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Thursday, 19 December, 2024
होमदेशप्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का 84 वर्ष की उम्र में निधन

प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का 84 वर्ष की उम्र में निधन

अपनी तेज याददाश्त के लिए चर्चित मुखर्जी बैठकों के दौरान जब पिछली पंचवर्षीय योजनाओं और अन्य सरकारी आंकड़ों को मुंहजुबानी उद्धृत करते तो उनके सहयोगी एकदम निरुत्तर रह जाते थे.

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नई दिल्ली: पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सोमवार को दिल्ली स्थित आर्मी रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल में निधन हो गया है. वह 84 वर्ष के थे.

मुखर्जी की 10 अगस्त की शाम अस्पताल में ब्रेन सर्जरी हुई थी और उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था. सर्जरी से पहले परीक्षण में उन्हें कोविड-19 पॉजिटिव पाया गया था. तभी से उनकी स्थिति नाजुक बनी हुई थी.

प्रणब मुखर्जी के निधन की जानकारी उनके बेटे अभिजीत मुखर्जी ने ट्वीट कर दी. उन्होंने लिखा की मेरे पिता प्रणब मुखर्जी का निधन हो गया है. आर.आर अस्पताल के डॉक्टरों ने अपनी सारी मेहनत लगा दी लेकिन हम उन्हें बचा नहीं पाए. अभिजीत ने उनके पिता के लिए दुआ करने वालों और पूरे भारतवासी को थैंक्यू कहा है.

पूर्व राष्ट्रपति के परिवार में दो बेटे और एक बेटी हैं.

बताया जा रहा है कि मुखर्जी 9 अगस्त रविवार रात बाथरूम में गिरने के कारण सिर और कनपटी में चोट लगी थी. उन्हें सोमवार सुबह आर्मी के आरएंडआर हॉस्पिटल लाया गया था. अस्पताल के मुताबिक यहां हुए सीटी स्कैन में उनके मष्तिष्क में खून का थक्का जमने की बात पता चली जिसे हटाने के लिए उनकी ‘लाइफसेविंग इमरजेंसी सर्जरी’ की गई.

हालांकि, सर्जरी सफल बताई जा रही थी लेकिन उनकी स्थिति ‘गंभीर’ बनी हुई थी वह वेंटिलेटर सपोर्ट पर थे. बाद में उनकी हालत बिगड़ती गई और उन्होंने 31 अगस्त को शाम 5.46 बजे अंतिम सांस ली.

मुखर्जी का चार दशक लंबा राजनीतिक करियर शानदार मुकाम हासिल करके 2012 में भारत का 13वें राष्ट्रपति नियुक्त किए जाने के साथ अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचा.

लेकिन मुखर्जी के नामांकन तक सब कुछ एकदम सहज नहीं था. वह यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की पहली पसंद नहीं थे, जो इस पद के लिए हामिद अंसारी को चाहती थीं. लेकिन समाजवादी पार्टी सहित क्षेत्रीय दल इस मामले में भारी पड़े. इसने दलगत राजनीति से परे मुखर्जी की लोकप्रियता को भी दर्शाया.

मुखर्जी के राष्ट्रपति पद पर आसीन होने तक स्थायी ‘पीएम-इन-वेटिंग’ का तमगा उनके साथ चिपका रहा. वह तीन प्रधानमंत्रियों के सेकेंड इन कमांड रहे थे. अपने संस्मरण, द कोएलिशन इयर्स- 1996-2012 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद को लेकर अपनी अपेक्षाओं के बारे में लिखा भी है.

उन्होंने किताब में लिखा, ‘मैं 2 जून 2012 की शाम सोनिया गांधी से मिला. हमने राष्ट्रपति चुनाव पर पार्टी की स्थिति की समीक्षा की और संभावित उम्मीदवारों और उन उम्मीदवारों के लिए आवश्यक समर्थन जुटाने की संभावनाओं पर चर्चा की. चर्चा के दौरान, उन्होंने मुझसे स्पष्ट रूप से कहा, ‘प्रणबजी, आप इस कार्यालय के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार के कामकाज में आप कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. क्या आप कोई विकल्प सुझा सकते हैं?’

