नई दिल्ली: आर्थिक विश्लेषण, सांख्यिकीविदों के विचारों और वास्तविक साक्ष्यों के जरिए इस बात का पता चलता है कि भारत का मुद्रास्फीति डेटा लोगों पर बढ़ती कीमतों के वास्तविक प्रभाव को पकड़ नहीं पा रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि 2011-12 के बाद से जब मुद्रास्फीति के मापदंडों को आखिरी बार अपडेट किया गया था तब से ‘औसत भारतीय’ की धारणा में काफी बदलाव आया है.
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापी गई खुदरा मुद्रास्फीति जुलाई में 7.4 प्रतिशत पर आ गई. हालांकि, डेटा से पता चलता है कि यह खाने-पीने की चीज़ों की बढ़ती कीमतों के कारण था – जिन्हें ओवरऑल इंडेक्स में 45.86 प्रतिशत का अधिक वेटेज दिया गया है.
अधिक वेटेज का मतलब है कि इस कैटेगरी में बदलाव का ओवरऑल इंडेक्स पर ईंधन जैसी कम वेटेज वाली श्रेणियों में बदलाव की तुलना में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है. इसलिए, खाने-पीने की चीज़ों की कीमतों में बढ़ोतरी निश्चित रूप से ओवरऑल रेट में वृद्धि का कारण बनेगी, लेकिन ईंधन की कीमतों में इसी तरह की बढ़ोतरी के कारण इसी तरह का उछाल नहीं आएगा.
समय के साथ सीपीआई में डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि ओवरऑल इन्फ्लेशन खाने-पीने की चीज़ों की कैटेगरी में मुद्रास्फीति के साथ निकटता की ओर बढ़ता है, लेकिन फ्यूल एंड लाइट कैटेगरी में मुद्रास्फीति के साथ इसका संबंध उतना मजबूत नहीं है.
यह वेटेज सिस्टम ही है जो मुद्रास्फीति के आंकड़ों को गलत प्रस्तुत कर रही है. ये वेटेज घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के आधार पर उपभोग पैटर्न के आधार पर दिए गए थे, जिसे सरकार ने आखिरी बार वर्ष 2011-12 में किया था.
स्टेटिस्टिक्स पर स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष और भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रोनब सेन के अनुसार, समस्या यह है कि पिछले 12 वर्षों में उपभोग पैटर्न में काफी बदलाव आया है. हालांकि, हमारे पास इन बदलावों के बारे में मोटा-माटी जानकारी ही है.
सेन ने दिप्रिंट को बताया, “कोई नहीं कह सकता कि पिछले दस साल से अधिक समय में आय के स्तर में बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन हम नहीं जानते कि वे कैसे बदल गए हैं. पिछले 12 साल में कुल मिलाकर वास्तविक अर्थों में आय अधिक नहीं तो 70 प्रतिशत बढ़ी होगी. इसलिए, उपभोग पैटर्न को में भी बदलाव आया ही और कुछ मामलों में काफी नाटकीय रूप से.”
उदाहरण के लिए भोजन में उपभोग के पैटर्न में काफी बदलाव आया है. जैसे-जैसे लोग अपनी आय में वृद्धि देखते हैं, वे केवल अनाज, आलू और प्याज जैसी बुनियादी चीजों पर खर्च करने से लेकर मांस, मछली, दूध और विभिन्न प्रकार के उत्पादों जैसी उच्च श्रेणियों पर खर्च करने लगते हैं, जो सभी औसत से अधिक महंगे होते हैं.
सेन ने बताया, “जैसे-जैसे लोगों की आय बढ़ेगी, वे वही खरीदेंगे जो अधिक आय वर्ग वाले लोग खरीद रहे हैं, लेकिन यह भी होता है कि नई चीज़ें बाज़ार में आती हैं, जिनका जिक्र डेटा में नहीं हो पाता.”
यह भी पढ़ें: भारत की तेल आयात निर्भरता 2027-28 तक ‘80% से ऊपर’ हो जाएगी, मोदी ने इसे 10% कम करने का लक्ष्य रखा था
‘मेडिकल और शिक्षा खर्च की वेटेज को बढ़ाना होगा’
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में पुराने वेटेज का मुद्दा वास्तव में कोई नई समस्या नहीं है, लेकिन मुद्रास्फीति के समग्र माप में खाने-पीने की चीज़ों के मुद्रास्फीति को दिए गए अत्यधिक वेटेज के बारे में बढ़ती जागरूकता के कारण इसे फिर से महत्व मिल गया है.
