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Thursday, 25 April, 2024
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मैन्युफैक्चर्ड माल के निर्यात को बढ़ावा देने का समय अभी नहीं बीता है, लेकिन रुपये की कीमत से मुश्किल बढ़ी

भारत ने बाहरी पूंजी के लिए दरवाजे ज्यादा से ज्यादा खोल कर, जिससे रुपया और ऊपर चढ़ता है, अपनी मुश्किलें खुद बढ़ाई हैं. देश में रोजगार बढ़ाने की जगह विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को प्राथमिकता दी गई है.

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2000-01 में नई सदी जब शुरू हो रही थी तब भारत से निर्यात होने वाले माल और सेवाओं (गूड्स एंड सर्विसेज़) में अधिकांश हिस्सा मैन्युफैक्चर्ड माल का होता था, और सेवाओं का हिस्सा मैन्युफैक्चर्ड माल के हिस्से से आधा ही होता था. एक दशक बाद, 2010-11 में भी भारत से होने वाले निर्यातों में सबसे बड़ा हिस्सा मैन्युफैक्चर्ड माल का ही था लेकिन उसकी हिस्सेदारी घट गई थी. पर वित्त वर्ष 2020-21 में सेवाओं के निर्यात का मूल्य 206 अरब डॉलर के बराबर हो गया और यह मैन्युफैक्चर्ड माल के निर्यात के मूल्य, 208 अरब डॉलर के करीब पहुंच गया. निर्यातों का कुल मूल्य 498 अरब डॉलर के बराबर था. दो दशकों की अवधि में सेवाओं के निर्यात का आकार मैन्युफैक्चर्ड माल के निर्यात के आकार के आधे से बढ़कर उसके बराबर हो गया.

अगर कुल आंकड़ों की जगह वृद्धि पर नज़र डालेंगे तो यह दिशा और स्पष्ट दिखेगी. 2020-21 में पूरे हुए दशक में सेवाओं के निर्यात में 81 अरब डॉलर के बराबर वृद्धि हुई यानी इसमें मैन्युफैक्चर्ड माल के निर्यात में वृद्धि (37 अरब डॉलर) के मुक़ाबले दोगुनी वृद्धि हुई. भारत से व्यापारिक माल और सेवाओं के निर्यातों का अनुपात अब अमेरिका और औद्योगिक युग के बाद बनी उन दूसरी अर्थव्यवस्थाओं में इस अनुपात के बराबर हो गया है जो मैन्युफैक्चरिंग के मामले में चीन और पूर्वी एशिया से पिछड़ गई हैं. इस तरह का अनुपात विविध आयामी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए अनूठा है.
लेकिन लगता है कि यह रुझान चालू वर्ष में उलट गया है. सेवाओं के मुक़ाबले व्यापारिक माल के निर्यात में तेजी से वृद्धि हो रही है. इसकी वजह शायद यह है कि निर्यात किए जाने वाले पेट्रोल उत्पादों की कीमतें बढ़ी हैं. लेकिन रुझान में इस पलटाव को मजबूत नहीं माना जाना चाहिए. भारत को अपने मानव श्रम की लागत के कारण बढ़त हासिल है. यह शिक्षित कामगार तबके के मामले में सबसे स्पष्ट है और सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात में देश की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता को, चिप उत्पादन की जगह उसके डिजाइन में इसकी क्षमता और दवाओं तथा विशेष रसायनों जैसे ज्ञान आधारित उत्पादों के निर्यात में उसकी सफलता को मजबूत करता है, क्योंकि उनमें मार्जिन अच्छा है.


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श्रम लागत में प्रतिस्पर्द्धी बढ़त कृषि उत्पादों के निर्यात के बढ़ते महत्व को भी रेखांकित करती है, जिसे बेहद कम कृषि पारिश्रमिक के बावजूद कृषि में कम लाभ का सहारा मिलता है. यह झूठी तसल्ली है लेकिन फिर भी उल्लेखनीय है कि पिछले दशक में कृषि उत्पादों के निर्यात में भी तेजी से वृद्धि (68 प्रतिशत की) हुई है जबकि मैन्युफैक्चर्ड उत्पादों के निर्यात में 22 फीसदी की वृद्धि हुई है.

