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Sunday, 22 December, 2024
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पुराना डेटा, बदलते तरीके—क्यों गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले भारतीयों की संख्या एक रहस्य बनी हुई है?

भारत में गरीबी के आधिकारिक अनुमान एक दशक से भी अधिक पुराने हैं. एक उपभोग व्यय सर्वेक्षण पिछली बार 2017-18 में किया तो गया था लेकिन इसके निष्कर्षों को सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया.

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नई दिल्ली: किसी विश्वसनीय सरकारी आंकड़े के न होने की वजह से भारत में गरीबी स्तर को लेकर वर्ल्ड बैंक के ताजा अनुमान ने इसे आसान बनाने के बजाय इसमें और ज्यादा उलझाव पैदा कर दिया है.

अपेक्षाकृत नए तरीके का प्रयोग करते हुए विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि कोविड-19 महामारी ने करीब 5.6 करोड़ भारतीयों को गरीबी में धकेल दिया था.

यह आकलन अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की तरफ से इस साल के शुरू में प्रकाशित एक पेपर के बाद सामने आया है जिसमें कहा गया था कि भारत ने अत्यधिक गरीबी को ‘मिटा’ दिया है.

आधिकारिक तौर पर भारत सरकार उपभोग व्यय के आधार पर गरीबी का निर्धारण करती है. इस काम के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) संगठन—जिसका अब राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) में विलय कर दिया गया है—हर पांच साल में उपभोग-व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) करता है.

यह सर्वेक्षण आखिरी बार 2017-18 में किया गया था लेकिन सरकार ने ‘गुणवत्ता’ संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए इसके नतीजों को खारिज कर दिया था.

नतीजतन, गरीबी पर आधिकारिक अनुमानों के आकलन के लिए 2011-12 का सीईएस डेटा इस्तेमाल करना ही एकमात्र उपलब्ध विकल्प है.

आम तौर पर इस सर्वेक्षण के जरिये यह अनुमान लगाया जाता है कि प्रत्येक राज्य में कितने लोग ‘गरीब’ हैं और इसके निष्कर्षों के आधार पर ही गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए सरकारी सहायता का आवंटन किया जाता है.

भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणब सेन ने दिप्रिंट से कहा, ‘जो लोग गरीबी की चपेट में आ चुके हैं, वे उन्हें मिलने वाले लाभों से वंचित हैं जबकि जो लोग गरीबी से बाहर हो चुके उन्हें उन योजनाओं का लाभ मिलता रहेगा जो अब उनके लिए नहीं हैं.

इससे संसाधनों के गलत आवंटन की समस्या सामने आ रही है, लेकिन ठोस आंकड़ों के अभाव में हम इसकी गंभीरता का अंदाजा नहीं लगा सकते.’

गरीबी को लेकर ताजा आंकड़ों के अभाव ने शोधकर्ताओं को गरीबी के स्तर के अनुमान के लिए अलग-अलग तरीकों और डेटासेट का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया है, जिससे अलग-अलग निष्कर्ष निकले और इनमें से कोई भी आकलन इसकी सही तस्वीर पेश नहीं कर पाता है कि आखिर कितने भारतीय ‘गरीब’ हैं.


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‘21.9% भारतीय गरीबी रेखा के नीचे’

2009 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व प्रमुख सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली एक समिति ने शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 32 रुपये से कम और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 26 रुपये से कम खर्च करने वालों को गरीबी से रेखा से नीचे वाले भारतीयों के तौर पर वर्गीकृत करने के लिए विभिन्न वस्तुओं के उपभोग संबंधी 2004-05 के आंकड़ों पर भरोसा जताया.

लेकिन निष्कर्षों को लेकर संदेह बना रहा और आरबीआई के पूर्व प्रमुख सी. रंगराजन के नेतृत्व में एक अन्य पैनल का गठन किया गया, जिसने 2014 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 47 रुपये से कम और ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रुपये से कम आय वालों को ‘गरीब’ की श्रेणी में रखा जा सकता है.

