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Sunday, 28 April, 2024
होमदेश‘लव इज लव’ vs ‘परिवार पर हमला’- समलैंगिक विवाह पर आज दलीलें सुनेगी संविधान पीठ

‘लव इज लव’ vs ‘परिवार पर हमला’- समलैंगिक विवाह पर आज दलीलें सुनेगी संविधान पीठ

संविधान पीठ ऐसी 12 याचिकाओं—दो SC और 10 HC में दाखिल की गई हैं—पर सुनवाई करेगी जिसमें सेम-सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता देने की मांग की गई है.

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नई दिल्ली: मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ मंगलवार से समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू करेगी. बेंच के अन्य सदस्यों में जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस. रवींद्र भट, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा, और जस्टिस हिमा कोहली शामिल हैं.

सीजेआई की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय पीठ ने 13 मार्च को इन याचिकाओं को ‘संवैधानिक अधिकारों और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 सहित विशिष्ट विधायी अधिनियमों के बीच फंसा एक जटिल मसला’ मसला मानते हुए संविधान पीठ के हवाले कर दिया था.

यह कदम संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के अनुरूप उठाया गया, जो इस बात को रेखांकित करता है कि संविधान की व्याख्या से जुड़े कानून के पर्याप्त प्रश्न उठाने वाली याचिकाओं को कम से कम पांच न्यायाधीशों द्वारा सुना जाना चाहिए.

याचिकाओं में दी गई दलीलों पर केंद्र की आपत्ति को दरकिनार करते हुए यह आदेश दिया गया, जिसमें सरकार ने जोर देकर कहा था कि समान-लिंग विवाह के मुद्दे पर केवल संसद ही कानून बना सकती है.

25 नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने समक्ष दायर दो याचिकाओं पर संज्ञान लिया, जो विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (एसएमए) की संवैधानिकता पर केंद्रित थी.

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दो समलैंगिक जोड़ों की तरफ से दायर याचिकाओं में विशेष विवाह अधिनियम को भेदभावपूर्ण बताया गया, क्योंकि यह केवल पुरुष और महिला के बीच विवाह को ही मान्यता देता है. इसमें समान-लिंगी जोड़ों के लिए वैवाहिक लाभों—जैसे एडॉप्शन, सरोगेसी और रिटायरमेंट बेनीफिट आदि—का कोई प्रावधान नहीं किया गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने जहां दो याचिकाओं पर सुनवाई का फैसला किया, इसी तरह की आठ अन्य याचिकाएं पहले से ही दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित थी. वहीं केरल और गुजरात हाई कोर्ट में भी एक-एक याचिका लंबित थी.

इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज के एक सीनियर रिसर्च फेलो अभिजीत अय्यर मित्रा नवंबर 2020 में दिल्ली हाई कोर्ट में इस मुद्दे को उठाने वाले पहले व्यक्ति थे.

इसके बाद, अगले दो वर्षों में अदालत में सात और याचिकाएं दाखिल की गईं और 23 जनवरी 2023 को इन सभी याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया.

विभिन्न उच्च न्यायालयों में ऐसी याचिकाएं दायर होने को देखते हुए 6 जनवरी 2023 को सीजेए चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली एक पीठ ने निर्देश दिया कि समलैंगिक विवाह से संबंधित सभी मामलों को सुप्रीम कोर्ट ट्रांसफर किया जाए.

दिप्रिंट यहां पर विभिन्न याचिकाकर्ताओं की दलीलों, केंद्र सरकार की आपत्तियों, धार्मिक संस्थानों की तरफ से उठाए गए सवालों के साथ-साथ दो बाल-अधिकारों से जुड़े वैधानिक निकायों की तरफ से जाहिर की गई चिंताओं पर एक नजर डाल रहा है, जिन सभी पहलुओं पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होनी है.


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क्या है पूरा मामला

समलैंगिक विवाह के संबंध में पहली याचिका अभिजीत अय्यर मित्रा ने नवंबर 2020 यानी सुप्रीम कोर्ट की तरफ से भारत में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को खत्म करने के करीब दो साल बाद दायर की थी.

2018 में नवतेज जौहर फैसले में विक्टोरिया-कालीन कानून रद्द कर दिया गया था, जिसके तहत समलैंगिक संबंध कानूनी तौर पर अपराध था और इसके लिए दंड का प्रावधान था.

अय्यर मित्रा और पिछले दो सालों में अन्य लोगों की तरफ से दायर याचिकाओं में समुदाय-विशिष्ट कानूनों, खासकर हिंदू विवाह अधिनियम के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की है, जिसका हिंदुत्व से जुड़े संभी संप्रदाय बौद्ध, सिख, जैन आदि पालन करते हैं.

तर्क दिया जाता है कि हिंदू विवाद अधिनियम (एचएमए) अपनी भाषा में विषमलैंगिक और समलैंगिक विवाहों के बीच अंतर नहीं करता. एचएमए की धारा 5 के मुताबिक, विवाह ‘किन्ही दो हिंदुओं के बीच सम्पन्न’ हो सकता है. धारा 5 में विवाह की शर्तों को सूचीबद्ध किया गया है.

