scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमत‘जिसको डिग्री दो उसे अपने यहां शिक्षक भी बनाओ’ का फॉर्मूला बरबाद कर रहा है भारतीय विश्वविद्यालयों को

‘जिसको डिग्री दो उसे अपने यहां शिक्षक भी बनाओ’ का फॉर्मूला बरबाद कर रहा है भारतीय विश्वविद्यालयों को

फ़ैकल्टी की नियुक्ति के समय विश्वविद्यालय लगभग हर मामले में अपने ही पुराने छात्रों को तरजीह देते हैं, भले ही योग्यता के लिहाज से वे कई तरह से उपयुक्त न होते हों. यह हमारे विश्वविद्यालयों के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है.

Text Size:

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कहानी दो बातें बताती है. एक तो यह कि भारत के विश्वविद्यालयों में कितनी संभावनाएं छिपी हुई हो सकती हैं; दूसरी यह कि उनका कैसा त्रासद पतन हो सकता है. आजादी के बाद के कुछ दशकों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपने फिजिक्स विभाग के मेघनाद साहा और के.एस. कृष्णन सरीखे वैज्ञानिकों पर; उसका अंग्रेजी विभाग फ़िराक़ गोरखपुरी और हरिवंश राय बच्चन जैसे साहित्यकारों पर; और गणित विभाग बी.एन. प्रसाद तथा गोरख प्रसाद सरीखे गणितज्ञों पर गर्व करता था. मार्के की बात यह है कि इनमें से किसी ने अपनी पीएचडी या ऊंची डिग्रियां इलाहाबाद विश्वविद्यालय से नहीं हासिल की थीं.

लेकिन आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय इस बात का उदाहरण बन गया है कि किसी विश्वविद्यालय को कैसा नहीं होना चाहिए. वह ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ (आंतरिक पोषण) जैसी घोर बीमारी के लिए बदनाम हो गया है. ऐसा केवल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के साथ नहीं हुआ है, भारत के लगभग सभी पुराने विश्वविद्यालयों का यही हाल है, चाहे वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी हो या बड़ौदा का एम.एस. यूनिवर्सिटी हो या पंजाब विश्वविद्यालय या राजस्थान विश्वविद्यालय.

‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ का अभिशाप तब लगता है जब किसी विश्वविद्यालय की फ़ैकल्टी में ज्यादा ऐसे शिक्षक भरे होते हैं जिनके पास उसी विश्वविद्यालय की डिग्रियां होती हैं. यह कोई संयोग नहीं है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पतन 1960 के दशक की बाद से शुरू हुआ और लगभग उसी समय से इसकी फ़ैकल्टी के शैक्षिक स्वरूपों में भी उल्लेखनीय बदलाव आना शुरू हुआ. उनमें से अधिकतर के पास उसी विश्वविद्यालय की पीएचडी डिग्रियां थीं और बाहर का कोई शैक्षिक अनुभव नहीं था. ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ से रैंकिंग, शोध का स्तर गिरता है, फैकल्टी की विविधता प्रभावित होती है, और लल्लो-चप्पो करने वाले ‘आंतरिक गुट’ का निर्माण होता है, जिससे वैचारिक प्रक्रिया ठहर जाती है. यह भी एक वजह है कि भारतीय विश्वविद्यालय ग्लोबल रैंकिंग में कभी शिखर पर नहीं पहुंच पाते.


य़ह भी पढ़ें: आख़िर क्यों मोदी सरकार भारतीय विश्वविद्यालय रैंकिंग प्रणाली एनआईआरएफ को ग्लोबल बनाने की योजना बना रही है