मैंने कहा, ‘मैडम!, मैं एक पार्टी-मैन हूं. जीवन भर मैंने नेतृत्व की सलाह पर ही काम किया है. इसलिए, मुझे जो जिम्मेदारी दी जाएगी, मैं अपनी क्षमता भर और पूरी ईमानदारी के साथ निभाऊंगा.’ उन्होंने मेरे रुख की सराहना की. बैठक खत्म हो गई और मैं कुछ ऐसी धारणा के साथ लौटा कि वह मनमोहन सिंह को यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में देखना चाहेंगी. मैंने सोचा कि अगर उन्होंने मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए चुना, तो वह मुझे प्रधानमंत्री चुन सकती हैं.’

मुखर्जी एक बार उस समय प्रधानमंत्री पद के एकदम करीब पहुंच गए थे जब 2009 में मनमोहन सिंह की दिल की बाईपास सर्जरी हुई थी लेकिन उस समय भी कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से उन्हें मनमोहन सिंह की अनुपस्थिति में प्रभार नहीं सौंपा था. उस समय जारी निर्देश में सिर्फ यही कहा गया था कि मनमोहन सिंह की अनुपस्थिति में मुखर्जी वित्त मंत्रालय संभालेंगे.

हालांकि, मुखर्जी हमेशा सेकेंड-इन-कमांड रहे लेकिन वे कांग्रेस में सबसे शक्तिशाली मंत्रियों और प्रभावशाली राजनेताओं में से एक थे. वह करीब 23 साल तक कांग्रेस की सर्वोच्च निर्णायक संस्था कार्य समिति के सदस्य रहे और सभी राजनीतिक दलों में उनके मित्र थे. कांग्रेस के भीतर वह सर्वसम्मति कायम करने की अपनी क्षमता के लिए ख्यात थे.


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शुरुआती साल

इंदिरा गांधी की खोज मुखर्जी ने 1969 में राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा था. उनकी राजनीतिक कुशलता से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें उस वर्ष कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा पहुंचाने का रास्ता बनाया. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के छोटे-से गांव मिराती का रहने वाला यह व्यक्ति बहुत जल्द कुछ भी सीख लेता था. वह 1973 में प्रधानमंत्री के रूप में उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान इंदिरा कैबिनेट में जगह बनाने में सफल रहे. वह 1973-74 में इंदिरा सरकार में राज्य मंत्री (वित्त) रहे.

मुखर्जी भारत के तब सबसे कम उम्र के वित्त मंत्री बने जब उन्हें 1982 में 47 साल की उम्र में इस पद पर नियुक्त किया गया था.

इंदिरा गांधी के सबसे भरोसेमंद राजनीतिक सिपहसालारों में रहे मुखर्जी ने तीक्ष्ण स्मरण शक्ति और राजनीतिक और नीतिगत मुद्दों पर खासी पकड़ के साथ पार्टी के एक सर्वोत्तम सदस्य के रूप में खुद को साबित किया. पर एक राजनेता के तौर पर उनके पास व्यापक जनाधार की कमी थी.

हालांकि, मुखर्जी निर्वाचित सरकारों के कई कार्यकाल में हिस्सा रहे थे, लेकिन 2004 में कहीं जाकर उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव जीता- पश्चिम बंगाल के जंगीपुर से.

ऐसा नहीं है कि उन्होंने पहले चुनाव में हाथ नहीं आजमाया था. संरक्षक इंदिरा गांधी की इच्छा के विरुद्ध मुखर्जी ने 1980 में लोकसभा चुनाव लड़ा और हार गए थे. हार से निराश होकर अपने कोलकाता स्थित घर में बैठे थे, तभी उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री का फोन आया और उन्होंने बताया कि वह उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा होंगे.