कुछ याचिकाओं में एसएमए के तहत समलैंगिक विवाहों के पंजीकरण के लिए भी कहा गया है, जो एक धर्मनिरपेक्ष कानून है.

हालांकि धारा 4 ‘किन्हीं दो लोगों के बीच विवाह’ अनुष्ठान सम्पन्न होने की बात कहती है, लेकिन इसी प्रावधान की उप-धारा ‘सी’ में विवाह के लिए पात्र पुरुष और महिला की न्यूनतम आयु का जिक्र है. धारा 4सी में कहा गया है कि शादी करने के लिए पुरुष की न्यूनतम उम्र 21 साल और महिला की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए.

1969 का विदेशी विवाह अधिनियम (एफएमए) भी एसएमए के लिए बताए गए कारणों से ही विवादित है. जिन याचिकाकर्ताओं ने इस कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया है, उन्हें ‘दूल्हा’ और ‘दुल्हन’ शब्दों के इस्तेमाल पर आपत्ति है. उनकी दलील है कि ये दो शब्द कानून को विषमलैंगिक विवाहों तक सीमित करते हैं.

याचिकाकर्ताओं की तरफ से तर्क दिया गया है कि एचएमए, एसएमए और एफएमए अपने मौजूदा स्वरूप में किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव के खिलाफ मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं, जिसकी गारंटी अनुच्छेद 14 और 15 के तहत मिली हुई है.

उनका कहना है कि ये कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ निजता के अधिकार का भी उल्लंघन करते हैं, जिसे 2018 में पुट्टास्वामी फैसले के बाद मौलिक अधिकार घोषित किया गया था.

उन्होंने अदालत से गुहार लगाई है कि या तो ‘भेदभावपूर्ण’ प्रावधानों को खत्म किया जाए या फिर उनकी व्याख्या इस तरह से की जाए जिसमें समलैंगिक जोड़े शामिल हों.

एसएमए और एफएमए में आपत्तियों का पता लगाने और नोटिस की अनिवार्यता को भी चुनौती दी गई है. दोनों विवाह कानूनों में, विवाह करने के लिए जोड़े के आवेदन पर आपत्तियां आमंत्रित करते हुए एक नोटिस जारी किया जाता है.

केंद्र ने समलैंगिक विवाह पर जताई आपत्ति

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने तीन अलग-अलग हलफनामों के माध्यम से याचिकाओं का विरोध करते हुए कहा है कि समलैंगिक विवाह को वैध नहीं ठहराया जा सकता.

केंद्र ने इसे महज एक खास वर्ग का दृष्टिकोण करार देते हुए अदालत में अपने ताजा हलफनामे में याचिकाओं के विचार योग्य होने पर ही सवाल उठाया है.

फरवरी 2021 में दिल्ली हाई कोर्ट में केंद्र की तरफ से पहले हलफनामे में कहा गया था कि विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच ही होता है, और वर्तमान विवाह कानूनों में हस्तक्षेप समाज में ‘बर्बादी का कारण’ बनेगा.

इस साल मार्च में दायर शीर्ष अदालत के समक्ष अपने हलफनामे में केंद्र ने कहा कि याचिकाकर्ता सेम-सेक्स मैरिज के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते, साथ ही स्पष्ट किया कि केंद्र समलैंगिक संबंधों का विरोध नहीं करता है.

केंद्र ने कहा, ‘भारतीय वैधानिक और व्यक्तिगत कानून व्यवस्था’ में यही माना जाता है कि विवाह केवल एक पुरुष और महिला के बीच ही हो सकता है. अदालत से इस मुद्दे पर संसद को निर्णय लेने देने का आग्रह करते हुए केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि कोई भी ‘ठोस बदलाव सक्षम विधायिका की तरफ से ही किया जा सकता है.’

केंद्र की तरफ से रविवार को दायर तीसरे हलफनामे में कहा गया है कि याचिकाएं ‘सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल एक खास शहरी वर्ग के विचारों’ का प्रतिनिधित्व करती हैं और विधायिका को इस व्यापक विचारों पर मंथन करना होगा.

विवाह की मौजूदा परिभाषा एक सामाजिक सहमति पर आधारित है, और विधायिका उस रूप को स्वीकृति देकर केवल लोगों की इच्छा का पालन करने के अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही है.

केंद्र ने कहा, ‘इस स्पष्ट लोकतांत्रिक इच्छा को न्यायिक आदेश के जरिये नकारा नहीं जाना चाहिए. साथ ही जोड़ा, विवाह की परिभाषा में किसी भी बदलाव के लिए व्यापक दृष्टिकोण पर विचार करने के लिए सभी ग्रामीण, अर्ध-ग्रामीण और शहरी आबादी की आवाज को शामिल को करना होगा. साथ ही विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को ध्यान में रखते हुए धार्मिक संप्रदायों की राय, विवाह संबंधी रीति-रिवाजों और अन्य परंपराओं पर पड़ने वाले असर के बारे में भी विचार करना होगा.


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विभिन्न संगठन कर रहे याचिकाओं का विरोध

धार्मिक निकायों सहित कई संगठन भी समलैंगिक विवाहों के पंजीकरण के विरोध में आगे आए हैं.

