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Sunday, 22 December, 2024
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‘नेम-शेम’ पोस्टर्स, कफ़ील ख़ान केस, हाथरस- इलाहबाद हाइकोर्ट ने UP सरकार की 5 बार खिंचाई की

पिछले एक साल में इलाहबाद हाईकोर्ट ने कई आदेश जारी किए हैं, जिनमें योगी आदित्यनाथ सरकार और उसके पदाधिकारियों के कई कामों पर सवाल उठाए गए हैं.

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नई दिल्ली: इस साल गांधी जयंती से पहले, इलाहबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 वर्षीय दलित युवती के जल्दबाज़ी में किए गए दाह संस्कार का स्वत: संज्ञान ले लिया. ऐसा करते हुए उसने गांधी का हवाला देते हुए कहा कि ‘ये समय है कि हम ‘बापू’ के आदर्शों पर चलने का अपना संकल्प मज़बूत करें, लेकिन दुर्भाग्यवश ज़मीनी वास्तविकताएं उन ऊंचे मूल्यों से बिल्कुल अलग हैं, जिनका हमारे राष्ट्रपिता ने प्रचार और अभ्यास किया’.

एक ‘सभ्य और सम्मानित ढंग से अंतिम संस्कार/दफ़न के अधिकार’ पर ज़ोर देते हुए, कोर्ट ने राज्य के अधिकारियों से जवाब तलब किए.

लेकिन, ये टिप्पणियां हाईकोर्ट के उन आदेशों की सिर्फ ताज़ा कड़ी हैं, जिनमें योगी आदित्यनाथ सरकार और उसके पदाधिकारियों से पिछले एक साल के उनके कई कार्यों पर सवाल उठाए गए हैं.

इन आदेशों में पदाधिकारियों से, कथित दंगाइयों की निजी डीटेल्स देने वाले होर्डिंग्स हटाने को कहने से लेकर, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शनों में, घायल हुए या मारे गए लोगों की तफ़सील मांगना तक शामिल है.


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लोगों की निजता में नाजायज़ दख़लंदाज़ी’

इस साल मार्च के पहले हफ्ते में, अधिकारियों ने दीवारों पर बैनर्स चिपका दिए, जिनमें 50 से अधिक लोगों के फोटो और उनकी निजी डीटेल्स छपी हुई थीं, और जिन्हें कथित रूप से सरकारी संपत्ति को नुक़साने के एवज़ में, मुआवज़ा भरने को कहा गया था.

कुछ दिन के भीतर ही इलाहबाद हाईकोर्ट ने, इन होर्डिंग्स का स्वत: संज्ञान ले लिया और कहा कि ये ‘लोगों की निजता में नाजायज़ दख़लंदाज़ी में दख़ल के अलावा कुछ नहीं है. कोर्ट ने कहा कि केस की वजह उन लोगों को पहुंची चोट नहीं है, जिनका निजी ब्यौरा सार्वजनिक किया गया है, बल्कि वो चोट है जो हमारे बेशक़ीमती संवैधानिक मूल्यों को पहुंची है, और जिसका प्रशासन ने बेशर्मी के साथ प्रदर्शन किया है’.

राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के ख़िलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने 12 मार्च को ये मामला, तीन जजों की एक बेंच के पास भेज दिया. लेकिन, कोविड-19 महामारी के चलते, कोर्ट का कामकाज काफी हद तक बाधित होने से, ये मामला अभी लंबित है.

मनमर्ज़ी से कफ़ील ख़ान को हिरासत में रखा

एक सितंबर को इलाहबाद हाईकोर्ट ने, राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (एनआईए) के तहत डॉ. कफील ख़ान की हिरासत को रद्द कर दिया, और उन अधिकारियों के ख़िलाफ सख़्त टिप्पणी की, जिन्होंने उनकी हिरासत के आदेश दिए थे.

अपने फैसले में, मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह ने कहा कि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, जिसने ख़ान को हिरासत में लेने का आदेश जारी किया, ने ‘भाषण के असली आशय को नज़रंदाज़ करते हुए, उसे चयनात्मक ढंग से पढ़ा, और कुछ वाक्यों को वैसे ही उल्लिखित किया’.

अदालत ने ये भी कहा कि कोई ‘ऐसे निष्पक्ष तथ्य मौजूद नहीं थे’, जिनके आधार पर हिरासत में लेने वाले अधिकारी, ख़ान के मामले में कोई वैध व्यक्तिपरक समाधान निकाल सकते.

कोर्ट ने कहा कि डीएम का ‘व्यक्तिपरक संतोष’- जो एनएसए आदेश जारी करने के लिए ज़रूरी होता है- वो किसी क़ानूनी या नियमित तरीक़े पर नहीं, बल्कि उनकी सनक और दिल्लगी पर आधारित पाया गया’.

ख़ान 29 जनवरी से जेल में थे, जब 12 दिसंबर को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, सीएए के खिलाफ भाषण देने के बाद, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. पहले 13 दिसंबर को उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई. लेकिन 13 फरवरी 2020 को उसी भाषण के लिए, उन पर एनएसए के आरोप भी मढ़ दिए गए. उनकी हिरासत दो बार बढ़ाई गई.


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पुलिस की ज़्यादतियां, एएमयू हिंसा

दिसंबर 2019 में नागरिकता क़ानून विरोधी प्रदर्शनों से निपटने के, उत्तर प्रदेश सरकार के तरीक़ों से बढ़ती नाराज़गी के बीच, इलाहबाद हाईकोर्ट ने आगे बढ़कर, सूबे में बिगड़ती क़ानून व्यवस्था के बहुत से आरोपों का संज्ञान ले लिया.

