नई दिल्ली: जिसे भारत का सबसे बड़ा बैंक धोखा बताया जा रहा है, उसके पीछे एक डूबती हुई जहाज़ निर्माण कंपनी का हाथ है.
2012 से 2017 के बीच, एक गुजरात-स्थित कंपनी एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड (एबीजी एसएल) ने कथित रूप से बैंकों को कुल मिलाकर 22,842 करोड़ रुपए का चूना लगाया. इस ख़ुलासे ने नरेंद्र मोदी सरकार को आलोचनाओं के घेरे में ला खड़ा किया है, और विपक्षी कांग्रेस उस पर ‘लूट’ में सहायता करने का आरोप लगा रही है, ये देखते हुए कि ये धोखाधड़ी एक बीजेपी-शासित राज्य में हुई है.
कथित धोखाधड़ी का दायरा और पैमाना चकरा देने वाला है, लेकिन जैसा कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को पता चल रहा है, धोखे का मूल बिंदु वो नया तरीक़ा था, जिससे कंपनी ने ज़ाहिरी तौर पर सौदों का एक जाल तैयार कर लिया था, जिससे 28 बैंकों के एक संघ को चूना लगाया गया, जिसमें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई), आईडीबीआई, और आईसीआईसीआई वग़ैरह शामिल हैं.
सीबीआई सूत्रों के अनुसार, एबीजी एसएल ने इन बैंकों से कर्ज़ लेकर उसे कहीं और पहुंचा दिया. कर्ज़ की राशि से उसने कथित रूप से विदेशी सहायक कंपनियों में निवेश किए, संबद्ध कंपनियों के नाम से संपत्तियां ख़रीदीं, और अपने से जुड़ी कई अन्य पार्टियों को भी पैसा ट्रांसफर किया.
ये भी आरोप है कि कंपनी ने, जिसका खाता 2013 में एक नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) बन गया था, कॉर्पोरेट डेट रीस्ट्रक्चरिंग की अपनी व्यवस्था की शर्तों का उल्लंघन किया- जो एक राहत व्यवस्था होती है जिसमें बैंक या तो कर्ज़ों पर ब्याज दर कम कर देते हैं, या फिर भुगतान की अवधि को बढ़ा देते हैं.
इस मुद्दे से जुड़ा हो-हल्ला इस वजह से और बढ़ गया है, कि इस केस में देरी बहुत हुई है. एसबीआई ने इस धोखाधड़ी को जनवरी 2019 में पहचान लिया था, लेकिन शिकायत उस साल नवंबर में जाकर दर्ज कराई. एक ताज़ा और अधिक व्यापक शिकायत अगस्त 2020 में दर्ज कराई गई, लेकिन सीबीआई ने आख़िरकार ये केस 7 फरवरी को दर्ज किया, और एबीजी एसएल तथा एबीजी इंटरनेशनल प्राइवेट लि. को प्रतिवादी बना लिया.
जांच एजेंसी ने एबीजी एसएल के पूर्व अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक ऋषि कमलेश अग्रवाल, पूर्व कार्यकारी निदेशक संथानम मुथास्वामी, और निदेशक अश्विनी कुमार, सुशील कुमार अग्रवाल और रवि विमल नेवतिया को भी प्रतिवादी बनाया है. पिछले शनिवार अभियुक्तों के 13 परिसरों पर तलाशी की कार्रवाई की गई, जो सूरत, भरूच, मुम्बई और पुणे में स्थित थे, जहां से सूत्रों के अनुसार आपत्तिजनक दस्तावेज़ बरामद हुए.
केस ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं: ये धोखा इतने समय तक कैसे छिपा रहा? फिर ये कैसे सामने आया? पैसे को किस तरह डाइवर्ट किया गया? और CBI से FIR दर्ज करने में देरी क्यों हुई?
फोरेंसिक ऑडिट से खुली पोल
ये कथित धोखाधड़ी एक फोरेंसिक ऑडिट के दौरान सामने आई, जिसे अर्न्स्ट एंड यंग एलएलपी (जिसे ईवाई भी कहा जाता है) ने जनवरी 2019 में, अप्रैल 2012 और जुलाई 2017 के बीच की अवधि के लिए किया था. एफआईआर के अनुसार, जिसकी प्रति दिप्रिंट ने देखी है, ऑडिट में पता चला कि इसी अवधि के दौरान धोखाधड़ी की गई है.