तब स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि गारमेंट्स, जूते जैसे कम मार्जिन वाले, ज्यादा बड़े आकार वाले तथा श्रम आधारित उत्पादों (जिनके कारण पूर्वी एशिया को शुरुआती सफलता मिली) के निर्यात में कम लागत वाली मानव शक्ति के कारण हासिल लाभ प्रतिबिंबित क्यों नहीं हो पाता. इसका सर्वविदित जवाब यह है कि यह नीतिगत विफलता है. शुरू में इन चीजों को लघु उद्योग के लिए आरक्षित किया गया इसलिए लागत-लाभ का समीकरण गायब रहा. सख्त श्रम क़ानूनों ने कार्यस्थल के माहौल को लचीला नहीं बनाने दिया, पूंजीखोर उद्योगों को प्रोत्साहन दिया गया और ऐसे दूसरे कारण भी रहे. इनमें से कुछ मसलों को दुरुस्त किया गया है, बाकी को नहीं.

श्रम आधारित उत्पादन को निर्यात बाज़ारों के लिए बढ़ावा देने का समय क्या काफी पहले बीत चुका? नहीं, ऊंची श्रम लागत के बावजूद चीन गार्मेंट्स निर्यात से भारत के मुक़ाबले कहीं ज्यादा कमाता है. लेकिन एक अहम वजह से यह अधिक मुश्किल हो गया है, वह है रुपये की विनिमय दर. अगर भारत केवल सामान का निर्यात कर रहा होता तो 150 अरब डॉलर (जीडीपी का 5 प्रतिशत) का भारी घाटा रुपये की कीमत घटाने पर मजबूर कर देता. यह भारत के मैन्युफैक्चर्ड माल को निर्यात बाजार में सस्ता बना देता, और घरेलू उत्पादन को आयात के मुक़ाबले सस्ता बना देता. मुद्रा में यह संशोधन इसलिए नहीं होता क्योंकि माल के व्यापार में घाटा सेवाओं के व्यापार में सरप्लस के कारण लगभग बराबर हो जाता है. साफ कहें तो, सफ़ेद कॉलर की कामयाबी ने नीली कॉलर की मजबूती के मुक़ाबले बढ़त ली है.

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समस्या को पहचानते हुए भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग से जुड़ने की बात चलाई और व्यापारिक माल के निर्यात में रियायत की मांग की, जिसके बदले उसने सेवा व्यापार को खोलने की पेशकश की, लेकिन चीन और दूसरों के प्रभाव में क्षेत्र के बाकी देश राजी नहीं हुए. तब भारत इससे अलग हो गया, लेकिन इससे समस्या खत्म नहीं होती. वास्तव में, देश ने बाहरी पूंजी के लिए दरवाजे ज्यादा से ज्यादा खोल कर, जिससे रुपया और ऊपर चढ़ता है, अपनी मुश्किलें खुद बढ़ाई हैं. देश में रोजगार बढ़ाने की जगह विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को प्राथमिकता दी गई है.

डॉलर सरप्लस होने से रिजर्व बैंक को बेजरूरत डॉलर खरीदने पर मजबूर होना पड़ा है और विदेशी मुद्रा के भंडार को बढ़ाना पड़ा है. इस सबकी एक सीमा है, इसलिए कम मार्जिन वाले मैन्युफैक्चर्ड माल के लिए रुपया इतना महंगा हो गया कि निर्यात लाभकारी नहीं रहा, खासकर इसलिए कि भारत में कारोबार का माहौल अभी भी ठीक नहीं हुआ है. थोड़ी राहत की बात यह है कि ताजा बजट में सरकार ने अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिए बॉन्ड मार्केट को ज्यादा नहीं खोला, जिसकी मांग की जा रही थी. इससे समस्या और गंभीर हो जाती.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था के साथ)

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