- जब भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की तत्कालीन महानिदेशक डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने साल 2017 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में उप महानिदेशक (कार्यक्रम) के रूप में पदभार संभाला, तो यह किसी भी भारतीय के लिए ऐसा पहला मौका था. इसके बाद से विश्व स्वास्थ्य संगठन में मुख्य वैज्ञानिक के रूप में वे कोविड महामारी के दौरान दुनिया भर में विज्ञान जगत की एक प्रमुख आवाज के रूप में उभरीं हैं.
- मार्च 2020 में, भारत ने सार्स-कॉव-2 वायरस को आइसोलेट (अलग-थलग) कर दिया था, जिससे कोवैक्शिन के विकास की जमीन तैयार हो गई थी. इसका श्रेय पुणे स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) को जाता है, जिसका नेतृत्व इसके निदेशक डॉ प्रिया अब्राहम कर रहीं थीं
- रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैज्ञानिक डॉ टेसी थॉमस को अक्सर भारत की ‘मिसाइल महिला’ के रूप में जाना जाता है. अग्नि- IV और अग्नि-V मिसाइलों के लिए परियोजना निदेशक रहीं डॉ थॉमस इन भूमिकाओं को निभाने वाली पहली महिला थीं.
भारतीय वैज्ञानिकों ने देश और विदेश, दोनों जगह कोविड-19 महामारी के खिलाफ प्रतिक्रिया को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उनमें से कई चिकित्सा अनुसंधान के लिए देश के शीर्ष निकाय – आईसीएमआर में नेतृत्व स्तर की भूमिका में शामिल महिलाएं भी थीं. लेकिन वे बहुत पहले से लड़कियों के मानविकी से जुड़े विषयों का अध्ययन करने के लिए अधिक उपयुक्त’ होने के बारे में व्याप्त मिथकों को तोड़ती आ रहीं हैं.
जब डॉ स्वामीनाथन ने 2015 में आईसीएमआर के महानिदेशक (डीजी) के रूप में पदभार संभाला, तो वह डॉ जी.वी. सत्यवती के बाद इस पद को संभालने वाली सिर्फ़ दूसरी महिला थीं. जब डॉ रेणु स्वरूप ने 2018 में जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव के रूप में पदभार संभाला, तो वह भी ऐसा करने वालीं दूसरी महिला ही थीं.
आईसीएमआर की छत्रछाया में कार्यरत विभिन्न संस्थानों के 27 निदेशकों में से 11 महिलाएं हैं.
PLACID परीक्षण के प्रयोग ने भारत और दुनिया भर में कन्वलेसेंट प्लास्मा थेरपी के बारे में समझ के दायरे का विस्तार किया, और इसने यह साबित कर दिया कि एक ठीक हो चुके कोविड रोगी से प्राप्त प्लाज्मा को किसी दूसरे को चढाना इसके इलाज में बहुत कम कारगर होता है. उस अध्ययन की प्रमुख लेखिका डॉ अपर्णा मुखर्जी थीं, जो आईसीएमआर में क्लिनिकल ट्रायल एंड हेल्थ सिस्टम्स रिसर्च यूनिट की प्रमुख थीं.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में भी कई प्रमुख पदों पर महिलाएं कार्यरत हैं, जो उपग्रह प्रक्षेपण और मंगल मिशन पर काम कर रही हैं. उदाहरण के लिए, गगनयान – भारता का अपना मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम – का नेतृत्व डॉ वी.आर. ललिताम्बिका कर रहीं हैं.
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कोविड से लड़ाई में योगदान
कोवैक्सिन के विकास पर लिखी गई उनकी पुस्तक में आईसीएमआर के डीजी डॉ बलराम भार्गव उस दिन को याद करते हैं जब इस वायरस – जिसने पूरी दुनिया को दो साल से अधिक समय तक चिंता में डाले रखा था – तो अंततः एन आई वी, पुणे में आइसोलेट कर दिया गया था.
भार्गव लिखते हैं, ‘अगर कभी मायावी रूप धारण करने के लिए कोई प्रतिस्पर्धा होती है, तो सार्स-कोव-2 बड़ी आसानी से जीत जाता. यह एक प्रेटी वायरस है!’ यह कहना था एनआईवी की निदेशक डॉ प्रिया अब्राहम का जिनके संस्थान के शोधकर्ता भारत में पहली ऐसी टीम थीं जिन्होंने इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप के तहत वायरस की पहचान की और इसकी जीनोमिक संरचना को समझा.’