ऑडिट रिपोर्ट के निष्कर्षों से, जिनकी तफसील दिप्रिंट ने देखी है, पता चला कि ये ‘धोखाधड़ी फंड्स के दिशांतरण, ग़बन,और विश्वास के आपराधिक उल्लंघन के ज़रिए की गई, जिसका उद्देश्य बैंक के फंड्स की क़ीमत पर,अवैध तरीक़े से फायदा उठाना था’.
एफआईआर के मुताबिक़, एबीजी एसएल पर अब कुल 22,842 करोड़ रुपए की देनदारी है. इस रक़म में से उसे 7,089 करोड़ रुपए आईसीआईसीआई (कंसॉर्शियम के अगुवा) को देने हैं, 2,925 करोड़ एसबीआई को, 3,639 करोड़ आईडीबीआई बैंक, 1,614 करोड़ बैंक ऑफ बड़ौदा, 1,244 करोड़ पंजाब नेशनल बैंक, 1,327 करोड़ एक्ज़िम बैंक, 1,244 करोड़ इंडियन ओवरसीज़ बैंक, और 719 करोड़ बैंक ऑफ इंडिया को देने हैं.
सीबीआई सूत्रों ने कहा कि इन बैंकों ने 2005 और 2010 के बीच कंपनी को कर्ज़ दिए थे, लेकिन घोटाले का पता फॉरेंसिक ऑडिट के बाद ही चल पाया. एसबीआई ने अपनी शिकायत में कहा कि ये घोटाला 2011 और 2017 के बीच हुआ.
एक सीबीआई सूत्र ने कहा, ‘शुरुआती जांच से ज़ाहिर होता है कि ये कर्ज़े 2005 से 2010 के बीच स्वीकृत किए गए. ऐसा लगता है कि बैंकों ने फाइनैंशल रिकॉर्ड्स की व्यापक जांच किए बिना कंपनी को पैसा दे दिया. जांच की जा रही घोटाले की राशि उससे ज़्यादा या कम हो सकती है, जितनी अभी फिलहाल दिख रही है’.
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एसबीआई शिकायत में कहा गया कि एबीजी एसएल ने क़र्ज की राशि का, संबंधित पार्टियों को भुगतान करने में इस्तेमाल किया.
फॉरेंसिक ऑडिट में- जो वन ओशन शिपिंग प्राइवेट लि. (ओओएसपीएल) और एबीजी इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन (एबीजी ईसी) लि. के बही खातों पर आधारित था- देखा गया कि पैसे को पीएफएस शिपिंग इंडिया लि. नाम की एक और कंपनी को ट्रांसफर किया गया. पीएफएस शिपिंग ने फिर कथित रूप से प्राप्तियों को एबीजी एसएल के साथ समायोजित कर लिया.
एफआईआर में कहा गया, ‘ट्रांसफर संस्थाओं से पता चलता है, कि पिछले सालों में एबीजी एसएल ने फंड्स को, ओओएसपीएल तथा एबीजी ईसी को ट्रांसफर किया था’.
सीबीआई के एक सूत्र के अनुसार, बैंकों से उधार ली गई राशि का इस्तेमाल, कर्ज़ों की अदाएगी, कंपनी समूह के दूसरे ख़र्चों, तथा साख पत्रों के लिए किया गया.
इसके अलावा, मास्टर रीस्ट्रक्चरिंग अग्रीमेंट (एमआरए) के अनुसार, एबीजी एसएल को अपनी सहायक कंपनी एबीजी शिपयार्ड सिंगापुर द्वारा, स्टैंडर्ड चार्टर्ड ट्रस्ट की यूनिट्स में किया गया 236 करोड़ रुपए का निवेश, कॉरपोरेट डेट रीकंस्ट्रक्शन की तिथि से दो महीने के भीतर वसूल कर लेना चाहिए था. उसकी बजाय, एबीजी एसएल ने एबीजी सिंगापुर में कथित रूप से 4.3 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निवेश कर दिया, जिसे फिर ‘संभवत: कहीं और पहुंचा दिया गया’.
