मिस्र में 6 से 18 नवंबर तक आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र का 27वां सम्मेलन यानी कॉप-27 ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या पर गंभीर संवाद के लिए दुनियाभर के देशों को साथ लाने का एक और प्रयास रहा है.
एक्सट्रीम वेदर के नतीजे लगातार सामने आ रहे हैं. दुनिया ग्लोबल वार्मिंग को औद्योगिककाल स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर सीमित करने के लक्ष्य से चूकने के करीब पहुंचती जा रही है. जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में वैसे तो तमाम प्रतिबद्धताएं जताई जाती हैं लेकिन उन पर पूरी तरह अमल न होना हमेशा ही एक गंभीर चिंता का विषय रहा है. इस सबके बीच, रूस-यूक्रेन जंग के कारण उत्सर्जन कटौती की दिशा में वैश्विक प्रयासों के पटरी से उतरने का खतरा भी बढ़ता रहा है.
अपने यहां उत्सर्जन के बदले दुनिया के बाकी हिस्सों को ऊर्जा के स्वच्छ स्रोत मुहैया कराने के लिए जिन उन्नत अर्थव्यवस्थाओं पर वित्तपोषण में निर्णायक भूमिका निभाने की जिम्मेदारी है, वे खुद अपनी ही आर्थिक चुनौतियों में उलझी हैं.
विकासशील देशों की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर यह बेहद जरूरी है कि परिभाषा स्पष्ट तौर पर तय हो, लक्ष्य ऐसे हों जिन्हें पूरा करना संभव हो और क्लाइमेट फाइनेंस मुहैया कराने के तरीके लचीले हों.
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वैश्विक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन में योगदान
उन्नत अर्थव्यवस्थाएं कार्बन-डाइऑक्साइड (सीओ-2) के उत्सर्जन में सबसे आगे रही हैं. उदाहरण के तौर पर अब तक किसी अन्य देश की तुलना में अमेरिका का कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन सबसे ज्यादा है. 400 बिलियन टन के साथ यह 1751 से 2017 के बीच कार्बन डाइऑक्साइड के ऐतिहासिक उत्सर्जन के करीब 25 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार है. चीन दूसरा सबसे बड़ा नेशनल कंट्रीब्यूटर है. ऐतिहासिक संदर्भ में बात करें तो यूरोपीय संघ भी एक बड़ा उत्सर्जक है. लेकिन अभी वार्षिक आधार पर बड़े उत्सर्जक माने जाने वाले भारत और ब्राजील, ऐतिहासिक संदर्भ में प्रमुख उत्सर्जकों में शुमार नहीं रहे हैं.
हमारे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ाने में जिन देशों का सबसे ज्यादा हाथ रहा, उन्हें ही इससे निपटने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और उन देशों को वित्तीय मुहैया कराने में आगे आना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं.
100 बिलियन अमेरिकी डॉलर मुहैया कराने के लक्ष्य से चूके
2009 में कोपेनहैगन में कॉप-15 के दौरान विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के उपायों के तहत विकासशील देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर मुहैया कराने के सामूहिक लक्ष्य की प्रतिबद्धता जताई. कैनकन में आयोजित कॉप-16 के दौरान इस लक्ष्य को अमलीजामा पहनाया गया, और पेरिस में कॉप-21 के दौरान यह मदद 2025 तक जारी रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया.
आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, विकसित देशों ने 2020 में विकासशील देशों में क्लाइमेट एक्शन के लिए 83.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रदान किए जो कि 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य से 16.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर से कम थे.
अनुमानों के मुताबिक, 100 अरब डॉलर जुटाने का लक्ष्य 2023 में ही पूरा हो पाएगा.
माना जाता है कि ओईसीडी ने इन अनुमानों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है. 2015 में वित्त मंत्रालय के डिस्कशन पेपर में दी गई जानकारी के मुताबिक, विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस फ्लो 2.2 अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है, जबकि ओईसीडी की तरफ से 2014 में यह अनुमानित आंकड़ा 62 बिलियन अमेरिकी डॉलर बताया गया था.
पेपर ने विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों को मुहैया कराए जाने वाले क्लाइमेट फाइनेंस की रिपोर्टिंग को लेकर कई पद्धतिगत मुद्दों को रेखांकित किया. वहीं, ऑक्सफैम के अनुमान बताते हैं कि क्लाइमेंट फाइनेंस का सही मूल्य विकसित देशों की तरफ से दी जाने वाली रिपोर्ट का एक-तिहाई ही है. उम्मीद तो यही रही है कि कॉप-27 में विकासशील देश क्लाइमेंट फाइनेंस फ्लो पर अमल संबंधी खामियों को सुधारेंगे.
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मिटिगेशन बनाम एडॉप्टेशन
क्लाइमेट फाइनेंस का अधिकांश हिस्सा मिटिगेशन यानी ग्लोबल वार्मिंग घटाने के उपायों पर खर्च होता है (इसका मतलब है कि खुद को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढालने यानी एडाप्टेशन में लोगों की मदद करने की बजाये ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने वाले प्रोजेक्टों पर). जाहिर तौर पर वजह यही है कि ये पता लगाना तो आसान है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने में कितनी सफलता मिली, जबकि एडाप्टेशन को परिभाषित किया जाना अपेक्षाकृत कठिन है.
