अपने नौ वर्षों के कार्यकाल को ध्यान में रखते हुए, मोदी सरकार अपने आर्थिक और वित्तीय मामलों में जो तर्क देती है उसमें वह ज्यादा परिपक्व होती जा रही है. फिर भी, यह कई मामलों में डॉ. जेकेल-मिस्टर हाइड के स्प्लिट पर्सनैलिटी को प्रदर्शित कर रहा है, जो इस उभरती परिपक्वता में लोगों के किसी भी आत्मविश्वास को कम कर रहा है.
एक ओर, विनिवेश पर सरकार की नीतियां, क्रिप्टो परिसंपत्तियां, कॉम्प्रोमाइज़ सेटलमेंट, बजट नंबर में पारदर्शिता, और यहां तक कि जिस तरह से उसने 2,000 रुपये के करेंसी नोट की वापसी को संभाला है, उससे पता चलता है कि वह कई कदम उठाने से पहले चीजों के बारे में सोच रही है. दूसरी ओर, मिस्टर हाइड अभी भी इस बात पर सक्रिय हैं जिस तरह से इस विदेशी मुद्रा लेन-देन पर कर लगाया जाता है, जिस तरह से महत्वपूर्ण डेटा पर रोक लगाई जा रही है, और जिस तरह से सरकार सार्वजनिक रूप से चीन पर भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता को नजरअंदाज करती है, लेकिन फिर चुपचाप उसी निर्भरता को एनेबल कर देती है.
परिपक्व मोदी सरकार…
सच कहें तो, सरकार की बढ़ती परिपक्वता के कई संकेत हैं, खासकर उसकी आर्थिक और वित्तीय नीतियों में. आइए विनिवेश से शुरुआत करें. 2020 में, सरकार ने अपनी सार्वजनिक क्षेत्र उद्यम नीति की घोषणा की जिसके तहत उसने कहा कि वह कुछ रणनीतिक क्षेत्रों में न्यूनतम उपस्थिति बनाए रखेगी और अन्य सभी से बाहर निकल जाएगी.
जैसा कि निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (डीआईपीएएम) सचिव ने बताया, यह एक बहुत बड़ी घोषणा की तरह लग रहा था, लेकिन सरकार ने वास्तव में इसके लिए काफी संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है. पिछले वर्षों में, विशेष रूप से 2017-20 की अवधि में, सरकार ने बड़े पैमाने पर विनिवेश लक्ष्य निर्धारित किए और सरकारी कंपनियों के शेयर की कीमतों की हानि के बावजूद, उन्हें हासिल करने की पूरी कोशिश की.
विनिवेश की इस बड़ी कोशिश ने सूचीबद्ध सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर की कीमतों को कम कर दिया, भले ही उस अवधि के दौरान कुल मिलाकर सेंसेक्स बढ़ रहा था. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, सरकार ने अपने विनिवेश को वापस ले लिया है, बाजारों को इसके बारे में सूचित किया है, और इसके बजाय एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है कि वह अपनी स्वामित्व वाली कंपनियों से पैसा कैसे कमाती है.
यानी, उसे यह अहसास हो गया है कि इन कंपनियों से मिलने वाला लाभांश, यदि अधिक नहीं तो, उतना ही मूल्यवान है जितना उन्हें बेचकर कमाया जा सकता है. नुमेरिकल टारगेट्स को पूरा करने के लिए सिंगल-माइंडेड एप्रोच वाली सरकार के लिए यह एक काफी परिपक्व नीति परिवर्तन है.
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इसमें कोई संदेह नहीं है कि वित्त मंत्रालय के साथ विस्तार से चर्चा की गई, कॉम्प्रोमाइज़-सेटलमेंट पर भारतीय रिज़र्व बैंक की नीति इस बढ़ती परिपक्वता को दर्शाती है. मूल रूप से, आरबीआई ने बैंकों को लोन डिफॉल्टर्स के साथ समझौता करने की अनुमति दी ताकि वे जितना संभव हो सके वसूली कर सकें, भले ही इसमें उन्हें थोड़ी-बहुत छूट देनी पड़े.
यह देखते हुए कि यह ऐसे डिफॉल्टरों के खिलाफ की गई दंडात्मक कार्रवाई को नहीं रोकता है, इस तरह के कदम से बैंकों को अपना बकाया वसूलने और आगे ऋण देने में मदद मिलेगी. लोन डिफॉल्ट के वित्तीय और आपराधिक पहलुओं को अलग करने से पता चलता है कि नियामक और सरकार ने इस मुद्दे पर गहराई से विचार किया है. अब, यदि वे अपना बकाया वसूलने के बाद बैंकों को आपराधिक मामले वापस लेने से रोक सकें, तो यह सोने पर सुहागा होगा.
सोच में यह परिपक्वता सरकार द्वारा क्रिप्टो परिसंपत्तियों को संभालने के तरीके में भी दिखाई दे रही है. इससे पहले, सरकार को यकीन था कि वह उन पर प्रतिबंध लगाना चाहती है, जो अधिकांश चीजों के प्रति उसके रवैये की एक बानगी है जिसे वह समझ नहीं पाती है. यह तब से विकसित हुआ है. अब, सरकार क्रिप्टो लेन-देन पर मुनाफे पर कर लगाती है, जबकि अगर उनको पैसे का नुकसान हो जाता है या उनके साथ फ्रॉड हो जाता है तो सरकार इसका जिम्मा नहीं लेती.