साठ का शानदार दशक

भारतीय विश्वविद्यालयों का पतन जितना त्रासद है उतना ही वह खतरे की घंटी भी है. और इसके पीछे वही ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ की प्रवृत्ति के आगे हथियार डालने की ही कहानी नज़र आती है. 1950 और ’60 वाले दशकों भारत में ऐसे कई विश्वविद्यालय थे जिन्होंने काफी संभावनाओं का प्रदर्शन करते हुए शुरुआत की थी. इनमें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) से लेकर राजस्थान विश्वविद्यालय तक के नाम लिये जा सकते हैं. लेकिन लगभग वे सारे बीच रास्ते में पिछड़ गए. 1950 के दशक में जब डॉ. ज़ाकिर हुसेन एएमयू के वाइस चांसलर थे, वह अपने उत्कर्ष की राह पर था. वहां सोर्बोन और लंदन युनिवर्सिटियों से निकले सबसे ज़हीन तीन युवा गणितज्ञ पढ़ाते थे. उसके इतिहास विभाग में भी ऐसी ही पृष्ठभूमि वाले प्रतिष्ठित विद्वान मौजूद थे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

हंसा जीवराज मेहता ने 1950 के दशक में देश के सभी कोनों और विदेश से भी चुनकर असाधारण फ़ैकल्टी का गठन करके बड़ौदा की एम.एस. यूनिवर्सिटी (एमएसयू) की शानदार शुरुआत की थी. साठ वाले दशक में इसके गणित विभाग का नेतृत्व सोर्बोन और लंदन युनिवर्सिटी से पीएचडी कर चुके जाने-माने युवा गणितज्ञ प्रो. यू.एन. सिंह कर रहे थे. इस विभाग के शोधों को अंतरराष्ट्रीय प्रशंसा मिलती थी. नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकटरमण रामकृष्णन ने, जिन्होंने एमएसयू से अंडरग्रेजुएट की डिग्री हासिल की थी, स्वीकार किया कि गणित में उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ सीखा उसमें बड़ौदा की भी बड़ी भूमिका रही. एमएसयू की फ़ैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स या म्यूजिक या होम साइंस जैसे कई दूसरे विभाग भी अपने ऊंचे मानदंडों और उपलब्धियों के कारण विशिष्ट स्थान बना चुके थे. इसके ज़्यादातर शिक्षक ऐसे थे जो दूसरे संस्थानों में पढ़ाई करके आए थे.

चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय का गणित विभाग 1960 के दशक में देश का एक सबसे शानदार शोध केंद्र था और विदेश के अच्छे संस्थानों की बराबरी करता था. उस समय इस विभाग की कमान जाने-माने गणितज्ञ प्रो. आर.पी. बंबह के हाथ में थी, जो कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अध्ययन करके आए थे. इस फ़ैकल्टी में ज्यादा वे लोग थे जो भारत से बाहर अध्ययन कर चुके थे. यही स्थिति इसके दूसरे विभागों की थी. 1960 के दशक में जयपुर के राजस्थान विश्वविद्यालय की भी यही कहानी थी. उसके इतिहास विभाग के अलावा दूसरे कई विभागों में भी विशिष्ट विद्वान भरे हुए थे. और इन्होंने मेधावी युवाओं को आकर्षित किया था.

यानी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि साठ का दशक उच्च शिक्षा के हमारे संस्थानों के लिए बेहद संभावनाशील और सुखद एहसास देने वाला था.


यह भी पढ़ें: आरक्षण नहीं, ये हैं भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों की दुर्गति की वजहें


धीमा जहर

लेकिन हमारे विश्वविद्यालयों ने बहुत पहले जो उम्मीदें जगाई थीं उन्हें पूरा करने में विफल रहे. उनका आगे का सफर चौतरफा गिरावट का रहा. इस पतन का एक अंदाजा इससे मिलता है कि हमारे विश्वविद्यालयों को सभी ग्लोबल रैंकिंगों में लगातार नीचा दर्जा मिलता रहा है. इसकी एक मुख्य वजह यह है कि हमारे विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध और शिक्षण स्तरीय नहीं हैं. इस गिरावट का ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ के साथ बेहद गहरा रिश्ता उभरता है. यह ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ किस शर्मनाक स्तर पर पहुंच चुकी है, यह इन संस्थानों की वेबसाइट पर इनकी फ़ैकल्टी की शैक्षिक पृष्ठभूमि पर नज़र डालने से ही स्पष्ट हो जाएगा. ये वेबसाइट बेहद निराशाजनक दृश्य उपस्थित करती हैं. इन विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में उन्हीं शिक्षकों को नियुक्त किया जाता रहा है, जो उन्हीं विश्वविद्यालयों में पढ़ते रहे हैं.