ऊपर हवाला दिए गए सूबीआई सूत्र ने कहा, ‘कंपनी ने विदेशी सहायक कंपनियों में निवेश के लिए अनुमति मांगी थी, जो कारोबार की एक सामान्य प्रथा है. लेकिन इसके एक बहुत बड़े हिस्से की दिशा, कुछ ऐसे उद्देश्यों की ओर मोड़ दी गई, जो पहले से घोषित उद्देश्यों से अलग थे’. सूत्र ने आगे कहा, ‘ऐसा संदेह है कि पैसे का रुख़ कर मुक्त क्षेत्रों की ओर मोड़ दिया गया’.
सौदों का जाल
एसबीआई ने आरोप लगाया है कि ऐसे संकेत हैं, कि एबीजी शिपयार्ड लि. द्वारा उपलब्ध कराए गए पैसे से, उससे संबिधित या जुड़ी हुई पार्टियों ने संपत्तियों की ख़रीद की थी.
एफआईआर में कहा गया है, ‘वित्त वर्ष 2014-15 के लिए एबीजी एसएल की वार्षिक रिपोर्ट और बही खातों की समीक्षा करने के बाद, ऐसा लगता है कि एबीजी एसएल ने एरीज़ मैनेजमेंट सर्विसेज़, जीसी प्रॉपर्टीज़, गोल्ड क्रॉफ्ट प्रॉपर्टीज़ को समीक्षा अवधि (2007-08) से पहले, कुल 83 करोड़ रुपए आवास जमा के रूप में अदा किए. और इन संपत्तियों का संबंध संभावित रूप से, एबीजी एसएल और इसके प्रमोटर्स से था’.
एफआईआर में आगे कहा गया है, ‘इन कंपनियों के वित्तीय विवरण की समीक्षा से पता चलता है, कि संपत्तियां उन सिक्योरिटी डिपॉज़िट्स से ख़रीदी गईं थीं, जो एबीजी एसएल ने उसी साल उपलब्ध कराए थे’.
एफआईआर के अनुसार, जो बैंक बही खातों पर आधारित है, 15 और 16 मार्च 2016 को क्रमश: 15 करोड़ और 16 करोड़ रुपए की राशि, एबीजी एसएल की ओर से एबीजी इनर्जी को भेजी गई.
इसके अलावा, 31 करोड़ रुपए की रक़म एबीजी इंटरनेशनल प्राइवेट लि. से, आवास जमा के रिफंड के रूप में प्राप्त की गई.
एफआईआर में कहा गया है, ‘इससे संकेत मिलता है कि एबीजी एसएल द्वारा पहले अदा किए गए आवास डिपॉज़िट्स का वास्तव में रिफंड नहीं हुआ, और संभावित रूप से सिर्फ सर्क्युलर लेनदेन हुए’.
एफआईआर में आगे कहा गया कि इन लेनदेनों से ‘संकेत मिलता है कि संपत्तियां एबीजी एसएल द्वारा उपलब्ध कराए गए पैसे से ख़रीदी गईं’, लेकिन ‘एबीजी एसएल के खातों में अचल संपत्तियों का हिस्सा नहीं थीं’.
एफआईआर में ये आरोप भी लगाया गया है, कि कंपनी ने लीज़, लीव और लाइसेंस के ख़त्म होने पर, मालिकों को दिए गए सारे डिपॉज़िट्स वापस ले लिए.
एफआईआर में कहा गया, ‘ये राशि एबीजी इंटरनेशनल से वापस प्राप्त की गई. बैंक खातों की समीक्षा पर देखा गया, कि 300 करोड़ में से 95 करोड़ रुपए, अप्रैल 2014 में सर्कुलर ट्रांज़ेक्शन के ज़रिए लाए गए होंगे, जिन्हें एक ही तारीख़ में संबंधित पार्टियों से निकासी, और एबीजी इंटरनेशनल की आवक के रूप में दिखाया गया होगा’.
