चंडीगढ़, पांच अगस्त (भाषा) तरनतारन में वर्ष 1993 में हुए एक फर्जी मुठभेड़ में मारे गए सात पुलिस अधिकारियों में निशान सिंह के पिता भी थे। निशान सिंह का जन्म पिता की हत्या के दो महीने बाद हुआ था। निशांत अब 32 वर्ष के हो गए हैं और वह याद करते हैं कि कैसे उनकी मां ने कानूनी लड़ाई में वर्षों तक कष्ट सहे और न्याय पाने में तीन दशक लग गए।
निशान ने बताया कि उनके विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) पिता शिंदर सिंह की तरनतारन जिले में हत्या के बाद उनकी मां नरिंदर कौर ने उन्हें पालने के लिए बर्तन धोए और खेतिहर मजदूर के रूप में काम किया।
परिवार अब मोहाली की सीबीआई अदालत के फैसले से संतुष्ट है, जिसने सोमवार को तरनतारन जिले में 1993 में सात लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या के मामले में पांच पूर्व पुलिस अधिकारियों को कठोर आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बलजिंदर सिंह सरा की अदालत ने एक अगस्त को उन्हें भारतीय दंड संहिता की संबंधित धाराओं के तहत आपराधिक साजिश, हत्या और सबूत नष्ट करने का दोषी पाया था।
तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक भूपिंदरजीत सिंह (61), जो बाद में एसएसपी के रूप में सेवानिवृत्त हुए, तत्कालीन सहायक उप-निरीक्षक देविंदर सिंह (58) जो डीएसपी के रूप में सेवानिवृत्त हुए, तत्कालीन सहायक उप-निरीक्षक गुलबर्ग सिंह (72), तत्कालीन निरीक्षक सूबा सिंह (83) और तत्कालीन एएसआई रघबीर सिंह (63) को सोमवार को अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
पांच अन्य आरोपी पुलिस अधिकारियों की मुकदमे के दौरान मृत्यु हो गई।
इन पूर्व पुलिस अधिकारियों पर 12 जुलाई 1993 और 28 जुलाई 1993 को फर्जी मुठभेड़ में विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) शिंदर सिंह, देसा सिंह, सुखदेव सिंह के अलावा चार अन्य बलकार सिंह, मंगल सिंह, सरबजीत सिंह और हरविंदर सिंह की हत्या करने का आरोप था।
पंजाब में अज्ञात शवों के सामूहिक अंतिम संस्कार के संबंध में 12 दिसंबर 1996 को उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद यह मामला सीबीआई को सौंप दिया गया था।
सीबीआई ने शिंदर सिंह की पत्नी नरिंदर कौर की शिकायत के आधार पर 1999 में मामला दर्ज किया था।
शिंदर के बेटे निशान सिंह ने मंगलवार को कहा कि उनकी मां ने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उन्होंने साहस के साथ न्याय पाने की लड़ाई लड़ी।
तरनतारन जिले के रानी वल्लाह गांव के रहने वाले सिंह कहते हैं, ‘एक गरीब परिवार के लिए यह लंबा संघर्ष था। मेरी मां बर्तन साफ करती थीं और खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती थीं।’
कौर याद करती हैं कि उन्हें अपने पति की हत्या के बारे में मीडिया से पता चला। 60 साल की कौर कहती हैं, ‘‘हमें शव भी नहीं दिया गया।’’
उन्होंने कहा, ‘‘हम अदालत के फैसले से खुश हैं, परिवार पर आतंकवादी कहलाने का कलंक मिट गया है।’’ कौर ने राज्य सरकार से अपने बेटे को सरकारी नौकरी देने की मांग की।
पीड़ित सरबजीत सिंह की पत्नी रंजीत कौर ने दावा किया कि कैसे उनके परिवार ने उनके पति की रिहाई के लिए तत्कालीन निरीक्षक सूबा सिंह को जमीन का एक टुकड़ा बेचकर 30,000 रुपये की रिश्वत दी थी।
रंजीत कौर ने कहा कि इसके बावजूद उनके पति को पुलिस ने पकड़ लिया और उन्हें रिहा नहीं किया गया तथा 1993 में उनकी हत्या कर दी गई।
जब रंजीत कौर के पति की हत्या हुई, तब उनका बेटा डेढ़ साल का और बेटी तीन साल की थी। कौर कहती हैं कि लंबी अदालती लड़ाई लड़ते हुए अपने बच्चों का पालन-पोषण करना उनके लिए कितना मुश्किल रहा होगा, यह सिर्फ वही जानती हैं।
अदालत के फैसले पर रंजीत कौर ने कहा कि दोषी ठहराए गए पूर्व पुलिस अधिकारियों को अब उस दर्द और पीड़ा का एहसास होगा, जो उनके पीड़ित परिवारों ने झेली थी।
कौर भी अपने बेटे के लिए सरकारी नौकरी चाहती हैं। उनका बेटा जगजीत सिंह एक फैक्टरी में काम करता है।
सीबीआई जाँच के अनुसार, सरहाली थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी गुरदेव सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस दल ने 27 जून, 1993 को एक सरकारी ठेकेदार के घर से विशेष पुलिस अधिकारी शिंदर सिंह, देसा सिंह, सुखदेव सिंह और दो अन्य बलकार सिंह और दलजीत सिंह को गिरफ्तार किया था।
सीबीआई जांच में पाया गया कि उन्हें डकैती के एक झूठे मामले में फंसाया गया था। सरहाली पुलिस ने 2 जुलाई, 1993 को शिंदर, देसा और सुखदेव के खिलाफ मामला दर्ज किया, जिसमें दावा किया गया कि वे सरकारी हथियारों के साथ फरार हो गए हैं।
तत्कालीन डीएसपी भूपिंदरजीत सिंह और तत्कालीन उपनिरीक्षक गुरदेव सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस दल ने 12 जुलाई, 1993 को दावा किया कि डकैती के मामले में बरामदगी के लिए मंगल सिंह नामक व्यक्ति को घड़का गांव ले जाते समय उन पर आतंकवादियों ने हमला कर दिया था। यह भी कहा गया था कि दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में मंगल सिंह, देसा सिंह, शिंदर सिंह और बलकार सिंह मारे गए।
हालांकि, जांच के अनुसार जब्त हथियारों के फोरेंसिक विश्लेषण में गंभीर विसंगतियां पाई गईं और पोस्टमार्टम रिपोर्ट से भी पुष्टि हुई कि पीड़ितों को उनकी मृत्यु से पहले प्रताड़ित किया गया था।
सीबीआई जांच के अनुसार, 28 जुलाई 1993 को तत्कालीन डीएसपी भूपिंदरजीत सिंह के नेतृत्व वाली पुलिस टीम के साथ एक फर्जी मुठभेड़ में तीन और व्यक्ति सुखदेव सिंह, सरबजीत सिंह और हरविंदर सिंह मारे गए थे।
भाषा शुभम संतोष
संतोष
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