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Friday, 24 May, 2024
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विशेषज्ञों ने कहा, स्वास्थ्य का मुद्दा गायब है चुनावी चर्चा से

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(पायल बनर्जी)

नयी दिल्ली, दो मार्च (भाषा) विशेषज्ञों को लगता है कि हर साल करोड़ों भारतीय चिकित्सा संबंधित आपात स्थितियों के कारण वित्तीय रूप से बर्बादी के कगार पर पहुंच जाते हैं, लेकिन देश के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार होने के बीच स्वास्थ्य का मुद्₨दा चुनावी चर्चा से स्पष्ट रूप से गायब है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि न केवल अधिकांश पार्टियां अपने चुनावी एजेंडे में स्वास्थ्य से जुड़ी प्रतिबद्धताओं को प्राथमिकता देने में रुचि नहीं ले रही हैं, बल्कि आम मतदाता भी स्वास्थ्य देखभाल अधिकारों से अनजान हैं। इसके परिणाम स्वरूप चुनाव दर चुनाव के बावजूद चिकित्सा अवसंरचना और सेवा के क्षेत्र में एक बड़ी रिक्तता दिखती है।

जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय सह-संयोजक डॉ. अभय शुक्ला ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘सार्वजनिक स्वास्थ्य के मुद्दे पारंपरिक रूप से विभिन्न कारकों के कारण भारत में एक प्रमुख चुनावी एजेंडा नहीं रहे हैं। समाज का सबसे मुखर वर्ग ‘शिक्षित मध्यम वर्ग’ अक्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं उठाता और इसके बजाय निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देता है। इसलिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के मुद्दे मजबूती के साथ नहीं उठाए गए।

विशेषज्ञों का कहना है कि एक के बाद एक कई सरकारों के तहत केंद्रीय बजट में पर्याप्त आवंटन के अभाव में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को नुकसान हुआ है।

भारत पर बीमारियों का भारी बोझ है और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि स्ट्रोक और हृदय रोग (खासकर युवाओं में) से मरने वालों का पांचवां हिस्सा भारत में है।

सामाजिक विकास परिषद के सहायक प्रोफेसर सौरिन्द्र मोहन घोष ने कहा कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-पांच के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 57 प्रतिशत से अधिक महिलाएं (15-49 वर्ष) और 67 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष से कम) एनीमिया से पीड़ित हैं।

एनएफएचएस के आंकड़े हाइपरटेंशन और मधुमेह की व्यापक घटनाओं की तरफ इंगित करते हैं। इसी तरह आईसीएमआर की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2025 में भारत में 2.98 करोड़ कैंसर रोगी होंगे।

स्वास्थ्य के लिए बजटीय आवंटन लगातार कम बना हुआ है और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 और 15वें वित्त आयोग के तहत अनुशंसित सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 प्रतिशत के आवंटन लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है।

‘सेंटर फॉर बजट गवर्नेंस एंड अकाउंटेबिलिटी’ के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य के लिए आवंटित राशि केंद्रीय बजट के लगभग दो प्रतिशत पर स्थिर रही।

पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव डॉ. के.बी. सक्सेना ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘यदि स्वास्थ्य अभी भी राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों से गायब है, तो इसका कारण यह हो सकता है कि ज्यादातर लोगों के लिए रोजगार की कमी, कम आय, सामाजिक सुरक्षा का अभाव और जीवन यापन की बढ़ती लागत प्राथमिकता है।

उन्होंने कहा, ‘‘ये मुद्दे स्वास्थ्य समस्याओं के विपरीत दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। स्वास्थ्य के मुद्दे केवल तभी अहम हो जाते हैं जब कोई बीमार पड़ता है और काम करने में असमर्थ हो जाता है।’’

डॉ. शुक्ला ने कहा कि कोविड-19 महामारी के अनुभवों के बाद स्थिति में बदलाव की उम्मीद है, क्योंकि समाज के सभी वर्गों को जीवनरक्षक देखभाल केंद्र का लाभ उठाने से जुड़ी कठिनाइयों और महारमरी के चरम प्रकोप के दौरान निजी अस्पताल में भर्ती होने की ऊंची लागत के कारण विभिन्न तरीकों से नुकसान उठाना पड़ा है।

लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) के अध्यक्ष डॉ. आर वी अशोकन का तर्क है कि कोविड-19 महामारी से कुछ नहीं बदला। अशोकन ने कहा, ‘‘न तो स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी निवेश हुआ और न ही लोगों में स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करने की आदत है। उदासीनता जारी है। एक व्यक्ति के रूप में हम बीमार पड़ने के लिहाज से कम तैयार हैं।’’

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. अनूप सराया के अनुसार, इस मुद्दे का एक हिस्सा इस बात से संबंधित है कि भारत में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में कैसे बदलाव आया।

सराया ने कहा, ‘‘भारत में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली अपनी प्रारंभिक सरकारी-वित्त पोषित संरचना से एक निजीकृत और निगमित स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और कम वित्तपोषित सार्वजनिक क्षेत्र के रूप में बदल गई है। 80-85 प्रतिशत बाह्य रोगी और 60 प्रतिशत से अधिक आंतरिक रोगियों की देखभाल निजी क्षेत्र द्वारा की जाती है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक ऐसी प्रणाली तैयार हुई है जहां सबसे कमजोर वर्ग को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।’’

पेशे से चिकित्सक और छत्तीसगढ़ में ‘जन स्वास्थ्य सहयोग और संगवारी’ के सह-संस्थापक डॉ. योगेश जैन के अनुसार, लोग बीमार पड़ने पर ही किसी भी कीमत पर उपलब्ध स्वास्थ्य प्रणाली से उचित इलाज कराने के इच्छुक होते हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘जब हम स्वस्थ होते हैं और व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से गंभीर रूप से बीमार नहीं होते हैं, तो हमें स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। इसलिए भविष्य में स्वास्थ्य देखभाल की मांग करने और इसके लिए संघर्ष करने को लेकर अस्पष्टता बरकरार है।’’

मोदी सरकार अपनी प्रमुख ‘आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना’ का प्रदर्शन करते हुए दावा करती है कि इसके तहत अब तक 6.22 करोड़ से अधिक लोगों के अस्पताल में भर्ती कराने के लिए 79,174 करोड़ रुपये जारी किये गये हैं, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना ​​है कि ऐसी योजनाएं सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की कीमत पर केवल निजी स्वास्थ्य क्षेत्र को मजबूत करती हैं।

डॉ. सराया ने कहा, ‘‘ओपीडी का खर्च ज्यादातर जेब से होता है, जो आयुष्मान भारत के तहत कवर नहीं होता है। यह केवल कुछ बीमारियों के इलाज को कवर करता है और वह भी अस्पताल में भर्ती होने के बाद। कई पुरानी बीमारियों को मेडिकल पैकेज में सूचीबद्ध नहीं किया गया है। यह योजना अस्पताल से छुट्टी होने के बाद केवल 15 दिन के लिए मेडिकल कवरेज प्रदान करती है। कई रोगियों, विशेषकर कैंसर से पीड़ित लोगों को लंबी अवधि के लिए चिकित्सा कवर की आवश्यकता होती है। इसलिए इस तरह की शेखी बघारना एक तरह से ‘भ्रामक’ है।’’

उन्होंने जोर देकर कहा कि बीमा-आधारित मॉडल स्वास्थ्य प्रणाली की संरचनात्मक विसंगतियों को ठीक नहीं करेंगे जो कि कोविड-19 महामारी के दौरान स्पष्ट रूप से उजागर हुआ था। डॉ. अशोकन ने कहा कि आयुष्मान भारत योजना को फिर से परिकल्पित करने की जरूरत है।

अशोकन ने कहा, ‘‘आईएमए का मानना ​​है कि सरकारी अस्पतालों को सीधे सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाना चाहिए और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) का उपयोग विशेष रूप से निजी क्षेत्र से रणनीतिक खरीद के लिए किया जाना चाहिए। सेवाओं का मूल्य निर्धारण जिला स्तर पर स्वतंत्र और वैज्ञानिक रूप से निर्धारित लागत पर आधारित होना चाहिए।’’

भाषा संतोष माधव

माधव

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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