सरकार और आरबीआई दोनों बार-बार यूज़र्स को चेतावनी देते रहे हैं कि इस तरह की धोखाधड़ी और नुकसान की एक अलग संभावना है. साथ ही सरकार ने यह भी साफ कर दिया है कि वह क्रिप्टो पर तभी कानून बनाएगी जब इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति होगी. चेतावनियों और करों का यह कॉम्बिनेशन क्रिप्टो को डील करने के लिए पूर्ण प्रतिबंध की तुलना में अधिक सुविचारित और विचारशील तरीका है.
पिछले कुछ वर्षों में, केंद्र सरकार भी आधिकारिक बजट में कई बड़े ऑफ-बजट आइटम लाकर अपने बजट के बारे में तेजी से पारदर्शी रही है. भारतीय खाद्य निगम का बकाया और राष्ट्रीय लघु बचत कोष से उधारी जैसी चीजें, जिन्हें पहले घाटे के आंकड़ों को बेहतर दिखाने के लिए बजट से दूर रखा जाता था, अब शामिल कर दी गई हैं. इस पारदर्शिता का राजकोषीय घाटे पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को स्वीकार करना सरकार की वित्तीय योजना में बढ़ती परिपक्वता का एक निश्चित संकेत है.
वास्तव में, जिस तरह से 2,000 रुपये के नोट की वापसी को संभाला गया है, वह जल्दबाजी और प्रतीत होता है-अनियोजित विमुद्रीकरण के विपरीत है, यह दर्शाता है कि सरकार, कभी-कभी, अपनी गलतियों से सीख सकती है.
इन सबसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार छोटी सोच के दायरे से ऊपर उठकर एक बुद्धिमान संगठन में बदल गई है. दुर्भाग्य से, यह बिल्कुल सच नहीं है. जिस तरह से उसने कुछ मुद्दों को संभाला है उसकी परिपक्वता दूसरों में वास्तविकता से सरकार के इनकार को नहीं छिपाती है.
…और इसके अपरिपक्व कदम
चलिए आंकड़ों पर विचार करते हैं. जिस तरह से सरकार ने उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के नवीनतम संस्करण को नकार दिया – जो गरीबी के स्तर को निर्धारित करने के सबसे उपयोगी तरीकों में से एक है – और एक नया सर्वे जारी करने के लिए जरूरी तेजी के साथ आगे नहीं बढ़ी है, यह दर्शाता है कि वह इस संभावना का सामना नहीं करना चाहती है. लगभग सभी की वास्तविक आय में गिरावट आई है. राष्ट्रीय जनगणना आयोजित करने और जारी करने में इसकी सुस्ती आंकड़ों के प्रति अपरिपक्व रवैये भी दर्शाती है.
नंबर्स को नकारना केवल वास्तविकता को नकारता है, लेकिन इसे कम सच नहीं बनाता है.
सरकार के लिए यह भी परिपक्व होगा कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था की चीन पर निर्भरता को इस रूप में स्वीकार कर ले कि यह मौजूद है और निकट भविष्य में इसे खत्म नहीं किया जा सकता है, बावजूद इसके कि सरकार तमाम योजनाओं और शुल्कों को लागू कर सकती है.
पिछले महीने, व्यय विभाग के खरीद प्रभाग (Procurement Division) ने एक कार्यालय ज्ञापन जारी किया, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को चीन से सोलर कंपोनेट को आयात करने की अनुमति दी गई, जो सभी निजी भारतीय कंपनियों के लिए प्रतिबंधित थी. इसके बारे में कोई घोषणा नहीं की गई, कोई प्रेस विज्ञप्ति नहीं जारी की गई और इसका कोई औचित्य नहीं था.
यह सब दर्शाता है कि सरकार को अहसास है कि घरेलू उद्योग चीनी आयात के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है. यह इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करना चाहता.
स्रोत पर कर संग्रह (टीसीएस) के बारे में सरकार का यह औचित्य कि यह जल्द ही 7 लाख रुपये से अधिक के इंटरनेशनल ट्रांजेक्शन पर लगाया जाएगा, यह इस बात का एक और उदाहरण है कि कैसे सरकार ने पहले किया फिर सोचा. कोई व्यक्ति देश से बाहर कितना कैश ले जा सकता है, इसकी पहले से ही एक सीमा है. जहां तक डिजिटल लेनदेन का सवाल है, उन्हें टीसीएस के बिना ट्रैक किया जा सकता है, यही मुख्य कारण है कि सरकार इसे लेकर आई है.
सरकार ने यह भी नहीं सोचा कि बैंक कैसे बता सकते हैं कि ग्राहक ने 7 लाख रुपये की सीमा पार कर ली है. संक्षिप्त उत्तर यह है कि वे नहीं कर सकते. इसलिए, सभी अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन पर 20 प्रतिशत टीसीएस लगाया जा रहा है क्योंकि बैंक किसी तरह से इसका अनुपालन करना चाहेंगे.
इस सब में, जब हम विदेश में होते हैं तो हम सभी 20 प्रतिशत अधिक भुगतान करते हैं. यह कोई वास्तविक सांत्वना वाली बात नहीं है कि हमें वर्ष के अंत में यह 20 प्रतिशत वापस मिल जाएगा. लोग इस पर तभी विश्वास करेंगे जब वे इसे बिना परेशानी के होता हुआ देखेंगे.
एक साथ विचारशीलता और अपरिपक्वता की यह स्प्लिट-पर्सनैलिटी अधिकांश रिश्तों को ख़त्म कर देगा. सरकार के साथ, जहां बच निकलने का कोई रास्ता नहीं है, यह सिर्फ निराशाजनक है.
(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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