सीबीआई सूत्र ने कहा, ‘जहां तक लेन-देन का संबंध है, ये एक बहुत जटिल केस है. पैसे का भुगतान हुआ है, फिर उसे उन्हीं खातों में लौटा दिया गया, इसके बाद उसे विभिन्न इकाइयों के अलग अलग खातों में भेज दिया गया’.
‘कंपनी पर वैश्विक संकट की मार’
एबीजी शिपयार्ड लि. एबीजी ग्रुप की फ्लैगशिप कंपनी है, जो जहाज़ निर्माण और मरम्मत के काम में लगी है. कंपनी का गठन 1985 में हुआ था, और इसके गुजरात के दाहेश और सूरत में शिपयार्ड्स हैं. सूबीआई सूत्रों ने बताया कि इसका वित्त-पोषण 28 बैंकों के साथ, कंसॉर्शियम अनुबंध के तहत किया गया. अग्रणी बैंक आईसीआसीआई था.
एफआईआर में कहा गया कि कंपनी 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से प्रभावित हुई थी, जिसके नतीजे में वो एक नॉन परफॉर्मिंग एसेट बन गई.
एफआईआर में कहा गया है, ‘एबीजी एसएल ने पिछले 16 वर्षों में 165 से अधिक जहाज़ों का निर्माण किया, जिनमें न्यूज़प्रिंट वाहक, सेल्फ-डिस्चार्जिंग एंड लोडिंग भारी सीमेंट वाहक जैसे विशिष्ट जहाज़ शामिल थे. लेकिन जब वैश्विक संकट ने जहाज़रानी उद्योग को प्रभावित किया, तो उसकी मार कंपनी पर भी पड़ी’.
उसमें आगे कहा गया है कि इस संकट की वजह से, कार्यशील पूंजी की कमी पैदा हो गई जिससे ‘संचालन चक्र काफी लंबा हो गया, और नक़दी तथा वित्तीय समस्या और ज़्यादा बिगड़ गई’.
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30 नवंबर 2013 को कंपनी का खाता एनपीए में तब्दील हो गया.
एसबीआई के एक बयान के मुताबिक़, एबीजी एसएल के संचालन को फिर से पटरी पर लाने के कई प्रयास किए गए. इनके तहत मार्च 2014 में सभी ऋणदाताओं द्वारा सीडीआर व्यवस्था के तहत खाते की री-स्ट्रक्चरिंग शामिल थी. लेकिन, चूंकि जहाज़रानी उद्योग गिरावट के अभी तक के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहा था, इसलिए कंपनी के संचालन को पटरी पर नहीं लाया जा सका’.
शिकायत के अनुसार, व्यवसायिक जहाज़ों की कोई मांग नहीं थी, चूंकि 2015 तक उद्योग मंदी के दौर से गुज़र रहा था, और कोई ताज़ा डिफेंस ऑर्डर्स न मिलने की वजह से, कंपनी के लिए सीडीआर का पालन करना मुश्किल हो रहा था. शिकायत में कहा गया कि इस कारण से, कंपनी निर्धारित तारीख़ों पर ब्याज और किश्तों का भुगतान नहीं कर पाई.
रीस्ट्रक्चरिंग के फेल हो जाने के साथ ही, जुलाई 2016 में कंपनी खाते को 30 नवंबर 2013 की पिछली तारीख़ के प्रभाव से एनपीए घोषित कर दिया गया.
एफआईआर में कहा गया है कि एसबीआई ने विशेष रूप से, आरोप लगाया है कि हो सकता है कि कंपनी ने कॉरपोरेट डेट रीस्ट्रक्चरिंग व्यवस्था का उल्लंघन किया हो, जिसमें कहा गया था कि ‘सभी नक़द प्राप्तियों को ट्रस्ट एंड रिटेंशन अकाउंट से होकर गुज़रना चाहिए…’
धोखाधड़ी को पकड़ने और केस दर्ज करने में देरी
हालांकि एक घोटाला पहचान समिति ने जून 2019 में एक बैठक में धोखाधड़ी की पहचान कर ली थी, लेकिन एसबीआई ने सीबीआई में अपनी पहली शिकायत नवंबर 2019 में दर्ज की.