हालांकि, 2013 में जब रंगराजन समिति अपने अनुमानों पर काम कर रही थी, योजना आयोग ने तेंदुलकर पद्धति का उपयोग करते हुए 2011-12 में गरीबी रेखा के नीचे भारतीयों की संख्या 26.98 करोड़ होने या 21.9 प्रतिशत आबादी गरीब होने का अनुमान लगाया.

हालांकि, रंगराजन पैनल की मैथेडॉलजी के मुताबिक उस समय 29.5 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा से नीचे थे. लेकिन जून 2014 यानी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के केंद्र में सत्ता में आने के तुरंत बाद पेश हुई इस रिपोर्ट को भारत सरकार ने कभी भी आधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया.

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint
ग्राफिक्सः मनीषा यादव । दिप्रिंट

ग्रामीण विकास मंत्रालय की तरफ से 2020 में प्रकाशित एक वर्किंग पेपर के मुताबिक, तत्कालीन योजना आयोग 1973-74 से हर पांच-छह साल में गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों का डेटा जारी करता रहा है.

इसका मतलब यही है कि 50 वर्षों में यह पहली बार है जब भारत ने लगभग एक दशक में गरीबी पर अपने आधिकारिक अनुमानों को संशोधित नहीं किया है.

इसलिए, भारत सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले भारतीयों की संख्या के आधिकारिक अनुमान के तौर पर अभी तेंदुलकर समिति के निष्कर्षों (21.9 प्रतिशत आबादी) का ही उपयोग करती है.

भारत ने अपने गरीबी अनुमानों को संशोधित क्यों नहीं किया? इस पर सेन का मानना है कि एक कारण 2014 के बाद हुआ बदलाव भी है, जब योजना आयोग को खत्म कर दिया गया था.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘जब सरकार ने योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाया तो उसे गरीबी को परिभाषित करने और अनुमान लगाने के लिए अधिकृत नहीं किया. पहले, गरीबी के अनुमान जारी करना योजना आयोग का काम था, लेकिन अब नीति आयोग के साथ ऐसा नहीं है.’

ऊपरी सीमा, अत्यधिक गरीबी

जून 2019 में, वर्ल्ड बैंक के अर्थशास्त्री डेविड न्यूहाउस और अहमदाबाद यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर पल्लवी व्यास ने एनएसएसओ के 2015 सीईएस पर आधारित एक वर्किंग पेपर में दावा किया कि 2014-15 में करीब 14.6 प्रतिशत भारतीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा (1.9 डॉलर प्रति दिन) से नीचे रहते थे.

वर्ल्ड बैंक के ही एक अन्य दृष्टिपत्र में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के तिमाही कंज्यूमर पिरामिड हाउसहोल्ड सर्वे के निष्कर्षों पर भरोसा जताया गया.

इस डेटा का इस्तेमाल करके स्कॉलर सुतीर्थ सिन्हा रॉय और रॉय वेइड ने अनुमान लगाया कि कोविड महामारी से पहले 2019 में लगभग 10.2 प्रतिशत भारतीय अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे थे.

इस साल अप्रैल में जारी उनके वर्किंग पेपर में अपनाई गई मैथडॉलजी को ही वर्ल्ड बैंक ने भारत में गरीबी के स्तर पर महामारी के असर का अनुमान लगाने के लिए अपना आधार बनाया.

इसके अलावा, 2017-18 से सरकार पीरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) करा रही है, जो देश में बेरोजगारी के आंकड़े का पता लगाने की एक कोशिश है.

बाथ यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा और हैदराबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर जजाति के. परिदा ने 2021 इस खपत संबंधी सर्वेक्षण के एक सीमित हिस्से का इस्तेमाल करते हुए भारत में गरीबी की ऊपरी सीमा 25.9 प्रतिशत आंकी.

ये अनुमान अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला, करण भसीन और अरविंद विरमानी द्वारा इस साल के शुरू में जारी आईएमएफ पेपर में लगाए अनुमानों से काफी अलग हैं.

लेखकों ने एक गैर-परंपरागत दृष्टिकोण अपनाया और 2011-12 सीईएस डेटा का उपयोग करने के साथ इसे हर साल राष्ट्रीय लेखा डेटा के साथ जारी होने वाले प्रति व्यक्ति निजी अंतिम उपभोग व्यय में बदलावों के साथ जोड़ा, जिसके जरिये यह पता लगाया जाता है कि एक वर्ष में कोई भारतीय माल और सेवाओं पर औसतन कितना खर्च करता है.

