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Monday, 23 December, 2024
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16 सालों तक तारीख पे तारीख, फिर मिली जीत- कोर्ट के कर्मचारी की न्याय के लिए लंबी लड़ाई की कहानी

तीस हजारी कोर्ट में रीडर महेंद्र वर्मा अपने बेटे के कैंसर के इलाज में खर्च रकम के रिम्बर्समेंट के लिए लड़ाई लड़ रहे थे. उनकी मौत के बाद 2020 में उनकी बेटी ने इस मामले को आगे बढ़ाया.

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नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय को यह तय करने में 16 साल, नौ न्यायाधीश और 18 तारीखों का समय लग गया कि क्या एक अधीनस्थ न्यायपालिका कर्मचारी अपने बेटे के ब्रेन ट्यूमर के इलाज पर खर्च किए गए 51,854 रुपये की प्रतिपूर्ति (रिम्बर्समेंट) का हकदार था.

लगभग दो दशकों तक मामला, एक जज से दूसरे जज के पास जाता रहा. इस बीच कर्मचारी की नवंबर 2020 में मौत भी हो गई. लेकिन कानूनी लड़ाई चलती रही. उनकी मौत के दो साल बाद कर्मचारी के पक्ष में फैसला सुनाया गया और 16 सालों से चली आ रही लंबी कानूनी लड़ाई आखिरकार एक पखवाड़े पहले समाप्त हो गई.

इस मामले की सुनवाई करते हुए नौ न्यायाधीश बदले गए. जिन जजों ने इस मामले की सुनवाई की लेकिन किसी नतीजे की ओर लेकर नहीं गए उनमें से सात या तो पदोन्नत हो गए या रिटायर हो गए. दो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए पदोन्नत हुए, दो सेवानिवृत्त होने से पहले प्रमुख उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश बने और एक को अपने रिटायरमेंट के बाद नौकरी मिली. दो अभी भी दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं.

नौ न्यायाधीशों में से सिर्फ दो जजों ने प्रभावी सुनवाई की (जहां अदालत द्वारा दोनों पक्षों को सुना जाता है) जो पिछले साल ही हुई थी. अंत में, उनमें से एक ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने की दो तारीखों के भीतर मामले पर फैसला सुना दिया.

उत्तरी दिल्ली की तीस हजारी अदालत में रीडर के रूप में काम करने वाले महेंद्र कुमार वर्मा का मामला एक ऐसे शख्स की मार्मिक कहानी है जो उस दिन को देखने के लिए जीवित ही नहीं बचा है जब उसे न्याय मिला.

‘यह अदालत अपनी गहरी निराशा व्यक्त करती है’

9 जनवरी को सुनाए गए अपने 20 पन्नों के आदेश में न्यायमूर्ति सी डी सिंह की पीठ ने वर्मा के मामले में देरी पर दुख जताते हुए कहा, ‘फैसला सुनाने से पहले यह अदालत अपनी गहरी निराशा व्यक्त करती है कि कैसे सिर्फ 51,824 रुपये के रिम्बर्समेंट की मांग करने वाली एक याचिका 16 सालों से लंबित है और जीएनसीटीडी (दिल्ली सरकार) द्वारा इसका जोरदार विरोध किया जा रहा है.’

वर्मा के परिवार के लिए अदालत का फैसला एक बड़ी राहत के रूप में आया है. उनकी बेटी सुलक्षणा ने दिप्रिंट को बताया कि परिवार अपने भाई की देखभाल के लिए संघर्ष कर रहा है. इसके इलाज के लिए ही वर्मा ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी.

उनके भाई को चार साल पहले पैरालिसिस हो गया था. तब से उसे लगातार अस्पताल में दिखाने और दवा की जरूरत पड़ती रहती है. उन्होंने कहा, ‘अभी हमें जो भी पैसा मिलेगा, वह उसकी देखभाल में काफी काम आएगा.’

पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी सुलक्षणा ही इस मामले को देख रहीं थीं. कोविड महामारी के दौरान वर्मा की मौत के बाद से वह लगातार वकील के साथ संपर्क में थीं और मामले से जुड़ी रहीं हर कार्यवाही पर नजर बनाए हुई थी, ताकि मामला जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंच सके.

उस समय सुलक्षणा की उम्र बमुश्किल 27 साल थी और उनकी नई-नई शादी हुई थी, जब उनके पिता ने मेडिकल रिम्बर्समेंट के मुद्दे पर दिल्ली एचसी की ओर रुख किया था.

सुलक्षणा का कहना है कि इस मामले की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वर्मा को संस्था का कर्मचारी होने के बावजूद इतना लंबा इंतजार करना पड़ा.


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मुकदमा की वजह

वर्मा का 15 साल का बेटा मेडुलोब्लास्टोमा से पीड़ित था. उसे गंगा राम अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां आपातकालीन उपचार के लिए वर्मा को काफी खर्च करना पड़ा था. जून 2003 में उसका दो बार ऑपरेशन हुआ, जिसके लिए 1,03,122 रुपये का बिल बनाया गया. हालांकि अदालत के आदेश के अनुसार, वर्मा को सिर्फ 89,226 रुपये की रकम की प्रतिपूर्ति की गई थी.