रविवार को जारी एक बयान में एसबीआई ने कहा कि ‘प्रक्रिया में देरी के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया’.
Press release about ABG Shipyard issue. @DFS_India @FinMinIndia
Our statement -: pic.twitter.com/RP71DBhePD
— State Bank of India (@TheOfficialSBI) February 13, 2022
एसबीआई ने कहा कि धोखाधड़ी का ऐलान फॉरेंसिक ऑडिट के निष्कर्षों के आधार पर किया जाता है, जिनपर संयुक्त ऋणदाताओं की बैठक में अच्छी तरह से चर्चा की जाती है. आमतौर पर घोटाले का ऐलान होने पर, शुरुआती शिकायत सीबीआई को दी जाती है. जांच एजेंसी की पड़ताल के आधार पर आगे की जानकारी जुटाई जाती है. जिन मामलों में अच्छी ख़ासी अतिरिक्त जानकारी एकत्र हो जाती है, उनमें एक दूसरी शिकायत दर्ज की जाती है, जिसमें मामले का पूरा विवरण दिया जाता है, जो एफआईआर के लिए आधार बनता है. इस केस में भी एसबीआई ने एक दूसरी अधिक व्यापक रिपोर्ट दर्ज कराई, जिसे अगस्त 2020 में सीबीआई को भेज दिया गया.
अपने बयान में एसबीआई ने कहा, ‘घोटाले की परिस्थितियों और सीबीआई की ज़रूरतों पर, संयुक्त ऋणदाताओं की कई बैठकों में, फिर से विचार-विमर्श किया गया, और एक दूसरी ताज़ा तथा व्यापक शिकायत दर्ज की गई’.
सोमवार को पत्रकारों से बात करते हुए, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि इसमें कोई देरी नहीं हुई है, क्योंकि घोटाले के तत्वों को निर्धारित करने में, आमतौर से ‘52 से 56 महीने’ लगते हैं. सीतारमण के अनुसार, इसका ‘श्रेय बैंकों को जाता है’ कि उन्होंने ‘औसत से कम समय में’ घोटाले का पता लगा लिया.
सीतारमण ने कहा, ‘एक फॉरेंसिक ऑडिट कराया गया. एक एक सुबूत जुटाकर केंद्रीय जांच ब्यूरो को दिया गया. इसी बीच, समानांतर रूप से, एक एनसीएलटी (नेशनल कंपनी लॉ ट्रायब्युनल) प्रक्रिया भी चल रही है’.
उन्होंने कहा, ‘मैं इसका ज़्यादा राजनीतिकरण नहीं करना चाहती, क्योंकि मैं आरबीआई ऑफिस में बैठी हूं, लेकिन शोर मचाया जा रहा है, कि किस तरह इस सरकार के नीचे ये सबसे बड़ा घोटाला है. किसी को ये नहीं भूलना चाहिए कि खाते को सबसे पहले 2013 में एनपीए घोषित किया गया था’.
सीबीआई सूत्रों ने ये भी कहा कि एफआईआर दर्ज करने में कोई देरी नहीं हुई है. एक सूत्र ने कहा, ‘हम लगातार बैंक के संपर्क में थे. बहुत सारे जटिल लेन-देनों की जांच की जा रही थी. सारे लेन-देन ही संदिग्ध नहीं थे- आपको पहचान करनी होती है कि घोटाला कब और कैसे हुआ, जिसमें समय लगता है. जांच अभी भी चल रही है’.
एफआईआर के अनुसार, 2019 में जब घोटाले की पहचान की गई, या पहली शिकायत दर्ज किए जाने के समय भी, कंसॉर्शियम के दूसरे सदस्य बैंकों से एक औपचारिक शिकायत दर्ज कराने की सहमति प्राप्त नहीं हुई थी. एफआईआर में कहा गया है कि जून और अगस्त 2020 के बीच, सभी हितधारकों के साथ हुई बैठकों में ही शिकायत दर्ज कराने पर सहमति देने के मुद्दे को उठाया गया, और सहमति प्राप्त की गई’.
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