नई दिल्ली: राजस्थान में दिव्यांगों के लिए चलाई जा रही कई योजनाओं के बावजूद स्कूलों में पिछले सालों से दिव्यांग बच्चों के नामांकन में भारी कमी देखने को मिली है. राज्य में पिछले कुछ सालों से इनकी शिक्षा को लेकर स्थिति लगातार चिंताजनक बनी हुई है.
इसे लेकर राजस्थान के सामाजिक कार्यकर्ता और दिव्यांग छात्रों को पढ़ाने वाले कुछ शिक्षक सोशल मीडिया पर मुहिम भी चला रहे हैं. प्रत्येक दिव्यांग को शिक्षा दो या फिर दिव्यांग भी इंसान हैं जैसे हैशटैग के जरिए कई विधायक भी इस मुद्दे पर अपनी बात रख चुके हैं.
राजस्थान टीचर एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहरसिंह सलवाद ने भी ट्वीट कर कहा था कि राज्य में 87 फीसदी दिव्यांग बच्चे शिक्षक और सुविधाओं के अभाव में स्कूलों से बाहर हैं.
दिव्यांग बच्चों के स्कूलों में शिक्षा से लेकर उनके खाने-पीने से लेकर रहन-सहन के साथ उन्हें स्वाबलंबी बनाने तक का प्रशिक्षण दिया जाता है. ऐसे में स्कूलों में स्पेशल शिक्षकों की कमी और साधारण शिक्षकों की बेरुखी की वजह से छात्रों का नामांकन कम हो रहा है.
जोधपुर जिले में रहने वाली 9 साल की दिव्यांग बच्ची प्रसन्ना (परिवर्तित नाम) के दादा किसान हैं पहचान जाहिर न करने की शर्त पर बताते हैं, ‘प्राइवेट स्कूल में भेजने की हमारी हैसियत नहीं है लेकिन अगर हम सरकारी स्कूलों में जाते हैं तो सरकारी स्कूल में शिकायत की जाती है कि ये बिना बताए पेशाब कर देती है और हम इसका ध्यान नहीं रख सकते.’
वह आगे बताते हैं, ‘तमन्ना पैरों से चल नहीं सकती तो इसके लिए पैदल चलना भी मुश्किल है. इसे सही ढंग से खाना भी नहीं खाना आता. सरकार स्पेशल टीचर्स की नियुक्ति करे जो ऐसे बच्चों की देखभाल कर सकें.’
वहीं अलवर जिले के 22 वर्षीय दिव्यांग ( कौन सा दिव्यांग, जिले का गांव कभी गया है क्या स्कूल) अजय के भाई अकलेश गुर्जर कहते हैं, ‘परिस्थितियों की वजह से भाई परेशान रहता है और शिक्षा से वंचित रह गया है. ना हम सरकारी स्कूल में पढ़ा सके और ना ही प्राइवेट में. ऐसे बच्चों के लिए विशेष उपाय करने चाहिए ताकि राजस्थान के और बच्चे शिक्षा से वंचित ना रहें.’
तीन श्रेणी के ही होते हैं हरियाणा में स्पेशल टीचर- शिक्षा मंत्री
हालांकि, राजस्थान के शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने दिप्रिंट को इस मामले में लिखित जवाब भेजा है और कहा है कि, ‘राजस्थान स्कूल शिक्षा परिषद द्वारा विशेष आवश्यकता वाले बालक-बालिकाओं के कम नामांकन का संज्ञान लेते हुए नामांकन, डाइस प्रविष्टि एवं पीएमएस पोर्टल पर प्रविष्टि हेतु जिलों को निर्देश दिया गया है’.
शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत प्रत्येक 5 से 18 साल के दिव्यांग को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है और राज्य सरकार का काम है कि वो इनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी कराने के लिए एक व्यवस्था तैयार करें.
गोविंद सिंह डोटासरा ने बताया कि स्पेशल टीचर्स की भर्ती को लेकर सवाल है तो उनकी जरूरत उन्हीं स्कूलों में है जहां दिव्यांग बच्चों के नामांकन किया गया हैं. राज्य सरकार तीन श्रेणी के ही स्पेशल टीचर नियुक्त करती है जिसमें श्रवण बाधित (जिनकी सुनने की क्षमता कम हो या फिर जिन्हें सुनाई न देता हो), दृष्टिबाधित (जिन्हें देखने में परेशानी हो ) और मानसिक विमन्दिता(मेंटल इलनेस) शामिल है. इसके अलावा अस्थि दोष संबंधित या फिर रक्त या अन्य श्रेणी के विशेष बच्चों को स्पेशल शिक्षण की जरूर नहीं पड़ती.
उन्होंने ये भी बताया कि इस मामले में संबंधित कार्य समावेशी शिक्षा प्रकोष्ठ स्तर पर ही किए जा रहे हैं. इसके लिए कोई अलग से कमेटी गठित नहीं की गई है.