एडॉप्टेशन यानी अनुकूलन का मतलब है खुद को जलवायु परिवर्तन के मौजूदा और प्रत्याशित खतरों के अनुरूप ढालना, मसलन बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे में किए जाने वाले बदलाव. जैसे समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से बचाव को ध्यान रखकर किए गए निर्माण को एडॉप्टेशन का एक उदाहरण माना जा सकता है.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एडॉप्टेशन गैप रिपोर्ट के मुताबिक, विकासशील देशों को 2030 तक प्रति वर्ष 140-300 बिलियन अमेरिकी डॉलर और 2050 तक प्रति वर्ष 280-500 बिलियन अमेरिकी डॉलर क्लाइमेट एडॉप्टेशन फाइनेंस के तौर पर चाहिए होंगे.
इस प्रकार, अभी हो रही बातचीत की तुलना में बहुत अधिक फंड की जरूरत होगी. क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर मुहैया कराए जाने वाले धन में मिटिगेशन और एडॉप्टेशन के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है.
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नुकसान और उसकी भरपाई
विकासशील देश लंबे समय से ही जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले उस नुकसान और क्षति की भरपाई के लिए उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की तरफ से वित्तपोषण की मांग करते रहे हैं, जिसके लिए वे सबसे कम जिम्मेदार हैं. इसमें ऐसे अपूरणीय आर्थिक और गैर-आर्थिक नुकसान शामिल हैं जो विकासशील देशों की एडॉप्टेशन की क्षमता से परे होते हैं, जिससे उन्हें एक्सट्रीम वेदर जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है और उनके लिए जोखिम बढ़ जाते हैं.
जलवायु परिवर्तन के वजह से होने वाली प्राकृतिक आपदा से जुड़ी घटनाएं बढ़ने के साथ इस मामले ने भी जोर पकड़ा है.
1994 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) लागू होने के बाद पहली बार सीओपी के एजेंडे में नुकसान और उसकी क्षतिपूर्ति को जोड़ा गया. नुकसान और उसकी भरपाई के लिए वित्त पोषण के तौर-तरीकों को लेकर देशों के बीच मतभेद रहे हैं. जहां कम विकसित और ग्लोबल वार्मिंग का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतने वाले देश नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए अलग कोष पर जोर दे रहे हैं, उन्नत अर्थव्यवस्थाएं इस शिखर सम्मेलन में वित्तपोषण प्रक्रिया को लेकर बहुत उत्सुक नहीं दिखीं.
भारत ने कॉप-27 में नुकसान और इसकी क्षतिपूर्ति की व्यवस्था पर अपने बयान में विकासशील बनाम विकसित देशों पर असंगत प्रभावों और नई और अतिरिक्त फंडिंग की तत्काल जरूरत पर जोर दिया जिसमें विकसित देशों की तरफ से संवाद और विचार-विमर्श के नाम पर किसी तरह की टालमटोल न की जाए.
नए लक्ष्य की तरफ बढ़ने की उम्मीद
सीओपी-27 में विचार-विमर्श के जरिए 2025 से 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर से आगे एक नया लक्ष्य तैयार होने की उम्मीद है—न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी). इस पर सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग रोकने वाले ही नहीं बल्कि विकासशील देशों के खुद को इसके अनुकूल ढालने वाले लक्ष्यों को भी ध्यान में रखकर व्यापक चर्चा और बातचीत की जानी चाहिए. शमन, अनुकूलन और नुकसान और हर्जाना इसके सब-टारगेट हो सकते हैं.
अब देखना यह होगा कि उन्नत अर्थव्यवस्थाएं अपनी आर्थिक चुनौतियों के बीच क्लाइमेट फाइनेंस को आगे बढ़ाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाती हैं या नहीं.
जाहिर तौर पर यह काफी उत्साहजनक है कि अमेरिका ने घरेलू स्तर पर जलवायु अनुकूल निवेश को ध्यान में रखकर 369 बिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश का एक सार्थक कदम उठाया है.
भारत ने डि-कार्बोनाइजेशन के प्रति वचनबद्धता दिखाते हुए अपनी दीर्घकालिक निम्न उत्सर्जन विकास रणनीति सामने रखी है. हालांकि, भारत इस पर भी जोर दे रहा है कि रियायती दरों पर और लचीली शर्तों के साथ धन मुहैया कराया जाना काफी महत्वपूर्ण है. उधार के बजाए अनुदान-आधारित फंड की आवश्यकता होगी क्योंकि पहले ही कर्ज के बोझ से दबे देशों के लिए और ऋण लेना उनकी मुश्किलें बढ़ा सकता है.
इसके साथ ही, विकासशील देशों में क्लाइमेंट फाइनेंस के सधे हुए प्रवाह के लिए उपयुक्त नियामक ढांचा होना चाहिए. इसके लिए वैश्विक मानकों के अनुरूप वर्गीकरण और डिसक्लोजर फ्रेमवर्क की आवश्यकता होगी.
राधिका पांडे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में सीनियर फेलो हैं और आनंदिता गुप्ता रिसर्च फेलो हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
(संपादनः हिना फ़ातिमा)
(अनुवादः रावी द्विवेदी)
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