इस मामले में दखल के उद्देश्य से पहला आवेदन दिल्ली उच्च न्यायालय में दिसंबर 2021 में एनजीओ सेवा न्याय उत्थान फाउंडेशन की तरफ से दायर किया गया था, जो दिल्ली स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन है जो ‘कमजोर लोगों’ के सामाजिक समावेश और सुरक्षा के लिए काम करने का दावा करता है.

याचिकाओं के साथ इस अर्जी को भी शीर्ष अदालत में ट्रांसफर कर दिया गया है.

आवेदन में कहा गया है कि एचएमए के तहत समान-लिंगी विवाह की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि हिंदू धर्म में केवल एक पुरुष और महिला के बीच विवाह बंधन की ही अनुमति है.

एनजीओ ने अपने आवेदन में कहा है, ‘हिंदू जैसे समाजों में विवाह धर्म का एक बहुत अहम हिस्सा हैं और उसकी दिव्यता के साथ-साथ धार्मिक ग्रंथों से भी जुड़ा है और इस तरह यह भावनात्मक रूप से बहुत ज्यादा मायने रखता है.’

वाराणसी स्थित अखिल भारतीय संत समिति (एबीएसएस) की तरफ से दायर आवेदन में भी शीर्ष अदालत के समक्ष इसी तरह की दलील दी गई है. इसने कहा है कि हिंदू कानून के अनुसार विवाह एक ‘पवित्र संस्कार’ है न कि मुस्लिम पक्ष की तरह कोई अनुबंध.

एबीएसएस की याचिका में दावा किया गया है कि यह निकाय ‘सनातन धर्म’ के 127 संप्रदायों का एक संगठन है, जो ‘सनातन संस्कृति, वैदिक विकास और सामाजिक उत्थान’ की दिशा में काम कर रहा है.

इस बीच, मुस्लिम निकाय जमीयत उलमा-ए-हिंद ने एक आवेदन में समलैंगिक विवाह को ‘परिवार व्यवस्था पर हमला’ करार दिया है. जमीयत उलमा-ए-हिंद, देवबंदी विचारधारा से संबंधित इस्लामी विद्वानों के प्रमुख संगठनों में से एक है.

इसका तर्क है कि ऐसी याचिकाएं ‘सभी व्यक्तिगत कानूनों में एक पुरुष और एक महिला के बीच विवाह की स्थापित अवधारणा का पूर्ण उल्लंघन हैं और इस तरह मूलत: सभी पर्सनल लॉ सिस्टम में प्रचलित एक परिवारिक इकाई की संरचना से इतर जगह बनाने का इरादा रखती है.

एक धार्मिक और आध्यात्मिक संगठन होने का दावा करने वाली तेलंगाना मरकजी शिया उलेमा काउंसिल ने समानलिंगी विवाह को ‘एक विशेष पश्चिमी अवधारणा’ करार देते हुए इसे ‘भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए अनुपयुक्त’ बताया है.

इसका कहना है कि समलैंगिक विवाह इस्लामी मान्यताओं में निषिद्ध है. कुछ शोधों का हवाला देते हुए काउंसिल ने अदालत को बताया कि समलैंगिक जोड़ों द्वारा पाले गए बच्चे विषमलैंगिक जोड़ों के बच्चों की तुलना में पिछड़ जाते हैं.

तेलंगाना मरकजी शिया उलेमा काउंसिल ने कोर्ट को बताया कि यह एक ऐसा संगठन है जिसका मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक शिक्षाओं का प्रसार करना ही है.

बाल अधिकार संगठनों की राय परस्पर विरोधी

इस बीच, दो वैधानिक बाल-अधिकार निकायों ने समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर एक-दूसरे से अलग राय जाहिर की है.

अपनी तरफ से दखल देने संबंधी आवेदन में केंद्र सरकार की संस्था राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने इस आधार पर इन दलीलों का विरोध किया है कि समान लिंग वाले माता-पिता को गोद देना ‘बच्चों को खतरे में डालने’ जैसा है.

अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसे बच्चे को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह का दबाव झेलना पड़ता है.

इसमें कहा गया है कि समलैंगिक माता-पिता का पारंपरिक जेंडर रोल मॉडल तक सीमित संपर्क हो सकता है. आयोग ने कहा है कि ऐसे में बच्चों का संपर्क सीमित होगा और उनके समग्र व्यक्तित्व विकास प्रभावित होगा.

इसके उलट, दिल्ली सरकार के तहत आने वाला दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (डीसीपीसीआर) समलैंगिक विवाहों के साथ-साथ समलैंगिक जोड़ों की तरफ से बच्चे गोद लेने का भी समर्थन करता है.

इसमें कहा गया है कि यह साबित करने वाला कोई अनुभवजन्य डेटा नहीं है कि समान-लिंग वाले जोड़े माता-पिता बनने के अयोग्य होते हैं, या फिर समान-लिंगी जोड़ों के बच्चों पर मनोसामाजिक विकास किसी तरह से प्रभावित होता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी / संपादन: आशा शाह )


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