्तार किया गया था. उस पर छह साल की बच्ची के साथ कथित तौर पर बलात्कार करने और फिर उसकी हत्या कर देने का आरोप था. 29 मार्च, 2014 को ट्रायल कोर्ट ने उसे मौत की सजा सुनाई और 18 अप्रैल, 2016 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस सजा को बरकरार रखा. उल्लेखनीय है कि ट्रायल कोर्ट ने अपने फैसले के साथ ही उसी दिन मौत की सजा सुनाई थी.

इस केस में एक विशेष अनुमति याचिका दायर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 6 मार्च, 2018 को फांसी की सजा पर रोक लगा दी. अब, करीब एक दशक लंबे इंतजार के बाद छोटकऊ को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया है, जिसने साथ ही यह भी कहा कि ‘मामले में ऐसा कोई सबूत नहीं है जो जांच में खरा उतरे.’

श्रावस्ती जिले के सेमग्राहा गांव स्थित अपने घर से करीब तीन किलोमीटर दूर रहने वाले एक रिश्तेदार के फोन पर दिप्रिंट से बातचीत करते हुए छोटकऊ जेल में बिताए कठिनाई भरे सालों को याद करके काफी व्याकुल हो जाता है, साथ ही यह चिंता भी जाहिर करता है कि उसका आगे का अनिश्चितता भरा जीवन कैसे कटेगा.

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वह कहता है, ‘मैं जेल की दीवारें ताकता रहता और सोचता कि मेरे साथ यह अन्याय क्यों हुआ. फांसी का इंतजार करते हुए रात में जब जेल में अपनी सेल में लेटा होता तो मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ जाता था. मेरी मां के अकेले होने, मेरी बहन की अच्छी शादी नहीं हो पाने जैसे विचार मुझे सोने नहीं देते थे. मेरा पूरा परिवार उजड़ गया था. मैं खुश हूं कि अब मैं आजाद हूं, लेकिन असल में आजादी क्या है? मैं अपना जीवन कैसे काटूंगा?’

छोटकऊ ने बताया कि जेल में बिताए वक्त के दौरान वह सालों तक डिप्रेशन से जूझता रहा, और शायद ही किसी से बात करता था. उसे पांच-छह साल पहले दिल का दौरा भी पड़ा था, जिसके बाद एंजियोप्लास्टी सर्जरी की जरूरत पड़ी. इलाज के बाद वाराणसी सेंट्रल जेल लौटने पर छोटकऊ ने इंडियन ऑयल के एक कार्यक्रम से खुद को जोड़ा, जिसका उद्देश्य कैदियों का जीवन सुधारने में मदद करना था. प्रोग्राम रिप्रेजेंटेटिव ने उसे किसी न किसी गेम में हिस्सा लेने का सुझाव दिया. इसलिए, एक महीने तक छोटकऊ हर दिन कैरम खेलता रहा और हर बार जब भी वह इसमें जीत जाता तो उसे ‘उम्मीद की एक किरण’ नजर आती.

हालांकि, अब जेल से बाहर आने के बाद छोटकऊ को तमाम तरह की चिंताओं ने घेर रखा है. ‘मैं अपनी हार्ट की दवाओं का इंतजाम कैसे करूंगा’, ‘अपनी बूढ़ी मां की देखभाल कैसे करूंगा’, ‘मुझे नौकरी कौन देगा.’ आदि सवाल इस 30 वर्षीय युवक को परेशान करते रहते हैं.

उसके शुभचिंतकों ने रिहाई के बाद तुरंत श्रावस्ती स्थित अपने पैतृक गांव न लौटने के लिए आगाह भी किया था. वह बताता है कि उसके परिवार को उसकी ननिहाल की तरफ के कुछ रिश्तेदारों और अन्य लोगों ने धमकाया था, जिन्होंने उसे न केवल गलत तरीके से फंसाया था बल्कि यह धमकी भी दी थी कि उसका मिट्टी का घर ढहा देंगे.

वह शादी करना चाहता है, लेकिन सोचता है कि आखिरकार उस जैसे गरीब व्यक्ति और जो ‘बलात्कार का आरोपी’ भी है, को कौन अपनी बेटी देगा.

उसे लगता है कि पिछले 10 सालों में कई पीढ़ियां बीत गई हैं. उसने कहा, ‘अब हर बच्चे से लेकर बूढ़े तक के पास मोबाइल फोन है. अब यही देख लीजिए कि मेरे साथ संपर्क करना आपके लिए कितना मुश्किल था. मेरे पास फोन खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, जबकि यह एक बुनियादी जरूरत है.’

सजा से पहले छोटकऊ ट्रैक्टर चलाता था और कुछ छोटे-मोटे काम करता रहता था. जेल में भी वह कभी-कभी बोतलें भरकर और अन्य कैदियों के कपड़े धोकर 100-150 रुपये कमा लेता था. उसने जेल में रहकर आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, लेकिन जानता है कि यह नौकरी दिलाने के लिए काफी नहीं है.

