विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ाने और रुपये की गिरावट को रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने हाल में कुछ उपायों की घोषणा की है. अब तक वह रुपये की गिरावट को रोकने के लिए दखल देने वाले उपायों का सहारा ले रहा था. अब उसने विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ाने के लिए पूंजी पर नियंत्रण को ढीला करने का उपाय अपनाया है.
नये उपायों के तहत सरकारी और कॉर्पोरेट बॉन्ड में विदेशी निवेश की शर्तों को ढीला करना, विदेशी मुद्रा में उधार लेने की सीमा बढ़ाना और बैंकों को प्रवासियों से ज्यादा बैंक डिपॉजिट आकर्षित करने की शर्तों को उदार बनाना शामिल है.
इनमें से कुछ उपाय सही दिशा में हैं और माहौल को मजबूत तो बना सकते हैं लेकिन जोखिम से बचने और डॉलर को सुरक्षित रखने के वैश्विक माहौल के कारण रुपये पर इन उपायों का सीमित असर ही पड़ेगा. इसके अलावा, उन उपायों के अस्थायी स्वरूप के कारण विदेशी निवेशकों को ये बहुत पसंद नहीं आ सकते हैं.
कर्ज में विदेशी निवेश को बढ़ावा
सरकारी बॉन्डों में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) पारंपरिक रूप से कई नियंत्रणों से प्रभावित रहा है. हाल के वर्षों में उन नियंत्रणों को ढीला किया गया है. यह स्वागतयोग्य कदम है क्योंकि रुपये की प्रधानता वाले बॉन्डों में विदेशी निवेश के कारण कर्ज लेने वाले को विनिमय दर का जोखिम नहीं झेलना पड़ता.
एफपीआई की आवक की शर्तों को उदार बनाने के लिए रिजर्व बैंक ने मार्च 2020 में ‘फुल्ली एक्सेसिबल रूट’ (एफएआर) की घोषणा की थी जिसके तहत एफपीआइ को उन सरकारी प्रतिभूतियों के चुनिन्दा ग्रुप में असीमित पहुंच दी गई जिनका निर्धारण रिजर्व बैंक समय-समय पर करता रहता है. फिलहाल, 5, 10, 30 साल की अवधि वाली सभी सरकारी प्रतिभूतियों को एफएआर के तहत स्वीकृत प्रतिभूतियों में शामिल माना गया है. हाल की घोषणा के बाद 7, 14 साल के सरकारी बॉन्डों को भी एफएआर में शामिल कर लिया जाएगा. इरादा यह है कि प्रतिभूतियों का दायरा इतना बढ़ा दिया जाए कि विदेशी निवेश की कोई सीमा न रहे.
सरकारी और कॉर्पोरेट बॉन्डों में विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए, अल्प-अवधि वाले बॉन्डों में निवेश की 30 फीसदी की सीमा को 31 अक्टूबर 2022 तक के लिए खत्म कर दिया गया है.
ये कदम तो सही दिशा में उठाए गए हैं लेकिन पिछले कुछ महीनों से डॉलर बॉन्डों पर लाभ जिस तरह बढ़ा है उसके चलते भारतीय बॉन्डों में निवेश करने के लिए विदेशी निवेशकों को कम ही प्रोत्साहन मिलेगा. यह सीमाओं के उपयोग के डेटा से भी जाहिर है. सरकारी बॉन्डों में निवेश की मौजूदा 28 फीसदी की सीमा से ज्यादा का इस्तेमाल विदेशी निवेशक नहीं कर रहे हैं.
नियमों में बार-बार बदलाव और अस्थायी रियायतों के कारण अनिश्चितता पैदा होती है और निवेशकों की दिलचस्पी भी घटती है. हाल के बदलावों के साथ कर्ज में विदेशी निवेश की कुल व्यवस्था को भी सरल बनाना पड़ेगा.
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विदेशी मुद्रा में उधार लेने की शर्तों में छूट
रिजर्व बैंक की ‘फाइनांशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट’ के मुताबिक, विदेशी मुद्रा में लिए गए 44 फीसदी कर्ज के साथ कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती. इनमें से कुछ कर्ज के साथ स्वतः सुरक्षा जुड़ी होती है जिसमें करदार की आय भी विदेशी मुद्रा में होती है. चिंता की बात यह है कि सुरक्षा के साथ वाला विदेशी मुद्रा कर्ज पिछले कुछ महीनों में कम हुआ है.
‘एक्सटर्नल डेट’ पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के विदेशी कर्ज में ईसीबी का हिस्सा सबसे बड़ा है. वैश्विक स्तर पर बेहद नीची ब्याज दर का फायदा उठाते हुए कंपनियों ने पिछले दो साल में विदेशी मुद्रा में अच्छा-खासा कर्ज लिया है. लेकिन अब स्थिति बदल गई है. ब्याज दरें बढ़ रही हैं और इस साल रुपये की कीमत में 6 फीसदी की कमी आई है.
हालांकि, व्यवस्था यह कहती है कि कर्ज के कुछ भाग को सुरक्षा दी जानी चाहिए. कमजोर रुपया और ऊंची ब्याज दरों के चलते जो माहौल बना है उसमें विदेशी मुद्रा के कर्ज को उदार बनाना विवेकपूर्ण नहीं होगा. इसके अलावा यह व्यवस्था विवेकाधीन है और कुछ कर्जदारों को सुरक्षा की जरूरत से मुक्त रखती है.
आप्रवासियों द्वारा डिपॉजिट को आसान बनाना
फॉरेन करेंसी नॉन रेसिडेंट बैंक और नॉन रेसिडेंट (एक्सटर्नल) रुपी डिपॉजिट को सीआरआर और एसएलआर की शर्तों से मुक्त कर दिया गया है. इन डिपोजिटों पर सीमाबंदी कुछ समय के लिए हटा दी गई है. ब्याज की सीमा हटाने से बैंक नॉन रेसिडेंट डिपोजिटरों को ऊंची ब्याज दर दे सकते हैं. इससे इन डिपोजिटों को भारतीय बैंकों की ओर देखने का प्रोत्साहन मिलेगा. लेकिन यह छूट 31 अक्तूबर 2022 तक ही है इसलिए इसका असर सीमित ही होगा.
वैश्विक वित्तीय स्थितियों और यूएस फेड द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने के कारण रुपये पर दबाव बना रहा सकता है. विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ाने के लिए हाल में जो कदम उठाए गए हैं वे स्वागतयोग्य हैं और वे मध्य अवधि के लिए विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ा सकते हैं. लेकिन उनके साथ मूलभूत सुधारों को भी लागू करने और विदेशी निवेश का नियमन करने वाली कुल व्यवस्था में विवेकाधीनता को कम करने और उसे सरल बनाने की जरूरत है.
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