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कांग्रेस से जुदा हुई राह

हालांकि, 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मुखर्जी अलग-थलग पड़ गए थे. उस समय ऐसी अटकलें भी रहीं कि वह उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजरें गड़ाए थे और इसे लेकर उनके और इंदिरा गांधी के बेटे राजीव के बीच दरार पड़ पड़ गई थी, जो 1984 में जबर्दस्त सहानुभूति लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने.

लेकिन इसके बाद जो हुआ उसके लिए तो मुखर्जी कतई तैयार नहीं थे. राजीव गांधी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल से ही हटा दिया. अपने संस्मरण के दूसरे खंड-द टर्बुलेंट इयर्स:1980-96 में-, मुखर्जी ने बताया कि इस तरह हटाए जाने के बाद उन्होंने कैसा महसूस किया.

उन्होंने लिखा है, ‘जब मुझे मंत्रिमंडल से बाहर किए जाने के जानकारी मिली तो मैं स्तब्ध था और खुद को ठगा हुआ महसूस किया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था लेकिन मैंने खुद को तैयार किया और अपनी पत्नी के साथ बैठ गया, जो उस समय टेलीविजन पर शपथ ग्रहण समारोह देख रही थीं. जैसे ही यह पूरा हुआ, मैंने शहरी विकास मंत्रालय को यह बताते हुए कि मैं अब मंत्री नहीं हूं, लिखा कि मेरे 2 जंतर मंतर स्थित निवास (एक मंत्रिस्तरीय बंगले) के स्थान पर एक छोटा घर आवंटित करने को कहा जाए- यह कुछ वैसा ही था जो मैंने 1977 में भी किया था. इसके बाद मैं अपने परिवार के साथ छुट्टी मनाने चला गया था जो लंबे समय से मेरी तरफ से उपेक्षित महसूस कर रहा था.’

पार्टी और सरकार में पूरी तरह से दरकिनार होने के बाद मुखर्जी ने अपनी अलग पार्टी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बना ली. हालांकि यह दूरी कुछ ही समय के लिए थी. पांच साल बाद 1989 में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया.

पार्टी में सही मायने में उनका पुनर्वासन तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में हुआ. राव ने पहले उन्हें योजना आयोग (1991 से 1996) का अध्यक्ष बनाया. इसके बाद मुखर्जी ने वाणिज्य विभाग और फिर एक साल के लिए विदेश मंत्रालय का कार्यभार संभाला.

मुखर्जी न केवल एक सर्वोत्तम कांग्रेसी थे, बल्कि यूपीए की गाड़ी का मजबूत पहिया भी थे. मुखर्जी जिस कारण 23 साल तक कांग्रेस कार्यसमिति सदस्य बने रहे वो था कांग्रेस के भीतर और बाहर दोनों जगह उनका प्रभावशाली होना. अक्टूबर 2008 में भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के दौरान उन्होंने सरकार के लिए समर्थन जुटाने में अहम भूमिका निभाई थी.

अपने संस्मरण में मुखर्जी ने सौदे पर मुहर लगने को ‘विदेश मंत्री के रूप में मेरे कार्यकाल की सबसे संतोषजनक उपलब्धियों में से एक’ लिखा है.

सरकार से जुड़े मामलों के बारे में उनकी जानकारी, जटिल नीतिगत मुद्दों और आंकड़ों को लेकर उनकी महारत ने उन्हें किसी भी आड़े वक्त में सरकार का संकटमोचक बना दिया. अपनी तेज याददाश्त के लिए चर्चित मुखर्जी बैठकों के दौरान जब पिछली पंचवर्षीय योजनाओं और अन्य सरकारी आंकड़ों को मुंहजुबानी उद्धृत करते तो उनके सहयोगी एकदम निरुत्तर रह जाते थे.

मुखर्जी के पास फाइनेंस का अच्छा-खासा अनुभव था. उन्हें 1982 में पहली बार इंदिरा गांधी ने वित्तमंत्री के तौर पर नियुक्त किया था. 2009 और 2012 के बीच उन्होंने फिर से वित्त विभाग संभाला लेकिन उनका रुख वामपक्ष की ओर झुकाव वाला था.