बाद में फॉलोअप ट्रीटमेंट के लिए वर्मा के बेटे को राजीव गांधी कैंसर संस्थान और अनुसंधान केंद्र में रेफर किया गया, जहां उन्हें रेडिएशन और कीमोथेरेपी दी गई. वर्मा ने अदालत को बताया कि उपचार के इस दूसरे दौर में खर्च की गई पूरी रकम भी उन्हें रीइंबर्स नहीं की गई थी. इसके बजाय अगस्त 2004 में उन्हें आहरण एवं संवितरण अधिकारी (डीडीओ), जिला एवं सत्र न्यायाधीश के अधिकारियों ने 51,854 रुपये जमा कराने का पत्र जारी किया.

जब दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सिंह की खंडपीठ के समक्ष इस मामले पर बहस हुई, तो वर्मा के वकील रजत अनेजा ने खुलासा किया कि उनके मुवक्किल 4 अप्रैल 2004 से 1 मार्च 2005 तक डिसबर्सिंग अधिकारी को लिखते रहे और  डिपॉजिट डिमांड के कारणों को जानने की मांग करते रहे. उनके रिप्रजेंटेशन को पहले 23 अगस्त 2005 को और फिर 17 जनवरी 2006 को खारिज कर दिया गया था. जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने भी उनके खिलाफ राय दी थी.

दिल्ली उच्च न्यायालय में अनेजा ने तर्क दिया कि स्वास्थ्य सेवा निदेशालय ने स्पष्ट रूप से वर्मा को अनुमति दी थी और उन्हें अपने बेटे के इलाज के लिए मेडिकल एडवांस भी दिया था. वर्मा अपने बेटे को गैर-अनुसूचित अस्पताल में भी नहीं ले गए थे.

वर्मा पर अवैध रूप से रिफंड प्राप्त करने के लिए हेरफेर किए गए दस्तावेजों को जमा करने का आरोप लगाया गया था. विभाग ने दावा किया कि वर्मा को उनकी पात्रता के हिसाब से रीइंबर्समेंट किया गया था. लेकिन कैलकुलेशन में हुई गड़बड़ी की वजह से उन्हें अधिक भुगतान कर दिया गया था और किए गए अधिक भुगतान की राशि को पाने के लिए ही 51,854 रुपये की मांग की गई थी.

वर्मा के वकील ने तर्क दिया कि एक सरकारी कर्मचारी होने के नाते वर्मा को केंद्र सरकार (मेडिकल अटेंडेंस) नियम, 1944 के तहत कवर किया गया था और इसी के चलते उन्हें समय-समय पर आदेश पारित किए गए थे. लेकिन डिस्बर्सल विभाग ने उनके बेटे के चिकित्सा खर्चों के लिए उनकी ओर से किए गए क्लेम का पूरी तरह से भुगतान नहीं किया.

वर्मा के मामले में जो कानूनी सवाल उठा था, वह यह था कि क्या नियम उन्हें अपने बेटे के इलाज पर किए गए खर्च को पूरी तरह से रीइंबर्समेंट पाने की अनुमति देते हैं. वर्मा ने बिना कोई कारण बताए, उनसे 51,854 रुपये वसूलने के लिए डिस्बर्सल विभाग की ‘आर्बिट्ररी डिमांड’ को गलत बताया था और इसे पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी थी. हाईकोर्ट ने पहली सुनवाई में डिस्बर्सल विभाग के आदेश पर रोक लगा दी.

डिस्बर्सल विभाग की दलीलों को खारिज करते हुए जज ने फैसला सुनाते हुए कहा कि वर्मा खर्च की गई पूरी रकम का रीइंबर्समेंट पाने के हकदार हैं. प्रावधानों को पढ़ने पर न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि मेडिकल अटेंडेंस नियम ‘सभी सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए कानून की तरफ से मिलने वाला एक हिस्सा’ हैं.

न्यायमूर्ति सिंह ने अपने 9 जनवरी के आदेश में कहा, ‘ समझ नहीं आता कि नियमों में किसी भी इम्पीडिमेंट (बाधा) पर क्यों ज्यादा ध्यान दिया जाता है. जबकि इनमें संवैधानिक अधिकारों से दूर करने की प्रवृत्ति होती है. इसके लिए यह अदालत हमेशा एक संरक्षक के रूप में खड़ी रही है.’

सभी मामलों में क्लीन चिट

जब वर्मा अपने वित्तीय बकाया के लिए मुकदमेबाजी कर रहे थे, तब वह साथ ही साथ डिसबर्समेंट विभाग की ओर से उनके खिलाफ लगाए गए धोखाधड़ी के आरोपों से खुद को बरी करने के लिए एक समानांतर लड़ाई भी लड़ रहे थे.

वर्मा फरवरी 2013 में सेवानिवृत्त हुए थे. वह अपने बेटे के इलाज के लिए पर खर्च की गई रकम से अधिक लेने के लिए अनुशासनात्मक जांच के अधीन थे. विभाग के अनुसार, यह 66,000 रुपये से अधिक की राशि थी.