यह बात उनकी मां जन्नतुल निशा भी समझती हैं. उन्होंने कहा, ‘उसका जीवन फिर से सामान्य नहीं हो पाएगा. उसे वहां दिल का दौरा पड़ा था और अब चलते समय गिर न जाए, इसके लिए उसे बेंत की जरूरत पड़ती है.’

बहरहाल, जिस दिन वह घर आया, उसने उसका पसंदीदा आलू चोखा बनाया था. वह कहती हैं, ‘इन 10 वर्षों में मैंने उसे देखने के लिए बस की टिकट का इंतजाम करने के लिए भीख मांगी है. मुझे लगा जैसे मेरी आत्मा मर गई है. कितनी ही ईद बीत चुकी हैं और कोई अपराध न करने के बावजूद उसे हमसे दूर रहना पड़ा.’


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‘छोटकऊ को दोषी साबित करने वाला कोई मेडिकल या फोरेंसिक साक्ष्य नहीं’

छोटकऊ निचली अदालतों में अपने मुकदमे के दौरान किसी वकील का खर्च नहीं उठा सकता था.

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत पूछताछ के दौरान छोटकऊ ने अपने बचाव में बताया था कि स्थानीय स्तर पर एक दबंग व्यक्ति जालिम खान—जो उसकी मां के रिश्तेदार हैं और उस समय ग्राम प्रधान थे—के इशारे पर उसे फंसाया गया था. इसके पीछे वजह यह भी थी कि वह उसकी मां को अपने पिता से मिली संपत्ति को हथियाना चाहते थे.

जालिम खान निशा के चाचा हैं. छोटकऊ ने दिप्रिंट को बताया कि खान उनकी जमीन पर कब्जा करने में सफल रहे और अपने बड़े भाइयों के लिए केवल कुछ बीघा जमीन ही छोड़ी.

प्रोजेक्ट 39ए में लिटिगेशन एसोसिएट और काउंसलर टीम की सदस्य शिवानी मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया, ‘मामला पूरी तरह आखिरी में देखे जाने संबंधी परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था.’

उन्होंने कहा, ‘गवाहों और जांच अधिकारी की गवाही के बीच विरोधाभास था, जिसके कारण अंतिम बार देखे जाने वाली स्थिति साबित नहीं हुई. बचाव पक्ष ने छोटकऊ पर झूठे आरोपों को साबित करने के लिए साक्ष्यों का इस्तेमाल किया जिस पर निचली अदालतों ने ठीक से ध्यान ही नहीं दिया था. जबकि छोटकऊ को अपराध से जोड़ने के लिए कोई मेडिकल या फोरेंसिक सबूत नहीं था.’

शीर्ष अदालत में छोटकऊ की तरफ से दलीलें हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस. नागमुथु ने पेश कीं.

अभियोजन की लापरवाही और अदालतों के विरोधाभास

सुप्रीम कोर्ट ने उसे रिहा करने का आदेश देते हुए कहा, ‘जांच ठीक से नहीं कराकर अभियोजन पक्ष ने पीड़ित के परिवार के साथ अन्याय किया है. जांच में खरे उतरने वाले किसी सबूत के बिना अपीलकर्ता पर दोष साबित किया जाना अभियोजन पक्ष की तरफ से अपीलकर्ता के साथ एक अन्याय है. अपराध के शिकार किसी पीड़ित के साथ अन्याय की भरपाई के लिए अदालतें किसी अन्य के साथ अन्याय नहीं कर सकतीं.’

शीर्ष अदालत की तीन-जजों की पीठ ने इस मामले में कई तरह की विसंगतियां पाईं—जिसमें जांच की तारीख और समय को लेकर विरोधाभास भी शामिल है.

इसके अलावा, पीड़िता ने किस रंग के कपड़े पहने थे, इसके संदर्भ में भी अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान अलग-अलग थे. इसमें कई तरह के विरोधाभास नजर आए, ‘(i) वह स्थान जहां पुलिस ने पहली बार शव देखा था; (ii) वह व्यक्ति जिसने शव को कब्जे में लिया; और (iii) वह स्थान जहां शव ले जाया गया था.’

एफआईआर दर्ज करने के तरीके और ‘क्षेत्राधिकार न्यायालय को एफआईआर फॉरवर्ड करने में पांच दिनों की अस्पष्ट देरी’ को भी तर्कसंगत नहीं पाया गया.

पीठ ने कहा, ‘दुर्भाग्य से, सत्र न्यायालय के साथ-साथ हाई कोर्ट ने भी इन प्रमुख विरोधाभासी तथ्यों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया और अपराध को साबित करने के लिए जोड़ी गई तमाम कड़ियां बदस्तूर बनी रहीं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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