मुखर्जी यूपीए सरकार में सबसे शक्तिशाली मंत्रियों में से एक थे, जब तक कि उनका नाम राष्ट्रपति पद के लिए नामित नहीं किया गया था. 2004 और 2012 के बीच मुखर्जी ने महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर निर्णय लेने के लिए मंत्रियों के करीब 90 समूहों का नेतृत्व किया.

अपने मंत्री सहयोगियों के बीच पी. चिदंबरम के साथ मुखर्जी के मतभेद चर्चा का विषय हुआ करते थे. मुखर्जी ने खुद स्वीकार किया कि मतभेद ‘अर्थव्यवस्था पर अलग-अलग दृष्टिकोण’ के कारण थे.


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बतौर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी

बतौर राष्ट्रपति उनके पांच वर्ष के कार्यकाल को मुख्यत: राष्ट्रपति भवन को आम लोगों के लिए सुलभ बनाने के लिए उठाए कदमों के लिए याद किया जाता है. मुखर्जी ने ‘इन-रेजीडेंसी’ कार्यक्रम शुरू किया था जिसके तहत कलाकार, लेखक, छात्र और इनोवेटर एक हफ्ते इस शाही राष्ट्रपति भवन में रहकर अपने रचनात्मक जुनून को नए आयाम दे सकते थे.

राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान ही आतंकी हमलों के दोषियों अजमल कसाब, अफजल गुरु और याकूब मेमन की दया याचिकाएं खारिज हुई थीं.

मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने के बाद भी बीरभूम में अपने पैतृक घर में हर साल दुर्गा पूजा मनाने की परंपरा जारी रखी. वह हमेशा इस समारोह में हिस्सा लेते और खुद पूजा करते थे.

कभी अच्छे बंगाली भोजन के शौकीन रहे मुखर्जी अपने जीवन के बाद के सालों में अल्पाहार लेने वाले बन गए थे. 2017 में अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद मुखर्जी ने अपना अधिकांश समय किताबें पढ़ने और संगीत सुनने में बिताया. वह अपने आखिरी समय तक एक बेहतरीन पाठक बने रहे.

मुखर्जी ने आज से पांच साल पहले अपनी पत्नी सुव्रा मुखर्जी को खो दिया था. अगस्त 2015 में एक कार्डियक अरेस्ट के बाद इसी आर्मी रिसर्च एंड रेफरल हॉस्पिटल में उनकी मौत हुई थी.

उनके बड़े बेटे अभिजीत मुखर्जी जंगीपुर से कांग्रेस के सांसद रह चुके हैं, जो कभी मुखर्जी की सीट हुआ करती थी, जबकि बेटी शर्मिष्ठा भी कांग्रेस नेता हैं.

एकदम दिल से राजनेता मुखर्जी ने तब भी सुर्खियां बटोरीं जब वे राष्ट्रपति नहीं रह गए थे. जून 2018 में उनके द्वारा राष्ट्रवाद पर नागपुर में स्वयंसेवकों को संबोधित करने का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का न्यौता स्वीकार किए जाने पर अच्छा-खासा विवाद हुआ था. बेटी शर्मिष्ठा सहित कई कांग्रेस नेताओं ने उनसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था लेकिन मुखर्जी पीछे नहीं हटे.

उनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी अच्छा तालमेल रहा. 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने मुखर्जी को एक ‘पितातुल्य’ व्यक्ति बताया था और कहा था कि उन्होंने ‘राष्ट्रीय राजनीति के गुर सिखाए हैं.’

उन्हें 2019 में मोदी सरकार की तरफ से भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

इतिहास के शौकीन और अंत तक एक सख्त अनुशासक रहे मुखर्जी ने भारतीय राजनीति में एक ऐसी विरासत छोड़ी है जिसे भर पाना काफी मुश्किल हो सकता है.


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