दिसंबर 2019 में जारी अपने एक आदेश में कोर्ट ने, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को, सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, कथित पुलिस हिंसा की जांच का निर्देश दिया था.

एनएचआरसी की रिपोर्ट पेश होने के बाद, फरवरी में अदालत ने योगी सरकार को इस रिपोर्ट का पालन करने का आदेश दिया, जिनमें गंभीर रूप से घायल छह छात्रों को मुआवज़ा देने, और उन पुलिसकर्मियों की शिनाख़्त करने को कहा गया था, जो ‘मोटर साइकिलें तोड़ने की छिट-पुट घटनाओं, और पकड़े गए छात्रों पर लाठियां चलाने में शामिल थे, जिनका कानून व्यवस्था पर क़ाबू पाने से कोई लेना-देना नहीं है’.

कोर्ट ने मुम्बई स्थित वकील अजय कुमार के 7 जनवरी को लिखे एक पत्र का भी संज्ञान लिया, जिसमें दो न्यूज़ रिपोर्ट्स में उल्लिखित, पुलिस अत्याचार का हवाला दिया गया था.

उसके बाद 27 जनवरी को हुई एक सुनवाई में, कोर्ट ने सूबे के अधिकारियों से, विरोध प्रदर्शनों के दौरान मारे जाने वाले लोगों का ब्यौरा भी मांगा था, जिसमें उनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट्स, उनके ज़ख़्मों की जानकारी, उस दौरान पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ दर्ज शिकायतों, और प्रदर्शनकारियों को दी गई चिकित्सकीय सहायता की जानकारी मांगी गई थी.

ये मामला, जो 17 फरवरी को लिस्ट किया गया था, अभी तक लंबित है.

‘मानवाधिकारों का उल्लंघन’

ऐसे ही आदेशों की कड़ी में, एक पीआईएल के मामले में, कोर्ट की ताज़ा टिप्पणियां हैं, जो हाथरस में एक 19 वर्षीय दलित महिला के शव का, पुलिस द्वारा जबरन दाह-संस्कार किए जाने के बाद दायर की गई थी.

उस महिला का 14 सितंबर को कथित रूप से, ऊंची जाति के चार लोगों ने बलात्कार किया था. दो हफ्ते बाद दिल्ली के एक अस्पताल में उसकी मौत हो गई. एक भारी विवाद उस समय खड़ा हो गया, जब यूपी पुलिस ने गांव में देर रात, लड़की के शव का दाह-संस्कार कर दिया, और परिवार के सदस्यों को उसे ‘आख़िरी बार देखने’ भी नहीं दिया, हालांकि परिवार वाले उनसे सुबह तक इंतज़ार करने की विनती करते रहे.

12 अक्तूबर को जारी अपने आदेश में, न्यायमूर्तियों पंकज मित्तल और रंजन रॉय की बेंच ने कहा, कि राज्य के अधिकारियों का ये कृत्य, ‘हालांकि क़ानून व्यवस्था के नाम पर था, लेकिन प्रथमदृष्टया ये पीड़िता और उसके परिजनों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है’.

अदालत ने सूबे के पदाधिकारियों, एडीजी (क़ानून व्यवस्था) और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से भी, जो अदालत में मौजूद थे, उनकी कुछ टिप्पणियों पर सवाल किए, जिनमें कहा गया था कि लड़की का रेप नहीं हुआ था.

आदेश के अनुसार, कोर्ट ने एडीजी प्रशांत कुमार से पूछा, ‘क्या ऐसे व्यक्ति के लिए, जो जांच से जुड़ा हुआ नहीं था, कथित अपराध से जुड़े किसी साक्ष्य पर, ख़ासकर जब आरोप रेप का हो, कोई टिप्पणी करना उचित था, या उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना उचित था कि अपराध हुआ था या नहीं, जबकि तफ्तीश अभी चल रही थी, और ऐसा व्यक्ति तफ़्तीश का हिस्सा भी नहीं था’.

एचसी के वकील ने कहा- हस्तक्षेप तो होने ही थे

इलाहबाद हाईकोर्ट के वकील उज्ज्वल सतसंगी ने दिप्रिंट से कहा कि कभी कभी हाईकोर्ट की ओर से ऐसे ‘हस्तक्षेप ज़रूरी हो जाते हैं’.

उन्होंने कहा, ‘ये प्रथा भारत की आज़ादी के समय से चली आ रही है, जहां न सिर्फ हाईकोर्ट बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी, समय समय पर ऐसे मामलों को उठाया है, जो काफी हद तक, समाज और जजों के अंत:करण को झिंझोड़ देते हैं’.

उन्होंने आगे कहा, ‘बेशक अदालतों को कुछ संयम बरतना चाहिए, लेकिन मुझे लगता है कि इलाहबाद हाईकोर्ट ऐसा कर रहा है. वो हर मामले का संज्ञान नहीं ले रहा है, बल्कि कुछ चुनिंदा मामलों पर फोकस कर रहा है, जो पूरे समाज की चेतना को हिला देते हैं. ऐसे मामलों में हाईकोर्ट्स या सुप्रीम कोर्ट का दख़ल ज़रूरी हो जाता है’.

दिप्रिंट ने संदेशों के माध्यम से, उत्तर प्रदेश सरकार के एडवोकेट जनरल, राघवेंद्र सिंह से संपर्क किया, लेकिन इस रिपोर्ट के छपने तक, उनका जवाब नहीं मिला था.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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