नई दिल्ली: प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस रहे गुजरात में भाजपा के लिए गायों ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं. दरअसल, यहां मवेशियों से जुड़े दो मामलों में राज्य सरकार को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है.
पिछले दिनों गुजरात के कुछ हिस्सों में चौपायों का ‘घेराव आंदोलन’ चला, जिसमें हजारों मवेशी न केवल सड़कों पर उतार दिए गए बल्कि सरकारी भवनों, अदालतों और यहां तक कि एक जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय में भी घुस गए.
दरअसल उत्तरी गुजरात के बनासकांठा और पाटन जिलों में गौशालाओं का प्रबंधन संभालने वाले विभिन्न धर्मार्थ ट्रस्टों ने इस गोवंश को सड़कों पर खुला छोड़ दिया था.
विरोध जताने का कारण था, मुख्यमंत्री गौमाता पोषण योजना के तहत गौशालाओं के लिए आवंटित धन जारी करने में सरकार की तरफ से होने वाली देरी. रविवार तक 1,750 गौशालाओं ने अपने 4.5 लाख मवेशियों को सड़कों पर खुला घूमने के लिए छोड़ दिया था.
ट्रस्टों ने राज्य को फंड जारी करने और मामला सुलझाने के लिए 30 सितंबर तक का समय दिया है. साथ ही आगाह किया है कि यदि ऐसा नहीं होता है तो वे 1 अक्टूबर से राज्यभर में गौ अधिकार यात्रा शुरू करेंगे, जिसमें लोगों से भाजपा को वोट न देने की अपील भी की जाएगी.
लेकिन यह गायों से जुड़ा एकमात्र मामला नहीं है जिसमें गुजरात सरकार को ऐसे समय में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है जबकि चुनाव काफी नजदीक हैं.
पिछले हफ्ते ही राज्य सरकार को पशुपालक मालधारी समुदाय के दबाव के कारण शहरी क्षेत्रों में मवेशियों पर नियंत्रण से जुड़े विधेयक गुजरात कैटल कंट्रोल (कीपिंग एंड मूविंग) इन अर्बन एरिया बिल, 2022 को वापस लेना पड़ा था. शहरी क्षेत्रों में मवेशियों की आवाजाही प्रतिबंधित करने संबंधी इस विधेयक को इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध के कारण वापस लेना पड़ा था.
हालांकि, परंपरागत रूप से भाजपा के मतदाता रहे मालधारी इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए हैं और चाहते हैं कि समुदाय और उनके मवेशियों को अधिक से अधिक लाभ दिया जाए.
आइये एक नजर डालें इन दोनों प्रदर्शनों पर और ये क्यों मायने रखते हैं. साथ ही भाजपा सरकार उनसे किस तरह निपटने की कोशिश कर रही है.
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हजारों मवेशियों को सड़कों पर क्यों छोड़ा गया?
गुजरात सरकार ने मार्च में 2022-23 के बजट में मुख्यमंत्री गौमाता पोषण योजना नामक एक पशु कल्याण योजना की घोषणा की थी. इसके तहत, गौशालाओं और पंजरापोल (जहां बूढ़ी और बीमार गायों को रखा जाता है) के रखरखाव के लिए 500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. इस योजना में राज्य में पंजीकृत ट्रस्टों को प्रति गाय 30 रुपये की वित्तीय सहायता भी शामिल है.
हालांकि, इन योजनाओं का लाभ मिलना कथित तौर पर अभी शुरू नहीं हुआ है.
बनासकांठा पंजरापोल के ट्रस्टी किशोर दवे ने दिप्रिंट को बताया, ‘बजट पेश किए सात माह बीत चुके हैं. लेकिन मुख्यमंत्री की तरफ से वादा किए जाने के बावजूद धन जारी नहीं किया गया है.’
उन्होंने आरोप लगाया कि गुजरात सरकार समय पर धन जारी न करके पशु कल्याण के लिए केवल ‘जुबानी जमाखर्च’ कर रही थी. और साथ ही स्थिति को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों के उलट बताया जहां उन्होंने दावा किया कि गायों और उनके गौरक्षकों को पर्याप्त सरकारी सहायता मिल रही है. 30 सितंबर तक धन जारी नहीं किए जाने की स्थिति में नाराज ट्रस्ट अपना विरोध प्रदर्शन और तेज करने की योजना बना रहे हैं.
आंदोलन के प्रवक्ता जगदीश माली ने कहा, ‘अगर जल्द समाधान नहीं निकाला गया तो पांच हजार गौपालक 30 सितंबर को प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान विरोध जताएंगे.’
उन्होंने कहा कि एक गौ अधिकार यात्रा भी आयोजित की जाएगी जहां प्रदर्शनकारी लोगों से भाजपा को वोट न देने की अपील करेंगे.
उन्होंने कहा, ‘इसका राजनीतिक दलों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि भाजपा खुद को एक ऐसी पार्टी के तौर पर पेश करती है जिसे गौमाता की परवाह है. गौमाता बिना भोजन के कैसे जीवित रहेंगी? उन्होंने लंपी स्किन रोग के लिए एक दवा तक जारी नहीं की है.’
गुजरात के कृषि, पशुपालन और गाय प्रजनन मंत्री राघवजी पटेल ने कथित तौर पर कहा है कि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटिल के साथ इस मुद्दे पर चर्चा की है.