लेकिन इस ‘प्रेटी वायरस’ की पहचान करना इसके खिलाफ लड़ी गई लड़ाई का सिर्फ एक पहलू था.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कैंसर प्रिवेंशन एंड रिसर्च, नोएडा में कार्यरत डॉ शालिनी सिंह ने सबसे कठोर लॉकडाउन शर्तों के तहत काम करते हुए देश की सबसे बड़ी हाई-थ्रूपुट वायरल डायग्नोस्टिक फ़ैसीलिटी की स्थापना की, जो एक दिन में 10,000 आरटी-पीसीआर टेस्ट्स के नतीजें देने में सक्षम है
डॉ शांता दत्ता की निगरानी में कोलकाता स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉलरा एंड एंटरिक डिजीज ने किट सत्यापन, किट वितरण और विभिन्न बहुकेंद्रिक वैक्सीन परीक्षणों सहित कई गतिविधियों को अंजाम दिया.
दिल्ली में एपिडेमियोलोजि (महामारी विज्ञान) के पूर्व प्रमुख डॉ. आर. गंगाखेडकर के सेवानिवृत्त होने के बाद डॉ. निवेदिता गुप्ता आईसीएमआर का चेहरा बनीं.
मार्च 2021 में, आईसीएमआर ने उन महिलाओं को सम्मानित करने के लिए अपनी समाचार पत्रिका (न्यूज़लेटर) का एक विशेष संस्करण निकाला, जिन्होंने कोविड के खिलाफ लड़ाई का सामने से नेतृत्व किया था.
न्यूज़लेटर में कहा गया है, ‘…आईसीएमआर की महिला वैज्ञानिकों का योगदान अमूल्य रहा है. महिला वैज्ञानिकों ने उन सभी प्रक्रियाओं के हर चरण का नेतृत्व किया है जिन्होने भारत की उल्लेखनीय रिकवरी को संभव बनाया है.’
इसमें आगे कहा गया है, ‘स्ट्रेन को अलग-थलग करने, नैदानिक उपकरण विकसित करने, दिशा-निर्देश तैयार करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य सलाह, प्रशिक्षण कर्मचारी, प्रौद्योगिकी को लागू करने, अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों का समन्वय, स्थानीय निष्पादन की देखरेख और सभी कोविड -19-संबंधित घटनाक्रमों का फॉलो अप करने, इन सभी मामलों में महिला वैज्ञानिकों ने अनुसंधान के दायरे का अभूतपूर्व गति से विस्तार किया है.’
लेकिन आईसीएमआर एकमात्र ऐसा संगठन नहीं है जिसने महामारी के दौरान महिलाओं को आगे आते देखा है.
वायरोलॉजिस्ट डॉ गगनदीप कांग को पूरी महामारी के दौरान टीकों के मामले में उठने वाली सबसे विश्वसनीय आवाजों में से एक के रूप में देखा गया है. महामारी की शुरुआत में फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के निदेशक के रूप में उनके इस्तीफे और ‘व्यक्तिगत कारणों’ का हवाला देते हुए क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर में लौट जाने के बाद भी कांग बुद्धिमता और विज्ञान की आवाज बनी रही.
‘1990, 2000 के दशक की शुरुआत आसान नहीं थी’
डॉक्टर कांग द रॉयल सोसाइटी की फेलो – जो दुनिया के कुछ सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों की फेलोशिप है – चुनी जाने वाली पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक हैं, लेकिन, उनका कहना है कि आज से 30 में से 20 वर्षों से जब वह क्षेत्र में में कम कर रही थी, तो किसी ने भी उनकी बात नहीं सुनी.
डॉ कांग ने दिप्रिंट को बताया, ‘1990 और 2000 के दशक की शुरुआत आसान नहीं थी. अपनी बात को सुनाना काफ़ी मुश्किल भरा था. ऐसा लगता था जैसे कोई खिंचाव है जिसके बारे में आपको यह महसूस हो रहा हो कि आपको नीचे खींच रहा है. मेरी तीन तरह कमियां थीं – एक तो मैं मेडिकल बैकग्राउंड की महिला थी जो शोध कर रही थी और वह भी एक निजी संस्थान से. यह एक निरंतर चलने वाली लड़ाई थी, जिसमें मैं यह तय करने की कोशिश की जा रही थी कि क्या आगे रखा जाए, क्या नहीं. यह समझते हुए कि कुछ चीजें लोगों को आपके विरुद्ध कर देती हैं. ‘यह एक बहुत ही वास्तविक चुनौती थी.’
उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि उन्होंने अपने पूरे करियर में उनके साथ काम करने वाली महिला वैज्ञानिकों के लिए इसे थोडा आसान बना दिया होगा.