दिव्यांगों की शिक्षा को लेकर पिछले साल की गई एक आरटीआई के पता चला था कि साल 2015-16 में 1,16,683, साल 2016-17 में 1,07,299, साल 2017-18 में 91,929 और साल 2018-19 में 70,641 दिव्यांग छात्रों के स्कूलों में नामांकन हुए. आंकड़े बता रहे हैं कि हर वर्ष दिव्यांग छात्र-छात्राओं की संख्या लगातार कम हो रही है.
अगर राजस्थान सरकार के शाला दर्पण पोर्टल से पता चलता है कि वर्तमान में पूरे सूबे में सिर्फ 42,900 दिव्यांग छात्रों के नामांकन हुए हैं. जबकि इन विशेष बच्चों को पढ़ाने के लिए विशेषज्ञ शिक्षक भी होने चाहिए. आरटीआई से पता चला है कि ऐसे शिक्षको की भी संख्या काफी कम है.
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‘69,929 सरकारी स्कूलों में महज 1326 स्पेशल टीचर नियुक्त’
आरटीआई फाइल करने वाली सुनीता मूंढ विशेष कल्याण एवं पुनर्वास समिति नाम का एनजीओ और साथ हीं राज्य के सीकर जिले में दिव्यांग छात्रों के लिए एक निशुल्क निजी स्कूल भी चलाती हैं.
दिप्रिंट से बातचीत में वो कहती हैं, ‘सरकार ने साल 2016 में दिव्यांग जन अधिनियम पारित किया था जिसके तहत सरकारी स्कूलों और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त स्कूलों में दिव्यांग छात्रों के लिए स्पेशल टीचर का होना अनिवार्य है.’
उन्होंने कहा, ‘न्यायालयों ने इस एक्ट को कई राज्यों में सख्ती से लागू करवाकर स्पेशल टीचर और दिव्यांग छात्रों के लिए अन्य सुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं. लेकिन फिलहाल राजस्थान में 69,929 सरकारी स्कूलों में मात्र 1326 स्पेशल एजुकेटर ही नियुक्त किए गए हैं.’
वो आगे कहती हैं, ‘गांव से दूर ढाणी में रहने वाले बच्चे कैसे सरकारी स्कूल तक पहुंचेंगे. हर माता-पिता शहरों में जाकर अपने दिव्यांग बच्चों को स्पेशल स्कूलों में पढ़ाने के लिए आर्थिक रूप से मजबूत भी नहीं है.’
गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश (38.75%) के बाद दिव्यांग छात्रों में अशिक्षा के मामले में राजस्थान दूसरे नंबर (40.16%) पर है. यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान में 5-19 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूल जाने वाले दिव्यांग बच्चों की संख्या 30,67,50 है.
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‘दिव्यांग छात्राओं के साथ हो रहा जेंडर डिस्क्रीमिनेशन’
दिव्यांग बच्चों के एजुकेटर दीपेंद्र चौहान इस मसले पर दिप्रिंट से कहते हैं, ‘सामान्य बच्चों से अलग देश में 22 प्रकार की अलग-अलग विशेष योग्यताओं वाले बच्चों को ‘स्पेशल ऐबल्ड’ बच्चा कहा जाता है’.
उन्होंने कहा, ‘पहले स्पेशल बच्चों को अलग से शिक्षा देने की बात थी लेकिन इस वजह से उन बच्चों में एक अजीब किस्म की हीन भावना पैदा हो जाती थी. उन्हें सामान्य बच्चों से जोड़ने के लिए ये अधिनियम लागू किया गया. इस इनक्ल्यूसिव एजुकेशन सिस्टम में स्पेशल बच्चों को पढ़ाने के लिए स्पेशल टीचर का होना अनिवार्य है.’
वो आगे कहते हैं, ‘एक स्पेशल ऐबल्ड चाइल्ड रिहैबिलिटेशन एंड एजुकेटर के तौर पर मेरा यह मानना है कि राजस्थान में 87% दिव्यांग बच्चों का स्कूल से बाहर होने का मुख्य कारण एक्ट के प्रोविजंस का पूरी तरह लागू नहीं हो पाना है. जिसके तहत सामान्य छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक ऐसे बच्चों के नामांकन को बोझ की तरह लेते हैं.’
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चौहान बताते हैं कि यूनेस्को ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अभिभावकों और छात्रों को भी अपने अधिकारों की जानकारी का अभाव है. खासकर दिव्यांग छात्राओं के मामलों में परिवार के लोग बिना केयरटेकर के स्कूल भेजना उचित नहीं समझते. ऐसे में दिव्यांग छात्राओं का अनुपात और भी कम है.
यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण परिवेश और निम्न आय वर्ग परिवारों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में दाखिला नहीं ले पाते. साथ ही सरकारी स्कूलों में स्पेशल टीचर्स के अभाव के चलते सामान्य बच्चों के टीचर उनके नामांकन में ज्यादा रूचि नहीं रखते. स्कूलों में दिव्यांग बच्चों की मदद के लिए किसी सहायक का ना होना भी एक बहुत बड़ा फैक्टर है जिसके चलते अभिभावक अपने दिव्यांग बच्चों को स्कूलों में भेजना उचित नहीं समझते.