लेकिन शैक्षिक गतिविधि का मकसद तो नये विचारों और नये दृष्टिकोणों को आजमाना और आगे बढ़ाना है. अगर कोई संस्थान मुख्यतः अपने ही छात्रों को अपने यहां नियुक्त करता है, जो दूसरे साथी छात्रों की तरह एक ही तरह के विचारों में शिक्षित हुए हैं, तो नये दृष्टिकोण के लिए रास्ता बंद हो जाता है. दूसरी समस्या यह है कि खासकर भारत में जूनियर फ़ैकल्टी अपने संरक्षकों, वरिष्ठों के दबाव में रहता है, वह वैसा साहस नहीं दिखा पाता जो पुरानी अकादमिक जकड़नों को तोड़ने के लिए बहुत जरूरी है. यह भी देखा गया है कि नियुक्ति के समय संस्थान लगभग हर मामले में अपने ही पुराने छात्रों को तरजीह देते हैं, भले ही योग्यता के लिहाज से वे कई तरह से उपयुक्त न होते हों. यह और कुछ नहीं बल्कि धीमा जहर है, और भारत इस समस्या के प्रति जितनी जल्दी सचेत हो जाए उतना अच्छा. लेकिन मैं इसके लिए कोई कानून या नियम बनाने की वकालत नहीं कर रहा हूं.


यह भी पढ़ें: डीयू के एड-हॉक शिक्षकों का प्रदर्शन अंदर तक सड़ चुके हमारे स्नातक कार्यक्रम की ओर इशारा करता है


दुनिया के किसी भी अग्रणी संस्थान में ऐसा नहीं होता. जब मैं इंपीरियल कॉलेज ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी ऐंड मेडिसिन का छात्र था तब वहां इस अलिखित नियम को हर कोई जानता था कि वहां से पीएचडी करने वाले को अपनी मातृ संस्था से दूर जाकर ही नौकरी करनी है. अपने ही विश्वविद्यालय में अपने लिए नौकरी खोजने के बारे में न कोई बात करता था और न किसी तरह की कोई कोशिश करता था. भारत के विश्वविद्यालयों की भलाई के लिए मेरा एक ही सीधा-सा सुझाव है.

डॉ. ज़ाकिर हुसेन और हंसा जीवराज मेहता सरीखे काबिल अकादमिक नायकों को खोज निकालिए, उन्हें एक मिसाल पेश करने के लिए थोड़ी आज़ादी और थोड़ा समय दीजिए, और ‘अकादमिक इनब्रीडिंग’ के चलन पर लगाम लगाइए.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, एक प्रतिष्ठित गणितज्ञ और एक शिक्षाविद् हैं. विचार निजी है.)

share & View comments

3 टिप्पणी

  1. यह बहुत ही परखी हुई और आंतरिक बातें साझा की गई है ,और यह विश्वविद्यालयों की गिरती रैंकिंग का सबसे बड़ा कारण है। मै इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ा हूं और वहां तो जैसे प्रथा बन गई है कि यहीं से डिग्री लीजिए और भर्ती आने पे आपको तवज्जो दिया जाएगा इंटरव्यू में, और आप बन गए प्रोफेसर।

  2. The views in this article urge for introspection for revivalisation of gradual derailment and degradation for upkeeping n galvanisation of higher education. I agree with the views expressed in this article and demand teaching fraternity to revaluate n do a bit self-assessment for corrective measures.

  3. बहुत ही सटीक अनुभव की बातें लिखी गई है। यही कारण है कि भारत में शिक्षा का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है और यहां सिर्फ लल्लू चप्पू की ही राजनीति जन्म ले रही है जो जितना बड़ा लल्लू चप्पू करने वाला है वह उतना हीं ज्यादा प्रमोशन पाता है। यहां सिर्फ साक्षर तैयार किए जाते हैं शिक्षित नहीं।

Comments are closed.