कुछ एक्स्पर्ट्स का ध्यान इस ओर भी गया है.
2021 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) के शोधकर्ताओं, राधिका पांडे, अनन्या गोयल और रेणुका साने ने एक वर्किंग पेपर प्रकाशित किया, जिसमें 2011-12 सीईएस और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा 2019 उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण के आधार पर वेटेज का विश्लेषण किया गया.
पांडेय ने दिप्रिंट को बताया, “भले ही नमूना छोटा है, लेकिन यह इस बात का संकेत देता है कि खपत का तरीका कैसे बदल गया है.”
उन्होंने कहा, “हमने देखा कि कुछ वस्तुओं के लिए सीएमआईई के सर्वेक्षण के अनुसार, सीईएस में वेटेज और वास्तविक व्यय में उनके हिस्से के बीच का अंतर बहुत अधिक नहीं था, लेकिन शिक्षा, हेल्थ और मेडिकल खर्च जैसी चीज़ों के लिए, वास्तविक व्यय का हिस्सा पिछले सीईएस में मापे गए से कहीं अधिक बड़ा है.”
उन्होंने कहा, “इसका मतलब है कि सीपीआई में खाने-पीने की चीज़ों की वेटेज जितनी होनी चाहिए, उससे कहीं अधिक है, जबकि मेडिकल और एजुकेशन के खर्च के लिए वेटेज बढ़ाने की ज़रूरत है.”
सेन ने बताया कि जो हो रहा है, लेकिन उपभोग डेटा में शामिल नहीं किया जा रहा है, वो है अधिक फीस वाले निजी स्कूलों में बढ़ता कुल छात्रों का एनरोलमेंट. उन्होंने कहा कि पिछले दशक में ट्यूशन उद्योग में भी वृद्धि देखी गई है, जो शिक्षा पर कुल व्यय को भी जोड़ता है.
उन्होंने बताया, “स्वास्थ्य सेवा में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, जहां लोग अधिक निजी अस्पतालों का उपयोग कर रहे हैं.”
यह भी पढ़ें: राजस्थान गिग वर्कर कानून का हो रहा स्वागत लेकिन उद्योग जगत इसमें कुछ बदलाव चाहता है
कैसे CPI मुद्रास्फीति को कम करके आंकती है
दिप्रिंट ने सांख्यिकी मंत्रालय के निजी अंतिम उपभोग व्यय (पीएफसीई) माप द्वारा मापे गए घरेलू कुल व्यय में उनके हिस्से के साथ सीपीआई में विभिन्न वस्तुओं के वेटेज की तुलना करते हुए एक शुरुआती विश्लेषण किया.
हालांकि, इस तुलना में विस्तृत निर्णय लेने के लिए आवश्यक सांख्यिकीय कठोरता का अभाव हो सकता है, लेकिन यह वर्तमान उपभोग पैटर्न की एक व्यापक झलक प्रदान करती है.
उदाहरण के लिए जबकि सीपीआई में फूड का वेटेज 45.86 प्रतिशत है, पीएफसीई डेटा से पता चलता है कि यह घर के कुल व्यय का केवल 30.2 प्रतिशत है.
विशेष रूप से खाद्य श्रेणी के भीतर, अनाज का सीपीआई में कुल वेटेज 9.67 प्रतिशत है और ग्रामीण भारत के लिए यह 12.35 प्रतिशत है. यह ऐसे समय में है जब 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त में अनाज मिल रहा है.
सीपीआई-पीएफसीई तुलना से यह भी पता चलता है कि परिवहन और संचार, सीपीआई में केवल 8.6 प्रतिशत के वेटेज के साथ, एक घर के मासिक व्यय का लगभग 19 प्रतिशत बनाते हैं.
सेन ने कहा, “औसत भारतीय की धारणा, यहां तक कि सीईएस द्वारा कैप्चर किए गए भारित औसत भारतीय की धारणा भी पुरानी हो चुकी है क्योंकि हमारे पास लोगों की आय और व्यय पैटर्न का जो डेटा है वह 12 साल से अधिक पुराना है.”
उन्होंने निष्कर्ष निकाला, “अगर नवीनतम घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण किया जाता है और रिपोर्ट जारी की जाती है तो इसे ठीक किया जा सकता है – यही सर्वेक्षण का कुल मतलब है. उसके अनुसार सीपीआई वेटेज को दोबारा आधार बनाया जा सकता है.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: भारत के गैर-बासमती चावल निर्यात प्रतिबंध से वैश्विक बाजारों पर बुरा असर क्यों पड़ सकता है