नई दिल्ली: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) डेटा के अनुसार, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) शासन के पिछले आठ वर्षों की तुलना में भारत में मोदी सरकार के पिछले आठ वर्षों में सांप्रदायिक कारणों से होने वाली हत्याओं में 12 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है.
2014 और 2021 के बीच, देश भर में सांप्रदायिक मकसद से 190 हत्याएं दर्ज की गईं जो कि 2006 से 2013 के बीच हुई हत्याओं से 216 की गिरावट है.
जहां तक पिछले आठ वर्षों में हुई इन सांप्रदायिक हत्याओं की बात है, तो 2020 में सबसे अधिक 62 ऐसे मामले सामने आए. संयोग से, वर्ष 2020 में देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किए गए थे, जिसमें दिल्ली भी शामिल थी, जहां विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के खिलाफ इसके पूर्वोत्तर उपनगरों में दंगे हुए थे.
2021 तक उपलब्ध एनसीआरबी के वार्षिक डेटा को ध्यान में रखते हुए आठ साल की कटऑफ निकाली गई, जिसकी रिपोर्ट पिछले साल अगस्त में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी की गई थी. यह ध्यान रखना उचित है कि निष्कर्ष ऐसे समय में आए हैं जब भाजपा शासित हरियाणा में नूंह पिछले सप्ताह की सांप्रदायिक हिंसा से उबर रहा है.
एनआरसीबी के आंकड़ों के अनुसार, 2014-2021 की अवधि में सांप्रदायिक एंगल वाले 53 हत्याओं के साथ दिल्ली राज्य में सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए. इससे पहले, 2006-2013 की अवधि में 63 हत्याओं के साथ उत्तर प्रदेश इस सूची में शीर्ष पर था.
इसके अलावा, यदि वर्ष 2000 के बाद के आंकड़ों पर विचार किया जाए, तो 2002 में सांप्रदायिक उद्देश्यों की वजह से लगभग 308 हत्याओं के साथ मरने वालों की संख्या सबसे अधिक थी. उस वर्ष 276 मामलों के साथ गुजरात इस सूची में शीर्ष पर था.
तब से, एक वर्ष में कभी भी सांप्रदायिक मकसद से की गई हत्याओं की संख्या 100 से अधिक नहीं हुई है. एनसीआरबी रिकॉर्ड से पता चलता है कि 2013 (71) और 2020 (62) को छोड़कर, किसी भी एक वर्ष में यह संख्या 50 से अधिक नहीं हुई है.
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दंगे का डेटा एकत्र करने की पद्धति
अपनी वार्षिक रिपोर्ट संकलित करने के लिए, एनसीआरबी किसी दिए गए वर्ष में पुलिस द्वारा रिपोर्ट किए गए सभी मामलों का एक एकीकृत डेटासेट बनाता है. गैर-कानूनी तरीके से इकट्ठा होने की धारा के तहत एनसीआरबी में दंगा करने की भी धारा है. इस खंड में आगे ‘सांप्रदायिक’ नामक एक उपशीर्षक है, जिसके लिए डेटा 2014 से उपलब्ध है.
2014 तक, NCRB ने ‘दंगों’ की एक ही श्रेणी के तहत तीन शीर्षकों – दंगे, गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा होना, और समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने वाले अपराध – के तहत डेटा प्रदान किया था. इसने अगले वर्ष से इन प्रमुखों के साथ-साथ ‘विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने वाले अपराध’ जैसे अन्य प्रमुखों के लिए डेटा अलग से देना शुरू कर दिया.
इससे 2014 से पहले की अवधि की तुलना करना लगभग असंभव हो जाता है. इसलिए, सांप्रदायिक दंगों का डेटा 2014 से 2021 तक उपलब्ध है. हालांकि, धार्मिक या सांप्रदायिक मकसद से हत्याओं की जानकारी लंबी अवधि के लिए उपलब्ध है.
जब दंगों पर डेटा की बात आती है तो एक चेतावनी है – यह घटना की तीव्रता को मापता नहीं है. उदाहरण के लिए, 2020 के दिल्ली दंगों में, जिसमें 53 लोगों की जान चली गई, सांप्रदायिक दंगों के कई सौ मामले दर्ज किए गए.
दंगे के मामले और पीड़ित
पिछले आठ वर्षों में मरने वालों की संख्या में उतार-चढ़ाव की तरह, एक आश्चर्यजनक बात यह है कि देश भर में पुलिस द्वारा दर्ज किए गए दंगे-संबंधी मामलों की संख्या में भी मोदी शासन के तहत उतार-चढ़ाव आया है.
इन आंकड़ों पर विचार करें: 2014 में, भारत में सांप्रदायिक दंगों की लगभग 1,227 घटनाएं हुईं, जिनमें 2,001 पीड़ित थे. अगले वर्ष यह घटकर 789 घटनाएं रह गईं और पीड़ितों की संख्या 1,174 रह गई. जहां 2016 में दंगों की घटनाओं की संख्या बढ़कर 869 हो गई, वहीं दंगों से प्रभावित लोगों की संख्या 1,139 थी.
2018 में पीड़ितों की संख्या 812 थी जबकि दंगों की संख्या 512 थी. वहीं 2019 में ग्राफ घटकर 440 दंगों तक रह गया और पीड़ितों की संख्या 593 रह गई, लेकिन 2020 में यह संख्या तेजी से बढ़ गई जब पुलिस ने 857 मामले दर्ज किए और पीड़ितों की संख्या 1,065 बताई.
वर्ष 2021 में 378 दंगों के मामले दर्ज किए गए जो कि 2014 के बाद से सबसे कम था, जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड क् मुताबिक पीड़ितों की संख्या 530 थी.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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