इन कार्यवाहियों के चलते उन्हें उनकी सेवानिवृत्ति की बकाया राशि जैसे ग्रेच्युटी और सेवानिवृत्ति पर अर्जित अवकाश के लिए देय राशि भी नहीं मिल पाई थी.

वर्मा ने अनुशासनात्मक कार्यवाही में दी गई चार्जशीट को रद्द करने के लिए एचसी में दूसरी याचिका दायर की. हालांकि उच्च न्यायालय ने जांच में हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन मई 2014 में, उसने वर्मा के सेवानिवृत्त बकाया को जारी करने का आदेश दिया और उनकी याचिका का निपटारा कर दिया.

आखिरकार 6 अगस्त 2014 को तत्कालीन जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने वर्मा को क्लीन चिट दे दी. उच्च न्यायालय के आदेश और सभी आरोपों से मुक्त करने के बावजूद वर्मा को उनका बकाया नहीं दिया गया. 2014 में उनके चिकित्सा प्रतिपूर्ति मामले की सुनवाई कर रही एचसी बेंच के निर्देशों के बाद उनकी सेवानिवृत बकाया राशि जारी नहीं की गई थी.

क्योंकि वर्मा अभी भी रीइंबर्समेंट के मुद्दे से जूझ रहे थे, इसलिए विभाग ने सेवानिवृत्त बकाया राशि से 66,000 रुपये की कटौती करने की मांग की और इसे एचसी के साथ सावधि जमा (एफडी) में रखा. अदालत ने अब उनके पक्ष में फैसला सुनाया है, तो यह राशि वर्मा के परिवार को सौंप दी जाएगी.


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देरी का कारण

वर्मा का मामला सिविल मामलों में लंबे समय से लटके मामलों पर एक नजर डालता है. पिछले साल 31 दिसंबर तक दिल्ली उच्च न्यायालय में 31,140 सिविल रिट याचिकाएं लंबित थीं. आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर में ही इस श्रेणी में 114 मामलों की मामूली वृद्धि हुई थी. मौलिक अधिकारों से वंचित होने पर संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका दायर की जाती है.

वर्मा के केस रिकॉर्ड को देखने से पता चलता है कि मार्च 2006 और अगस्त 2009 के बीच उनके मामले को सात बार सूचीबद्ध किया गया था. एक बार को छोड़कर, हर बार मामले को स्थगित कर दिया गया क्योंकि प्रतिवादी या डिस्बर्सल विभाग ने अपना जवाब दाखिल नहीं किया था.

12 अगस्त 2009 को अदालत ने मामले में ‘नियम’ जारी किया. इसका मतलब था कि मामले को नियमित रूप से सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया गया है. अनेजा ने बताया कि जब किसी मामले में नियम जारी किया जाता है और उसे स्वीकार किया जाता है तो उसे क्रमानुसार सुना जाता है. उन्होंने कहा, ‘इस तरह के मामले साल-दर-साल चलते रहते है और किसी अंतिम निर्णय तक पहुंचने में सालों लग जाते हैं.’

वर्मा का मामला मई 2014 में ही सामने आया था. तब वर्मा पहले ही सेवानिवृत्त बकाया पर अपना अन्य मुकदमा लड़ चुके थे. चूंकि संवितरण विभाग ने उस मामले में अदालत के आदेश का पालन नहीं किया था, इसलिए वर्मा ने प्रतिपूर्ति मामले में एक आवेदन दायर किया. इसने मुख्य मामले की सुनवाई को और लंबा कर दिया क्योंकि यह जानने में तीन तारीखें चली गई थीं कि विभाग ने सेवानिवृत्त बकाया जारी किया था या नहीं.

आखिरकार 7 अगस्त 2014 को हाईकोर्ट ने रिहाई का आदेश जारी कर दिया.

2018 और 2019 के बीच वर्मा की याचिका को दो बार सूचीबद्ध किया गया था. लेकिन किसी भी पक्ष के अदालत में मौजूद नहीं होने के कारण इसे स्थगित कर दिया गया. कोविड के चलते यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया. इस बीच नवंबर 2020 में वर्मा का निधन हो गया.

जनवरी 2022 में, वर्मा के परिवार ने उनके कानूनी उत्तराधिकारियों को मामले में एक पक्ष बनाने के लिए एक आवेदन दायर किया. इसकी अनुमति मिल गई और औपचारिकताएं फरवरी में पूरी कर ली गईं. मामले में दलीलें आखिरकार 13 अगस्त और 3 नवंबर को सुनी गईं, जिसके बाद फैसला सुरक्षित रख लिया गया था.

जहां तक सुलक्षणा और उसके परिवार की बात है, तो फैसले के साथ ही उनकी परीक्षा खत्म नहीं हो जाती. उनके पिता की मृत्यु ने उनके लिए मुकदमेबाजी का एक और दौर शुरू कर दिया है. इस बार मामला वर्मा के पेंशन लाभ से जुड़ा है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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