भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि को लेकर भविष्यवाणियां आशावादी स्तरों पर आकर केन्द्रित हो गई हैं. अनुमान लगाया जा रहा है कि 8.3 प्रतिशत (विश्व बैंक) से लेकर 10.5 प्रतिशत (सरकार) तक की आर्थिक रिकवरी हो सकती है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश 9.5 प्रतिशत का अनुमान लगा रहा है. निवेश बैंकों के कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुमान इसी बीच के हैं.
महामारी के कारण पिछले साल जीडीपी में 7.3 प्रतिशत की गिरावट के साथ आर्थिक स्थिति में सुधार के आंकड़ों को लें तो वार्षिक वृद्धि दर करीब 1 फीसदी आती है. लेकिन पिछले दो वर्षों में वैश्विक जीडीपी में जैसी वृद्धि हुई है और उभरती मार्केट अर्थव्यवस्थाओं का जैसा प्रदर्शन रहा है उनके मुक़ाबले यह कुछ कमजोर ही दिखती है. वास्तव में, विश्व बैंक कह रहा है कि विश्व अर्थव्यवस्था में ऐसा सुधार पिछले 80 वर्षों में नहीं देखा गया, जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए पिछले 40 वर्षों में से कम ही साल ऐसे रहे जब उसने बेहतर प्रदर्शन किया.
इस पृष्ठभूमि के साथ, अब रिकवरी के बाद क्या होगा? मुख्य आर्थिक सलाहकार ने 2022-23 में 6.5 से लेकर 7.00 प्रतिशत की, और इसके बाद 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि की भविष्यवाणी की है. लेकिन विश्व बैंक के आंकड़े दूसरी दिशा में हैं— 7.5 से 6.5 प्रतिशत के. आइएमएफ अधिक आशावादी है और वह 8.5 प्रतिशत वृद्धि के अनुमान लगा रहा है. ऐसे आंकड़े संकेत करते हैं, हालांकि उनमें आगे संशोधन हो सकते हैं. आइएमएफ खास तौर से अधिक आशावादी रहा है. उसने इस साल के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था में 12.5 प्रतिशत की वृद्धि की भविष्यवाणी अप्रैल में की थी, जिसे जुलाई में घटाकर 9.5 प्रतिशत किया. याद रहे कि महामारी से पहले तीन साल अधिकृत वृद्धि दर 5.8 प्रतिशत रही.
इसलिए, नये आशावाद के पीछे क्या तर्क है. मुख्य आर्थिक सलाहकार ने अगले साल के लिए 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि की जो भविष्यवाणी की है वह आर्थिक सुधारों के सरकारी कदमों के अपेक्षित परिणामों पर आधारित है. उन्होंने ऐसे कुछ परिणामों का जिक्र भी किया है. दूसरी वजह विश्व अर्थव्यवस्था में असाधारण तेजी हो सकती है. आइएमएफ ने इस साल के लिए वैश्विक आर्थिक वृद्धि 6 प्रतिशत रहने की भविष्यवाणी की थी, और अब 4.9 प्रतिशत की कर रही है. ये सब चालू गति से ऊपर हैं. विश्व व्यापार में वृद्धि दहाई अंक में हो सकती है, और भारतीय निर्यात इस उछाल का लाभ ले रहा है. 2008 के वित्तीय संकट से पहले ऐसी ही स्थितियों में भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ आर्थिक वृद्धि के साल बीते थे. सकारात्मक दृष्टि से, उत्पादकता में वृद्धि होगी क्योंकि महामारी का जो हाल रहा है उसके कारण संगठित क्षेत्र असंगठित क्षेत्र की जगह ले लेगा, जिसमें कॉर्पोरेट मुनाफे और टैक्स राजस्व के मामले में लाभ होगा. आर्थिक गतिविधियों के डिजिटलीकरण से भी उत्पादकता के मामले में लाभ की संभावना है.
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अपेक्षाओं में सुधार
जो भी हो, अपेक्षाओं को सुधारना जरूरी है. पहली बात, सरकार कल के लिए बड़ी वादे करती रही है (दहाई अंक वाली आर्थिक वृद्धि की बातें याद कीजिए). दूसरे, सुधारों का अपेक्षा से कम परिणाम मिलता है. अब तक के बैंकिंग सुधारों, ‘इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरपसी कोड’, ‘मेक इन इंडिया’, बिजली सेक्टर में सुधार (उदय), परिवहन (खासकर रेलवे) के ढांचे में भारी निवेश से मिली सीमित लाभों, आदि पर विचार करें.
तीव्र वृद्धि और आज की स्थिति के बीच के मुख्य विरोधाभास पर गौर करें— 2008 से पहले के वर्षों में निवेश में भारी उछाल, जबकि जीडीपी में निवेशों के अनुपात में गिरावट— छठे हिस्से के बराबर से ज्यादा की कुल कमी. रोजगार अनुपात में गिरवात के कारण उत्पादन से जुड़े एक और तत्व (श्रम) भी कुप्रभावित हुआ है.
ये आंकड़े सुधर सकते हैं, वैसे ही जैसे कॉर्पोरेट ऋण के स्तर में सुधार हुआ, लेकिन लघु एवं मझोले सेक्टर अपने पैर पर खड़े नहीं होते तो संगठित क्षेत्र की मुनाफा-केंद्रित रिकवरी पर्याप्त नहीं होगी. याद रहे कि सुरक्षा देने वाले कानून के अभाव में जोमातों और ऊबर जैसे एग्रीगेटर बिनेस वेंडरों का शोषण करेंगे और हार-जीत के खेल को तेज करेंगे. इससे उपभोग में रिकवरी नहीं आएगी, जिसके बिना नया निवेश नहीं आएगा, सिवा सरकारी निवेश के. सरकार को सार्वजनिक ऋण में भारी वृद्धि की चिंता करनी होगी.
मध्यवर्ती वृद्धि दरों में अनुमानित तेज उछाल के लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था के चारों इंजिन—निजी तथा सरकारी निवेश, घरेलू मांग, और निर्यात— पूरे वेग से काम करें. सरकार ने अपने ही निवेश में वृद्धि पर दांव लगाया है, जबकि निर्यात की स्थिति बेहतर है. लेकिन ये चार में से केवल दो इंजिन ही हुए.
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