उनके अनुमानों ने सुझाया कि भारत में गरीबी को बहुत अधिक आंका गया था. उनकी गणना कहती है कि 2020 में देश में अत्यधिक गरीबी (प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 1.9 डॉलर से नीचे) घटकर एक प्रतिशत से भी कम रह गई थी.

भारत में गरीबी पर अन्य सभी गैर-सरकारी अनुमानों की तरह इसकी भी व्यापक आलोचना की गई.

पिछले साल, नीति आयोग ने अपना बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) जारी किया, जिसमें कहा गया कि हर चार में से एक भारतीय (25 प्रतिशत) गरीबी में जी रहा है.

पहले उल्लिखित अनुमानों, जो व्यापक स्तर पर उपभोग व्यय पर केंद्रित है, के विपरीत एमपीआई में स्वच्छता, स्कूली शिक्षा, पीने के पानी तक पहुंच, स्वच्छ ईंधन आदि फैक्टर को आधार बनाया गया.


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कितने भारतीय गरीबी से बाहर निकले?

उपभोग व्यय सर्वेक्षण करने वाला एनएसओ सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के दायरे में आता है. इस साल के शुरू में प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की एक विज्ञप्ति के मुताबिक, केंद्र सरकार ने 2022-23 उपभोग व्यय सर्वेक्षण के लिए साल भर चलने वाली कवायद जुलाई में शुरू की है.

केंद्र सरकार सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) भी कराती है, जिसके माध्यम से वह गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लाभार्थियों को परिभाषित करती है.

हालांकि, भारत के पास इनमें से किसी भी सर्वेक्षण के लिए अप-टू-डेट डेटा नहीं है.

उपभोग व्यय सर्वेक्षण का नवीनतम डेटा कब तक प्रकाशित होगा, इस पर प्रतिक्रिया के लिए दिप्रिंट ने फोन और ईमेल के जरिये सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय से संपर्क साथा लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. जवाब आने पर रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

सेन ने कहा, ‘एसईसीसी और सीईएस (नवीनतम डेटा) दोनों 10 साल से अधिक पुराने हैं, इसलिए, आज तक हम नहीं जानते कि कितने भारतीय गरीबी के दायरे में आ चुके हैं और कितने इससे बाहर आए हैं.’

ह्यूमन डेवलपमेंट अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा ने कहा कि उपभोग व्यय सर्वेक्षण का ‘इस्तेमाल दशकों से लगातार गरीबी अनुमानों में संशोधन के लिए किया जा रहा है और इस डेटा के अभाव का मतलब है कि सरकार खुद को इस बात को स्पष्ट नहीं कर रही कि देश में कितने लोग गरीब हैं.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि सर्वे के नतीजे 2024 के चुनावों से पहले सामने आएंगे. क्योंकि गरीबों का आंकड़ा बढ़ना गरीबों के कल्याण के लिए काम करने वाली सरकार की छवि को धूमिल कर सकता है.

2019 में, सीईएस के निष्कर्ष लीक हो गए थे और फिर उन्हें रद्द कर दिया गया क्योंकि इससे सरकार की छवि खराब हो रही थी.

मेहरोत्रा ने यह भी कहा कि गरीबी के आंकड़ों का अभाव गरीबी मिटाने के उद्देश्य से चलाए जाने वाले कार्यक्रमों को लेकर सरकार के नीतिगत फैसलों को प्रभावित नहीं कर सकता है.

उन्होंने कहा, ‘इस सरकार के नीतिगत निर्णय राजनीतिक उद्देश्यों पर निर्भर हैं. यह खुद ही गरीबी से जुड़े वास्तविक आंकड़ों से इनकार करती रहती है और चुनावों के निकट अपनी मुफ्त खाद्यान्न योजना फिर से बढ़ा देती है.

मुझे संदेह है कि डेटा का अभाव इसकी सार्वजनिक नीति में किसी भी तरह से बाधक है क्योंकि यह वास्तविक डेटा पर विश्वास ही नहीं करना चाहती है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करे.)


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