विमन लिफ्ट हेल्थ प्रोग्राम के तहत पांच युवा महिला वैज्ञानिकों का उल्लेख करते हुए, डॉ कांग ने कहा कि उन्हें अभी भी महिलाओं के इन सवालों का सामना करना पड़ता है कि अपनी बात कैसी सुनवाई जाए?
उन्होने कहा, ‘विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर रूप से कम आंका जाता है – पुरुषों से भरा एक पूरा कमरा आपको बताएगा. कि आप कुछ नहीं जानते, यह सब उस समय तक चलता है जब तक ये महिलाएं खुद को उससे अधिक सक्षम नहीं मानतीं, जितना कि आप उन्हें जानते हैं.’
ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट, जिसकी डॉ कांग महामारी की शुरुआत में निदेशक थे, जैव प्रौद्योगिकी विभाग के दायरे में आने वाला एक सरकारी संस्थान है.
महामारी के अधिकांश समायकाल में डॉ रेणु स्वरूप उस विभाग की सचिव थीं. एक आनुवंशिकीविद् के रूप में प्रशिक्षित स्वरूप का इस बारे में कुछ अलग हीं विचार है.
उन्होंनें दिप्रिंट को बताया, ‘मैं 1989 में इस सेवा में शामिल हुई और, चूंकि मैं जैविक विज्ञान से थी, इसलिएकॉलेज और विश्वविद्यालय में मेरी कक्षा में हमेशा महिलाओं की अच्छी ख़ासी हिस्सेदारी थी. मेरे सामने काफ़ी कठिनाइयां थीं लेकिन एक महिला के रूप में ही नहीं और ये इस क्षेत्र के किसी भी अन्य पेशेवर से अलग नहीं थीं. करियर के रूप में विज्ञान प्रबंधन बस आगे बढ़ ही रहा था.’
उनका कहना था, ‘यह एक बहुत ही रोमांचक यात्रा रही है. ‘मैंने हमेशा खुद को एक पेशेवर के रूप में देखा है और मेरे साथ हमेशा वैसा ही व्यवहार किया गया है. एक महिला के रूप में, निश्चित रूप से, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे जुड़े रहते हैं. उदाहरण के लिए, यदि आप प्रयोगशाला में देर तक काम कर रहे हैं, तो आप उम्मीद करते हैं कि कोई कार आपको घर छोड़ देगी, सुरक्षा को लेकर चिंताएं तो हैं. लेकिन मैं हमेशा अपने स्वयं के मानक, अपने स्वयं के मील के पत्थर निर्धारित करती हूं.’
उन्होंने कहा कि मातृत्व और बच्चे की देखभाल के लिए अवकाश का प्रावधान, शिशुगृह (क्रेशे) स्थापित करने के लिए संस्थानों द्वारा किए जा रहे सचेत प्रयास और जहां तक संभव हो, एक ही शहर में दंपत्तियों को तैनात करने जैसी नीतियों ने यह सुनिश्चित किया है कि विभिन्न विज्ञान विषयों में पेशेवर महिलाएं अपने काम और अपने जीवन में सही संतुलन को बनाए रख सकती हैं.
‘अंतरिक्ष की होड़’
जब मिसाइलों की बात आती है तो इस देश के सबसे प्रसिद्ध नामों में एक शायद डॉ टेसी थॉमस का नाम है.
लेकिन भारत की अंतरिक्ष और रक्षा संबंधी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देने वाली कई अन्य महिला वैज्ञानिक भी हैं, ठीक हॉलीवुड फिल्म ‘हिडन फिगर्स’ की तरह, जो तीन ऐसीअफ्रीकी-अमेरिकी महिला वैज्ञानिकों को चित्रित करती है जिन्होंने 1960 के दशक में तत्कालीन यूएसएसआर के साथ चल रही अमेरिका की अंतरिक्ष दौड़ के दौरान नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) को संचालित किया था.
बेंगलुरु में स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (आईआईए), जो खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी में अत्याधुनिक अनुसंधान के लिए जाना जाता है, का नेतृत्व डॉ. प्रो. अन्नपूर्णी सुब्रमण्यम कर रही हैं. इसकी डीन, डॉ अनुपमा जी.सी. इस संस्थान में एक वरिष्ठ प्रोफेसर हैं, जिसकी पिछले कई वर्षों से मजबूत महिला वैज्ञानिकों के नेतृत्व के लिए प्रतिष्ठा कायम है.
साल 2021 में, जब संस्थान ने 50 साल पूरे किए थे तो 46 ऐसी महिलाओं को एक संस्थान ले एक प्रकाशन में प्रोफाइल किया गया था.