उन्होंने प्रदर्शनकारियों को आश्वासन भी दिया है कि ‘एक या दो दिन में’ एक प्रस्ताव लाया जाएगा और इसमें देरी के पीछे उन्होंने ‘प्रशासनिक कारणों’ को जिम्मेदार ठहराया.’
कौन हैं मालधारी और क्यों कर रहे हैं विरोध?
मालधारी एक ग्रामीण समुदाय है जिसकी आजीविक मुख्यत: मवेशियों के पालन-पोषण और प्रजनन पर निर्भर है. उन्हें राज्य में ओबीसी श्रेणी में रखा गया है. कोली और ठाकोर समुदायों के बाद वे राज्य के तीसरे सबसे बड़े ओबीसी समूह में आते हैं.
गुजरात में मालधारी आबादी करीब 60 लाख है. यह समुदाय आमतौर पर बनासकांठा, कच्छ, सौराष्ट्र और गिर में बसा है और 46 विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव रखता है. उन्होंने पिछले चुनावों में व्यापक स्तर पर भाजपा के समर्थन का फैसला किया था. इस साल विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए चुनाव में उनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रहने के आसार हैं.
पिछले कई सालों से यह समुदाय अपने अस्तित्व का संकट झेल रहा है क्योंकि अधिकांश पशु-चराई वाले स्थानों पर शहरी बुनियादी ढांचे बन चुके हैं. मालधारी गांवों के शहरों में विलय के बाद उन्होंने अपनी आजीविका के लिए दूध की आपूर्ति करनी शुरू कर दी थी.
इस समुदाय के बीच नाराजगी तब बढ़ी जब इस अप्रैल में सरकार ने गुजरात मवेशी नियंत्रण विधेयक, 2022 पारित किया.
पशु नियंत्रण विधेयक में शहरी क्षेत्रों में पशु की आवाजाही प्रतिबंधित करने के अलावा लाइसेंस देना, विनियमित करना आदि प्रावधान शामिल हैं. बिल में मवेशी जब्त करने और गौपालक पर भारी-भरकम जुर्माने या गिरफ्तारी जैसे प्रावधान भी रखे गए थे.
समुदाय के नेता बिल के उन प्रावधानों से नाराज थे, जिसमें जानवरों को रखने और मवेशियों की टैगिंग के लिए नागरिक अधिकारियों से लाइसेंस लेने की जरूरत बताई गई थी. 15 दिनों के भीतर मवेशियों को टैग नहीं कराने की सजा के तौर पर एक साल की जेल या 10,000 रुपये का जुर्माना या दोनों का ही प्रावधान रखा गया था.
समुदाय द्वारा मार्च और अप्रैल में शुरुआती विरोध के बाद सी.आर. पाटिल ने घोषणा की कि विधेयक को विधानसभा से वापस ले लिया जाएगा.
लेकिन समुदाय ने मांग थी कि विधेयक पूरी तरह रद्द कर दिया जाए और इसके अलावा खास तौर पर मवेशियों के पालन के लिए जमीन तय की जाए.
मालधारी एकता समिति नामक एक सामुदायिक संघ के अध्यक्ष और विरोध की अगुआई करने वालों में शामिल नागजी देसाई ने कहा, ‘उन्होंने घास के मैदान वाले क्षेत्र तो कारोबारियों को दफ्तर बनाने के लिए दे दिए हैं. घास के मैदानों के अभाव में मवेशी कैसे पलेंगे?’
उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि ‘जानवरों-इंसानों के बीच संघर्ष’ का एकमात्र समाधान यही है कि अथॉरिटीज के लिए एक क्षेत्र आरक्षित हो और गायों के लिए घास के मैदान वाला इलाका उपलब्ध कराया जाए.
मालधारी नेताओं ने 18 सितंबर को विरोध स्वरूप गांधीनगर जिले में एक महापंचायत का आयोजन किया था, जिसमें कथित तौर पर समुदाय के लगभग 50,000 सदस्य शामिल हुए. इसके बाद दूध की आपूर्ति बाधित हो गई और 21 सितंबर को गुजरात के कई हिस्सों में दूध सड़कों पर फेंक दिया गया. सूरत से लेकर बनासकांठा तक राज्य के कई हिस्सों में हिंसा भी भड़की.
दबाव में आकर सरकार ने 21 सितंबर को गुजरात विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान विधेयक को वापस ले लिया.
बड़ौदा स्थित एक राजनीतिक विशेषज्ञ ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘यह एक प्रभावशाली समुदाय है जिसके पास गांवों में जमीन है. लेकिन शहरीकरण के कारण उनकी जमीन सिकुड़ गई है और अधिकारी उन्हें शहरों के कोनों में धकेल रहे हैं. यही उनकी नाराजगी का मुख्य कारण है.’
भाजपा विधायक और गौ सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष वल्लभभाई कथिरिया ने दिप्रिंट को बताया, ‘अहमदाबाद नगर निगम के अंतर्गत केवल 30 मालधारी गांव आते थे, और अब वे अपने और अपने मवेशियों के लिए जगह चाहते हैं. सरकार ने उन्हें आश्वस्त किया है कि उनकी समस्या का समाधान निकाला जाएगा लेकिन उनका आंदोलन जारी है.’
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