इसकी प्रस्तावना में कहा गया है : ‘कई सारी उपलब्धियों के बीच, लैंगिक विविधता इस संस्थान की विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है. इन वर्षों के दौरान आईआईए ने एक स्वस्थ लिंग संतुलन बनाए रखा है और देश में बड़ी संख्या में महिला वैज्ञानिकों को गढ़ा है. उनमें से कई ने खगोलविदों, वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों और शिक्षकों के रूप में अनुकरणीय करियर बनाया है.’
किसी सजीव मानव को अंतरिक्ष में भेजने की भारत की योजना का नेतृत्व डॉ. वी.आर. ललिताम्बिका. द्वारा की जा रही है जिन्होंनें विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र में बिताए अपने पहले के कार्यकाल में इसरो के प्रक्षेपण वाहनों (लॉन्च वेहिकल्स) पर बड़े पैमाने पर काम किया था.’
चंद्रयान -2 की मिशन निदेशक, डॉ रितु करिधल और उनकी सहयोगी डॉ नंदिनी हरिनाथ, मार्स ऑर्बिटर मिशन (मॉम) का हिस्सा थीं जब इसरो ने मंगल ग्रह की कक्षा में एक उपग्रह स्थापित किया था.
2014 में, मॉम मिशन की सफलता के बाद, इस उपलब्धि का जश्न मनाते हुए महिलाओं की एक वायरल तस्वीर ने इसरो को यह स्पष्ट करने के लिए बाध्य किया कि इस फोटो में केवल उन्हीं महिलाओं को दिखाया गया है जो प्रशासनिक कर्मचारी वर्ग का हिस्सा थीं, इसके अलावा भी कई अन्य महिला वैज्ञानिकों ने इस परियोजना पर काम किया था.
साल2016 में, जब बीबीसी ने इन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की एक प्रोफाइल तैयार की, तो उनमें डॉ अनुराधा टी.के. शामिल थीं, जो इसरो में तत्कालीन जियोसैट कार्यक्रम निदेशक थीं, और अब सेवानिवृत्त हो गई हैं.
बीबीसी ने तब उनके बारे में लिखा था, ‘इसरो की इस वरिष्ठतम महिला अधिकारी के लिए, आकाश ही सीमा है – वह उन संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने में माहिर हैं जो पृथ्वी के केंद्र से कम से कम 36,000 किमी दूर बैठे हैं. जिस वैज्ञानिक ने पिछले 34 वर्षों से इसरो के साथ काम किया है, उसने नौ साल की उम्र में पहली बार अंतरिक्ष के बारे में सोचा था.’
भारतीय महिलाओं ने विज्ञान और उससे आगे की भी बाधाओं को तोड़ दिया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके करियर की सामाजिक बाधाएं भी समाप्त हो गई हैं.
साइंस गैलरी बेंगलुरु की संस्थापक निदेशक जाह्नवी फाल्के ने कहा कि इस तथ्य के बावजूद कि विभिन्न विज्ञान विषयों में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या पिछले कुछ वर्षों से बढ़ रही है, अभी भी बहुत कुछ किया जाना है.
उन्होंनें कहा, ‘आखिरकार, विज्ञान कैसे सामाजिक रूप से संगठित होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज कैसे संगठित होता है. अगर पारंपरिक रूप से पुरुषो के अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करने वाली महिलाओं के लिए पूर्वाग्रह या गलत धारणा है, तो यह विज्ञान जगत में भी अपनी घुसपैठ करेगा. ही.’
वे कहती हैं, ‘विज्ञान की विभिन्न धाराओं में प्रवेश करने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, लेकिन पक्षपात तब होता है जब विज्ञान से परे किसी भी चीज़ का कोई बड़ा सामाजिक मूल्यांकन होता है – उदाहरण के लिए नेतृत्व संबंधी गुण.’
फाल्की ने कहा. ‘महिला वैज्ञानिकों के साथ मेरी तमाम तरह की बातचीत में, मुझे बार-बार बताया गया है कि करियर की समय-सीमा और जीवन की समय-सीमा महिलाओं के लिए मेल नहीं खाती है, खासकर यदि आप बच्चा पैदा करने की योजना बना रही हैं. कुछ साल पहले, एक ब्रेक के बाद महिला वैज्ञानिकों द्वारा करियर में पुन: प्रवेश के लिए एक योजना थी, लेकिन हर किसी को यह देखने की जरूरत है कि यह कितना सफल रही है. लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब महिलाएं निर्णय लेने वाले पदों पर होती हैं तो विज्ञान कैसे बदलता है.’
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